अरहर की खेती

अरहर की खेती

अरहर की खेती


हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे। अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य

अरहर उत्पादन की उन्नत तकनीकी





अरहर की उन्नतशील खेती





  1. भूमिका

  2. उन्नतशील प्रजातियॉं

  3. बुआई का समय

  4. भूमि का चुनाव

  5. खेत की तैयारी

  6. उर्वरक

  7. बीजशोधन

  8. बीजोपचार

  9. दूरी

  10. बीजदर

  11. सिंचाई एवं जल निकास

  12. खरपतवार नियंत्रण

  13. फसल सुरक्षा के तरीके

  14. प्रमुख कीट

  15. कीटो का प्रभावी नियंत्रण

  16. कटाई एवं मड़ाई

  17. उपज

  18. भण्डारण

  19. आइसोपाम सुविधा









ओल की खेती

भूमिका


दलहनी फसलों में अरहर का विशेष स्थान है। अरहर की दाल में लगभग 20-21 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है, साथ ही इस प्रोटीन का पाच्यमूल्य भी अन्य प्रोटीन से अच्छा होता है। अरहर की दीर्घकालीन प्रजातियॉं मृदा में 200 कि0ग्रा0 तक वायुमण्डलीय नाइट्रोजन  का स्थरीकरण कर मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता में वृद्धि करती है। शुष्क क्षेत्रों में अरहर किसानों द्वारा प्राथमिकता से बोई जाती है। असिंचित क्षेत्रों में इसकी खेती लाभकारी सि) हो सकती है क्योंकि गहरी जड़ के एवं अधिक तापक्रम की स्थिति में पत्ती मोड़ने के गुण के कारण यह शुष्क क्षेत्रों में सर्वउपयुक्त फसल है। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश देश के प्रमुख अरहर उत्पादक राज्य हैं।

चीकू की खेती

उन्नतशील प्रजातियॉं

























शीघ्र पकने वाली प्रजातियॉं

 
उपास 120, पूसा 855, पूसा 33, पूसा अगेती, आजाद (के 91-25) जाग्रति (आईसीपीएल 151) , दुर्गा (आईसीपीएल-84031)ए प्रगति।

 
मध्यम समय में पकने वाली प्रजातियॉंटाइप 21, जवाहर अरहर 4, आईसीपीएल 87119

(आशा) ए वीएसीएमआर 583

 
देर से पकने वाली प्रजातियॉंबहार, बीएमएएल 13, पूसा-9
हाईब्रिड प्रजातियॉंपीपीएच-4, आईसीपीएच 8
रबी बुवाई के लिए उपयुक्त प्रजातियॉंबहार, शरद (डीए 11) पूसा 9, डब्लूबी 20

 

अग्रिम पंक्ति प्रदेशन अन्तर्गत शीघ्र, मध्यम व देर से पकने वाली उन्नत प्रजातियों ने विभिन्न स्थानीय/पुरानी प्रजातियों की अपेक्षा क्रमशः 94, 36 एवं 17 प्रतिशत अधिक उपज प्रदान की हैं। प्रमुख अरहर उत्पादक राज्यों हेतु संस्तुत उन्नत प्रजातियों की उपज निम्न तालिका में दर्शायी गयी है।









































































































































राज्यप्रजातिउपज कि0ग्रा0/है0%वृद्धि
शीघ्र

 
हरियाणाएच0 82-1 (पारस)

-



1127



-



-


पंजाबपी0पी0एच0-4 (हाइब्रिड)

ए0एल0-201

-


-



1400


1295



-


-



-


-


उत्तर पद्रेशउपास-120

स्थानीय



1295



817



46.8


उड़ीसाउपास-120

गोकनपुर



337



173



94.8


तमिलनाडुसी0ओ0पी0एच0-2

सी0ओ0-5



850



610



39.3


मध्यम








महाराष्ट्रआई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

वी0एस0एम0आर0-583
स्थानीय

स्थानीय



1410


2185



1060


1278



33.0


70.9


गुजरातआई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

जे0के0एम0-7

टी0-21


वी0डी0एन0-2



1762


1400



1207


887



45.9


57.8


छत्तीसगढ़आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

एन0-1481



514



407



26.3


मध्य प्रदेशआई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

आई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

ए0के0पी0जी0-4101

जी0टी0-100

स्थानीय


वी0डी0एन0-2


स्थानीय


वी0डी0एन0-2



1410


1350


1600


1256



1060


1000


950


836



33.0


35.0


68.4


56.2


कर्नाटकआई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

स्थानीय



1465



1240



18.4


आन्ध्र प्रदेशआई0सी0पी0एल0-87119 (आशा)

