मक्के की खेती
- परिचय
- खेत की तैयारी
- बुवाई का समय
- किस्म
- कम्पोजिट जातियां
- बीज की मात्रा
- बीजोपचार
- बुवाई का तरीका
- खाद एवं उर्वरक की मात्रा
- खाद एवं उर्वरक देने की विधी
- सिंचाई
- पौध संरक्षण
- मक्के में लगने बालें कीट व रोगों तथा उपचार
- रोग व उपचार
- फसल की कटाई व गहाई
- भण्डारण
परिचय
मक्का, एक प्रमुख खाद्य फसल हैं, जो मोटे अनाजो की श्रेणी में आता है। इसे भुट्टे की शक्ल में भी खाया जाता है।
मक्का (वानस्पतिक नाम : Zea maize) एक प्रमुख खाद्य फसल हैं, जो मोटे अनाजो की श्रेणी में आता है। इसे भुट्टे की शक्ल में भी खाया जाता है। मक्का की फसल में नर भाग पहले परिपक्व हो जााता है।
भारत मे 7 प्रकार के मक्का पाए जाते है-
पॉप कॉर्न (जिआ मेज ईवर्टा)
स्वीट कॉर्न (जिआ मेज सेकेराटा)
फ्लिंट कॉर्न (जिआ मेज ईन्डूराटा)
वैक्सि कॉर्न (जिआ मेज सेकेराटा)
पॉड कॉर्न (जिआ मेज ट्यूनीकाटा)
फ्लोर कॉर्न (जिआ मेज ईमाईलेशिया)
डेंट कॉर्न (जिआ मेज ईन्डेनटाटा)
भारत के अधिकांश मैदानी भागों से लेकर २७०० मीटर उँचाई वाले पहाडी क्षेत्रों तक मक्का सफलतापूर्वक उगाया जाता है। इसे सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा बलुई, दोमट मिट्टी मक्का की खेती के लिये बेहतर समझी जाती है। मक्का एक ऐसा खाद्यान्न है जो मोटे अनाज की श्रेणी में आता तो है परंतु इसकी पैदावार पिछले दशक में भारत में एक महत्त्वपूर्ण फसल के रूप में मोड़ ले चुकी है क्योंकि यह फसल सभी मोटे व प्रमुख खाद्दानो की बढ़ोत्तरी दर में सबसे अग्रणी है। आज जब गेहूँ और धान मे उपज बढ़ाना कठिन होता जा रहा है, मक्का पैदावार के नये मानक प्रस्तुत कर