-



1905



1452



31.1


देर








बिहारपूसा-9

शरद



2142



2034



5.3


पूर्वीउत्तर प्रदेशबहार

-



1995



-



-



बुआई का समय


शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के प्रथम पखवाड़े तथा विधि में तथा मध्यम देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के द्वितीय पखवाड़े में करना चाहिए। बुआई सीडडिरल या हल के पीछे चोंगा बॉंधकर पंक्तियों में हों।

भूमि का चुनाव


अच्छे जलनिकास व उच्च उर्वरता वाली दोमट भूमि सर्वोत्तम रहती है। खेत में पानी का ठहराव फसल को भारी हानि पहुँचाता है।

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खेत की तैयारी


मिट्‌टी पलट हल से एक गहरी जुताई के उपरान्त 2-3 जुताई हल अथवा हैरो से करना उचित रहता है। प्रत्येक जुताई के बाद सिंचाई एवं जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था हेतु पाटा Solis Hybrid 5015 Tractor देना आवश्यक है।

उर्वरक


मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 से0मी0 गहराई व 5 से0मी0 साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। प्रति हैक्टर 15-20 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन , 50 कि0ग्रा0 फास्फोरस, 20 कि0ग्रा0 पोटाश व 20 कि0ग्रा0 गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहॉं पर 15-20 कि0ग्रा0 जिन्क सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन  एवं फासफोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0डाइ अमोनियम फासफेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति हे0 का प्रयोग करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।

बीजशोधन


मृदाजनित रोगों से बचाव के लिए बीजों को 2 ग्राम थीरम व 1 ग्राम कार्वेन्डाजिम प्रति कि0ग्राम अथवा 3 ग्राम थीरम प्रति कि0ग्राम की दर से शोधित करके बुआई करें। बीजशोधन बीजोपचार से 2-3 दिन पूर्व करें।

बीजोपचार


10 कि0ग्रा0 अरहर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है। 50 ग्रा0 गुड़ या चीनी को 1/2 ली0 पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें। उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें, व बीज उपचार दोपहर के बाद करें।

दूरी


पंक्ति से पंक्ति

45-60 से0मी0 तथा (शीघ्र पकने वाली)

60-75 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)

पौध से पौध

10-15 से0मी0 (शीघ्र पकने वाली)

15-20 से0मी0 (मध्यम व देर से पकने वाली)

बीजदर


12-15 कि0ग्रा0 प्रति हे0।

सिंचाई एवं जल निकास


चूँकि  फसल असिंचित दशा में बोई जाती है अतः लम्बे समय तक वर्षा न होने पर एवं पूर्व पुष्पीकरण अवस्था तथा दाना बनते समय फसल में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। उच्च अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जलनिकास का होना प्रथम शर्त है अतः निचले एवं अधो जल निकास की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ो पर बुआई करना उत्तम रहता है।

खरपतवार नियंत्रण


प्रथम 60 दिनों में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अत्यन्त नुकसानदायक होती है। हैन्ड हों या खुरपी से दो निकाईयॉं करने पर प्रथम बोआई के 25-30 दिन बाद एवं द्वितीय 45-60 दिन बाद खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ मृदा वायु-संचार में वृद्धि होने से फसल एवं सह जीवाणुओं की वृद्धि हेतु अनुकूल वातावरण तैयार होता है। किन्तु यदि पिछले वर्षों में खेत में खरपतवारों की गम्भीर समस्या रही हो तो अन्तिम जुताई के समय खेत में वैसालिन की एक कि0ग्रा0 सक्रिय मात्रा को 800-1000 ली0 पानी में घोलकर या लासो की 3 कि0ग्रा0 मात्रा को बीज अंकुरण से पूर्व छिड़कने से खरपतवारों पर प्रभावी नियन्त्रण पाया जा सकता है।

फसल सुरक्षा के तरीके


कीट नियन्त्रण

  • फलीमक्खी/फलीछेदक क्यूनाल फास या इन्डोसल्फान 35 ई0सी0, 20 एम0एल0/क्यूनालफास 25 ई0सी0 15 एम0एल0/मोनोक्रोटोफास 30 डबलू0एस0सी0 11 एम0एल0 प्रति 10 ली0 पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए तथा एक हैक्टेयर में 1000 लीटर घोल का प्रयोग करना चाहिए।

  • पत्ती लपेटक - इन्डोसल्फान 35 ई0सी0 20 एम0एल0 अथवा मोनोक्रोटोफास 36 डबलू0एस0सी0

  • एम0एल0 प्रति 10 ली0 पानी में घोलकर छिड़काव करें।


रोग नियन्त्रण

  • फाइटा्रेप्थोरा ब्लाइट - बीज को रोडोमिल 2 ग्रा0/किग्रा0 बीज से उपचारित करने बोयें। रोगरोधी प्रजातियॉं जैसे आशा, मारूथि बी0एस0एम0आर0-175 तथा वी0एस0एम0आर0-736 का चयन करना चाहिए।

  • बिल्ट - प्रतिरोधी प्रजातियों का उपयोग करें, बीज शोधित कर के बोयें। मृदा का सौर्यीकरण करें।

  • बन्ध्यमोजेक - प्रतिरोधी प्रजातियॉं जैसे शरद, बहार आशा, एम0ए0-3, मालवीय अरहर-1 आदि बोयें। रोगी पौधों को जला दें। वाहक कीट के नियन्त्रण हेतु मेटासिस्टाक का छिड़काव करें।


ब्रोकोली की खेती

प्रमुख कीट



  • फली मक्‍खी


यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्‍ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं खाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती है। दानों का सामान्‍य विकास रूक जाता है।मादा छोटे व  काले रंग की होती है जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडो से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है। फली के अंदर ही मेगट शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है ओर दानों का आकार छोटा रह जाता है। तीन सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

  • फली छेदक इल्‍ली


छोटी इल्लियॉ फलियों के हरे उत्‍तकों को खाती है व बडे होने पर कलियों , फूलों फलियों व बीजों पर नुकसान करती है। इल्लियॉ फलियों पर टेढे – मेढे छेद बनाती है।

इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियॉ पीली, हरी, काली रंग की होती है तथा इनके शरीर पर हल्‍की गहरी पटिटयॉ होती है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्‍ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

  • फल्‍ली का मत्‍कुण


मादा प्राय: फलियों पर गुच्‍छों में अंडे देती है। अंडे कत्‍थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु वयस्‍क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते है, जिससे फली आडी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्‍ताह में पूरा करते है।

  • प्‍लू माथ


इस कीट की इल्‍ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विश्‍टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दानो के आसपास लाल रंग की फफूंद आ जाती है।

  • ब्रिस्‍टल ब्रिटल


ये भृंग कलियों, फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है जिससे उत्‍पादन में काफी कमी आती है। यक कीट अरहर मूंग, उड़द , तथा अन्‍य दलहनी फसलों पर भी नुकसान पहुंचाता है। भृंग को पकडकर नष्‍ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।

कीटो का प्रभावी नियंत्रण


1.कृषि के समय

  • गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें

  • शुद्ध अरहर न बोयें

  • फसल चक्र अपनाये

  • क्षेत्र में एक ही समय बोनी करना चाहिए

  • रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।

  • अरहर में अन्‍तरवर्तीय फसले जैसे ज्‍वार, मक्‍का, या मूंगफली को लेना चाहिए।


2 . यांत्रिक विधि द्धारा

  • फसल प्रपंच लगाना चाहिए

  • फेरामेन प्रपंच लगाये

  • पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्‍ट करें

  • खेत में चिडियाओं के बैठने की व्‍यवस्‍था करे।


3 . जैविक नियंत्रण द्वारा

  • एन.पी.वी 5000 एल.ई / हे. + यू.वी. रिटारडेन्‍ट 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत मिश्रण को शाम के समय खेत में छिडकाव करें।

  • बेसिलस थूरेंजियन्‍सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्‍टर + टिनोपाल 0.1 प्रतिशत + गुड 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करे।


4 जैव – पौध पदार्थ के छिड़काव द्वारा : -

  • निंबोली शत 5 प्रतिशत का छिड़काव करे।

  • नीम तेल या करंज तेल 10 -15 मी.ली. + 1 मी.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्‍डोविट टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

  • निम्‍बेसिडिन 0.2 प्रतिशत या अचूक 0.5 प्रतिशत का छिड़काव करें।

  • रासायनिक नियंत्रण द्वारा

  • आवश्‍यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का प्रयोग करें।

  • फली मक्‍खी नियंत्रण हेतु संर्वागीण कीटनाशक दवाओं का छिडकाव करे जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी 0.03 प्रतिशत मोनोक्रोटोफॉस 36 एस.एल. 0.04 प्रतिशत आदि।


फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण के लिए

फेनवलरेट 0.4 प्रतिशत चूर्ण या क्‍लीनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण या इन्‍डोसल्‍फान 4 प्रतिशत चूर्ण का 20 से 25 किलोग्राम / हे. के दर से भुरकाव करें या इन्‍डोसलफॉन 35 ईसी. 0.7 प्रतिशत या क्‍वीनालफास 25 ई.सी 0.05 प्रतिशत या क्‍लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी . 0.6 प्रतिशत या फेन्‍वेलरेट 20 ई.सी 0.02 प्रतिशत या एसीफेट 75 डब्‍लू पी 0.0075 प्रतिशत या ऐलेनिकाब 30 ई.सी 500 ग्राम सक्रिय तत्‍व प्रति हे. या प्राफेनोफॉस 50 ई.सी एक लीटर प्रति हे. का छिड़काव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु प्रथम छिडकाव सर्वागीण कीटनाशक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्‍पर्श या सर्वागीण कीटनाशक दवाई का छिड़काव करें। कीटनाशक का तीन छिड़काव या भुरकाव पहला फूल बनने पर दूसरा 50 प्रतिशत फुल बनने पर और तीसरा फली बनने बनने की अवस्‍था पर करना चाहिए।

सोयाबीन की खेती

कटाई एवं मड़ाई


80 प्रतिशत फलियों के पक जाने पर फसल की कटाई गड़ासे या हॅंसिया से 10 से0मी0 की उॅंचाई पर करना चाहिए। तत्पश्चात फसल को सूखने के लिए बण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। फिर चार से पॉच दिन सुखाने के पश्चात पुलमैन थ्रेशर द्वारा या लकड़ी के लठ्‌ठे पर पिटाई करके दानो को भूसे से अलग कर लेते हैं।

सूरजमुखी की खेती

उपज


उन्नत विधि से खेती करने पर 15-20 कुन्तल प्रति हे0 दाना एवं 50-60 कुन्तल लकड़ी प्राप्त होती है।

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भण्डारण


भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 10-11 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु अल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करे।

आइसोपाम सुविधा


तिलहन, दलहन, आयलपाम तथा मक्का पर एकीकृत योजना के अन्तर्गत देश में अरहर उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु उपलब्ध सुविधायें-

  • बीज मिनीकिट कार्यक्रम के अन्तर्गत खण्ड (ब्लाक) के प्रसार कार्यकर्ताओं द्वारा चयनित कृषकों को आधा एकड़ खेत हेतु नवीन एवं उन्नत प्रजाति का सीड मिनीकिट (4 कि0ग्रा0/मिनीकिट) राइजोवियम कल्चर एवं उत्पादन की उन्नत विधि पर पम्पलेट सहित निःशुल्क उपलब्ध कराया जाता है।

  • 'बीज ग्राम योजना' अन्तर्गत चयनित कृषकों को विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण एवं रू0 375/- प्रति क्विंटल की आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

  • फली बेधक के नियन्त्रण के लिए एन.पी.वी. के प्रयोग को प्रोत्साहन देने हेतु रू0 250/है0/किसान की सहायता उपलब्ध है।

  • यदि एकीकृत पेस्ट नियंत्रण प्रभावशाली न हो, तभी पादप सुरक्षा रसायनों एवं खरपतवारनाशी के प्रयोग पर प्रयुक्त रसायन की लागत का 50% जो कि रू0 500/- से अधिक नहीं हो की सहायता प्रदान की जाती है।

  • पादप सुरक्षा यंत्रों की खरीद में मदद हेतु लागत का 50% की सहायता उपलब्ध है। (अधिकतम व्यक्ति संचालित यन्त्र रू0 800/-, शक्ति चालित यन्त्र रू0 2000/-)।

  • कम समय में अधिक क्षेत्रफल में उन्नत विधि से समय से बोआई तथा अन्य सस्य क्रियाओं हेतु आधुनिक फार्म यन्त्रों को उचित मूल्य पर कृषकों को उपलब्ध कराने हेतु राज्य सरकार को व्यक्ति/पशुचालित  यन्त्रों पर कुल कीमत का 50% (अधिकतम रू.2000/-) एवं शक्ति चालित यन्त्रों पर कुल कीमत का 30% (अधिकतम रू.10000/-) की सहायता उपलब्ध कराई जाती है।

  • जीवन रक्षक सिंचाई उपलब्ध कराने तथा पानी के अधिकतम आर्थिक उपयोग हेतु स्प्रिंकलर सेट्‌स के प्रयोग को प्रोत्साहन के लिए छोटे सीमान्त एवं महिला कृषकों को मूल्य का 50 प्रतिशत या रू0 15000/- (जो भी कम हो) तथा अन्य कृषकों को मूल्य का 33 प्रतिशत या रू0 10000/- (जो भी कम हो) की सहायता उपलब्ध है। किन्तु राज्य सरकार अधिकतम कृषकों तक परियोजना का लाभ पहुँचाने हेतु दी जाने वाली सहायता में कमी कर सकती है।

  • राइजोबियम कल्चर तथा/या पी0एस0बी0 के प्रयोग को प्रोत्साहन हेतु वास्तविक लागत की 50 प्रतिशत (अधिकतम रू0 50/प्रति हे0 की आर्थिक मदद उपलब्ध है)।

  • कृषकों को सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति सुनिश्चित करने हेतु लागत का 50 प्रतिशत (अधिकतम रू0 200/-की आर्थिक मदद उपलब्ध है)

  • गन्धक के श्रोत के रूप में जिप्सम/पाइराइट के प्रयोग को प्रोत्साहन हेतु लागत का 50 प्रतिशत तथा यातायात शुल्क जोकि महाराष्ट्र राज्य को रू0 750/- तथा अन्य राज्यों को रू0 500/- से अधिक न हो की सहायता उपलब्ध है।

  • सहकारी एवं क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा नाबार्ड के निर्देशानुसार दलहन उत्पादक कृषकों को विशेष ऋण सुविधा उपलब्ध करायी जाती है।

  • कृषकों तक उन्नत तकनीकी के शीघ्र एवं प्रभावी स्थानान्तरण हेतु अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन आयोजित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं अन्य शोध संस्थाओं को प्रदर्शन की वास्तविक लागत या रू0 2000/एकड़/प्रदर्शन   (जो भी कम हो)ए तथा खण्ड प्रदर्शन आयोजित करने के लिए राज्य सरकार को उत्पादन के आगातों का 50 प्रतिशत तथा वास्तविक मूल्य के आधार पर रू0 2000/हे0 की सहायता प्रदान की जाती है।

  • कृषकों को प्रशिक्षण उपलब्ध कराने हेतु प्रति 50 कृषकों के समूह पर कृषि विज्ञान केन्द्रों एवं कृषि विश्वविद्यालयों को रू0 15000/- की सहायता प्रदान की जाती है।


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परिचय


मध्यप्रदेश में दलहनी फसलों के स्थान पर सोयाबीन के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से दलहनी फसलों का रकबा घट रहा है। साथ-साथ अरहर फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। परंतु अरहर फसल की व्यापक क्षेत्रों के अनुकुल उच्च उत्पादन क्षमतावाली उकटारोधी प्रजातियों के उपयोग करने से उत्पादकता में होने वाले उतार-चढाव में कमी तथा उत्पादकता में स्थायित्व आया है। सिंचाई, उर्वरक तथा कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में कृषकों की बढ़ती जागरूकता दलहन उत्पादकता बढाने मे सहायक सिद्ध हो रही है। सामायिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर व कवक नाषियों से बीजोपचार तथा खरपतवार प्रबंधन जैसे बिना लागत के अथवा न्यूनतम निवेष वाले आदान भी उत्पादकता की वृद्धि करते है। अरहर दाल के आसमान छूते भाव के कारण फिर से मध्यप्रदेष के किसानों का रूझान अरहर की खेती की ओर बढ़ रहा है।

भारत में दालें प्रोटीन के रूप में भोजन का एक अभिन्न अंग है। टिकाऊ कृषि हेतु मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने एंव आहार तथा चारे के विभिन्न रूपों में उपयोग आदि दलहनी फसलों के लाभ हैं। अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनो द्वारा यह स्पष्ट दर्षाया जा चुका है कि उन्नतषील उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाकर अरहर की वर्तमान उत्पादकता को दुगना तक किया जा सकता है। दलहनी फसलों के पौधों की जड़ों पर उपस्थित ग्रंथियाँ वायुमण्डल से सीधे नत्रजन ग्रहण कर पौधों को देती हैं, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। दलहनी फसले खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। खरीफ की दलहनी फसलों में तुअर प्रमुख है। मध्य प्रदेश में अरहर को लगभग 5.3 लाख हेक्टर भूमि में लिया जाता है जिससे औसतन 530.5 (2011-12) किलो प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। मध्यप्रदेश से अरहर की नई प्रजातियां जे.के.एम.-7, जे.के.एम.-189 व ट्राम्बे जवाहर तुवर-501, विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (संकर) दलहन विकास परियोजना, खरगोन द्वारा विकसित की गई है। अरहर को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लगाने की अनुषंसा कर करीब एक से दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र का रकबा मध्यप्रदेष में बढ़ाया जा सकता है। अरहर फसल के बाद में रबी फसल भी समय पर ली जा सकती है। अतः ये जातियां द्विफसली प्रणाली में उपयुक्त है।

हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी:-

अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य से भारी काली भूमि जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई क व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।

जातियों का चुनाव:

बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः

तालिका-1: अरहर की किस्मे (कम अवधि)






























अरहर की किस्में/विकसितवर्षउपज क्वि./हे.फसल अवधिविशेषताऐं
उपास-120 (1976)10-12130-140असीमित वृद्धिवाली, लाल दानेकी , कम अवधि मेंपकने वाली जाति
आई.सी.पी.एल.-87 (प्रगति,1986)10-12125-135सीमित वृद्धि की कम अवधिमेंपकती है। बीज गहरा लाल मध्यम आकार का होता है।
ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 (2008)19-23145-150असीमित वृद्धि वाली,लालदाने की , कम अवधि में पकने वाली, उकटा रोगरोधी जाति है।


मध्यम गहरी भूमि मंे जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एंव असिंचित स्थिति में मध्यम अवधि की जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः

तालिका-2 अरहर की किस्मे ( मध्यम अवधि)




























































अरहर की किस्में/विकसित वर्षउपज (क्वि/हे.)फसल अवधिविशेषताऐं
जे.के.एम.-7 (1996)में 20-22170-190असीमित वृद्धि वाली, भूरा-लाल दाना मध्यम आकार का होता है। यह उकटा रोधक जाति है।
जे.के.एम.189 (2006)में 20-22 अर्धसिंचित में 30-32160-170असीमितवृद्धि वाली, हरी फल्ली काली धारियों के साथ, लाल-भूरा बड़ा दाना, 100 दानों का वजन 10.1 ग्राम व उकटा,बांझपन व झुलसा रोग रोधी एवं सूत्र कृमी रोधी एवं फली छेदक हेतु सहनषील, देरसे बोनी में भी उपयुक्त
आई.सी.पी.-8863(मारुती,1986)20-22150-160असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का भूरा लाल दाना होता है। यह उकटा रोधक जाति है। इस जाति में बांझपन रोग का प्रभाव ज्यादा होता है।
जवाहर अरहर-4(1990)18-20180-200असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना,फायटोपथोरा रोगरोधी
आई.सी.पी.एल.-87119(आषा1993)18-20160-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम अवधि वाली बहुरोग रोधी(उकटा,बांझपनरोग) जाति है। मध्यम आकार का लाल दाना होता है।
बी.एस.एम.आर.-853(वैषाली,2001)18-20170-190असीमित वृद्धि वाली, सफेद दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी( उकटाव बांझपन रोग)
बी.एस.एम.आर.-736(1999)18-20170-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, मध्यम अवधि वाली, उकटा एवं बांझ रोगरोधक है।
विजया आई.सी.पी.एच.-2671(2010)22-25164-184असीमित वृद्धि वाली, फूल पीले रंग का घनी लाल धारियो वाली, फलियां हल्के बैंगनी रंग एवं गहरा लाल दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटाव बांझपन रोग)


तालिका-3: उत्तर पूर्व मध्य प्रदेष हेतु उपयुक्त जांतियां (लंबी अवधि )






















अरहर की किस्में/विकसित वर्षउपज क्वि/हे.फसल अवधिविशेषताऐं
एम.ए-3 (मालवीय,1999)18-20210-230असीमीत वृद्धि वाली, भूरे रंग का बड़ा दाना, सूखा एवं बांझपन रोग रोधी, म.प्र.के उत्तर-पूर्व भाग के लिए उपयुक्त
ग्वालियर-3(1980)15-18230-240सीधे बड़वार वाली, लाल बड़ा दाना, गिर्ध क्षेत्र के लिये उपयुक्त


अंतरवर्तीय फसल:-

अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।

  • अरहर $ मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  • अरहर $ उडद या मूंग 1:2 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  • अरहर की उन्नत जाति जे.के.एम.-189 या ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 को सोयाबीन या मूंग या मूंगफली के साथ अंतरवर्तीय फसल में उपयुक्त पायी गई है।


बोनी का समय व तरीका:-

अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।

बीज की मात्रा व बीजोपचारः-

जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।

निंदाई-गुडाईः-

खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।

सिंचाईः-

जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।

पौध संरक्षण:-

अ. बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-

  • उकटा रोग: यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ जैसे जे.के.एम-189, सी.-11, जे.के.एम-7, बी.एस.एम.आर.-853, 736 आशा आदि बोये। उन्नत जातियों को बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम रहता है।

  • बांझपन विषाणु रोग: यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए। बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।

  • फायटोपथोरा झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये। रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।


कीट:-

  • फली मक्खी:- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

  • फली छेदक इल्ली:- छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।

  • फली का मत्कुण:- मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।

  • प्लू माथ :- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।

  • ब्रिस्टल ब्रिटलः ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।


कीट नियंत्रणः-

कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।

  • कृषि कार्य द्वारा:

  • गर्मी में गहरी जुताई करें ।

  • शुद्ध/सतत अरहर न बोयें ।

  • फसल चक्र अपनायंे ।

  • क्षेत्र में एक समय पर बोनी करना चाहिए।

  • रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही डालें।

  • अरहर में अन्तरवर्तीय फसले जैसे ज्वार , मक्का, सोयाबीन या मूंगफली को लेना चाहिए।





    • यांत्रिकी विधि द्वारा:-

      • प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए

      • फेरोमेन टेप्स लगाये

      • पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्ट करें

      • खेत में चिडियों के बैठने के लिए अंग्रेजी शब्द ’’टी’’ के आकार की खुटिया लगायें।



    • जैविक नियंत्रण द्वारा:-

      • एन.पी.वी. 500 एल.ई./हे. $ यू.वी. रिटारडेन्ट 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत मिश्रण का शाम के समय छिडकाव करें।

      • बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टर $ टिनोपाल 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करे।



    • जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा:

      • निंबोली सत 5 प्रतिषत का छिडकाव करें

      • नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली.$1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्डोविट, टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

      • निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिषत या अचूक 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करें ।



    • रासायनिक नियंत्रण द्वारा:-

      • आवष्यकता पडने पर एवं अंतिम हथियार के रूप में ही कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें।

      • फली मक्खी एवं फली के मत्कुण के नियंत्रण हेतु सर्वांगीण कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. या प्रोपेनोफाॅस-50 के 1000 मिली. मात्रा 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

      • फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण हेतु - इण्डोक्सीकार्ब 14.5 ई.सी. 500 एम.एल. या क्वीनालफास 25 ई.सी. 1000 एम.एल. या ऐसीफेट 75 डब्लू.पी. 500 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर छिडकाव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतू प्रथम छिडकाव सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का छिडकाव करें। तीन छिडकाव में पहला फूल बनना प्रारंभ होने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करने से सफल कीट नियंत्रण होता है।



    • कटाई एवं गहाई:-




जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।

अरहर की जातियां, रोग एवं लगने वाले कीट




















 



भूमि का चुनाव एवं तैयारी:-


हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।

अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य से भारी काली भूमि जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर  से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई क व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।

जातियों का चुनाव:


बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ  बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः










अरहर की किस्मे (कम अवधि)































अरहर की किस्में/विकसित वर्ष


उपज क्वि./हे.


फसल अवधि


विशेषताऐं

उपास-120 (1976)10-12130-140असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की , कम अवधि में पकने वाली जाति
आई.सी.पी.एल.-87 (प्रगति,1986)10-12125-135सीमित वृद्धि की कम अवधि में पकती है। बीज गहरा लाल मध्यम आकार का होता है।
ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 (2008)19-23145-150असीमित वृद्धि वाली, लाल दाने की , कम अवधि में पकने वाली, उकटा रोगरोधी जाति है।












अरहर की किस्मे ( मध्यम अवधि)




































































अरहर की किस्में/विकसित वर्ष


उपज (क्वि/हे.)


फसल अवधि


विशेषताऐं

जे.के.एम.-7 (1996)असिंचित में 20-22170-190असीमित वृद्धि वाली, भूरा-लाल दाना मध्यम आकार का होता है। यह उकटा रोधक जाति है।
जे.के.एम.189 (2006)असिंचित में 20-22 अर्धसिंचित में 30-32160-170असीमित वृद्धि वाली, हरी फल्ली काली धारियों के साथ, लाल-भूरा बड़ा दाना, 100 दानों का वजन 10.1 ग्राम व उकटा, बांझपन व झुलसा रोगरोधी एवं सूत्रकृमी रोधी एवं फली छेदक हेतु सहनषील, देर से बोनी में भी उपयुक्त
आई.सी.पी.-8863 (मारुती, 1986)20-22150-160असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का भूरा लाल दाना होता है। यह उकटा रोधक जाति है। इस जाति में बांझपन रोग का प्रभाव ज्यादा होता है।
जवाहर अरहर-4 (1990)18-20180-200असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, फायटोपथोरा रोगरोधी
आई.सी.पी.एल.-87119 (आषा 1993)18-20160-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम अवधि वाली बहुरोग रोधी (उकटा, बांझपन रोग) जाति है। मध्यम आकार का लाल दाना होता है।
बी.एस.एम.आर.-853 (वैषाली, 2001)18-20170-190असीमित वृद्धि वाली, सफेद दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटा व बांझपन रोग)
बी.एस.एम.आर.-736 (1999)18-20170-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, मध्यम अवधि वाली, उकटा एवं बांझरोग रोधक है।
विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (2010)22-25164-184असीमित वृद्धि वाली, फूल पीले रंग का घनी लाल धारियो वाली, फलियां हल्के बैंगनी रंग एवं गहरा लाल दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटा व बांझपन रोग)



 

अंतरवर्तीय फसल:-


अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।

  1. अरहर मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  2.  उडद या मूंग 1:2 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  3.  उन्नत जाति जे.के.एम.-189 या ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 को सोयाबीन या मूंग या मूंगफली के साथ अंतरवर्तीय फसल में उपयुक्त पायी गई है।


बोनी का समय व तरीका:-


अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।

बीज की मात्रा व बीजोपचारः-


जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।

निंदाई-गुडाईः-


खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।

सिंचाईः-


जहाँ  सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ  बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।

पौध संरक्षण:-


बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-


उकटा रोग:

यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ  जैसे जे.के.एम-189, सी.-11, जे.के.एम-7, बी.एस.एम.आर.-853, 736 आशा आदि बोये। उन्नत जातियों को बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम रहता है।
बांझपन विषाणु रोग:

यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए। बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।
फायटोपथोरा झुलसा रोग:

रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये। रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।

कीट:-


मक्खी:-

यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
छेदक इल्ली:-

छोटी इल्लियाँ  फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं  व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ  फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ  पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ  होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
फली का मत्कुण:-

मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
प्लू माथ :-

इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद  आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ  फलियों पर ही शंखी में  परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।
ब्रिस्टल ब्रिटलः

ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।

कीट नियंत्रणः-












 कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।


1. कृषि कार्य द्वारा:


  • गर्मी में गहरी जुताई करें ।

  • शुद्ध/सतत अरहर न बोयें ।

  • फसल चक्र अपनायंे ।

  • क्षेत्र में एक समय पर बोनी करना चाहिए।

  • रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही डालें।

  • अरहर में अन्तरवर्तीय फसले जैसे ज्वार , मक्का, सोयाबीन या मूंगफली को लेना चाहिए।


2. यांत्रिकी विधि द्वारा:-


  •   प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए

  •   फेरोमेन टेप्स लगाये

  •   पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्ट करें

  •   खेत में चिडियों के बैठने के लिए अंग्रेजी शब्द ’’टी’’ के आकार की खुटिया लगायें।


3. जैविक नियंत्रण द्वारा:-


  • एन.पी.वी. 500 एल.ई./हे. $ यू.वी. रिटारडेन्ट 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत मिश्रण का शाम के समय छिडकाव करें।

  • बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टर $ टिनोपाल 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करे।


4.  जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा: 


  •   निंबोली सत 5 प्रतिषत का छिडकाव करें

  •   नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली.$1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्डोविट, टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

  •   निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिषत या अचूक 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करें ।


5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा:-

  •  आवष्यकता पडने पर एवं अंतिम हथियार के रूप में ही कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें।

  •  फली मक्खी एवं फली के मत्कुण के नियंत्रण हेतु सर्वांगीण कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. या प्रोपेनोफाॅस-50 के 1000 मिली. मात्रा 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

  • फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण  हेतु – इण्डोक्सीकार्ब 14.5 ई.सी. 500 एम.एल. या क्वीनालफास 25 ई.सी. 1000 एम.एल. या ऐसीफेट 75 डब्लू.पी. 500 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर छिडकाव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतू प्रथम छिडकाव सर्वांगीण  कीटनाषक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का छिडकाव करें। तीन छिडकाव में पहला फूल बनना प्रारंभ होने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करने से सफल कीट नियंत्रण होता है।


6. कटाई एवं गहाई:-

जब पौधे की पत्तियाँ  खिरने लगे एवं फलियाँ  सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर  या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से  15-20  क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30  क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।

 

 

 

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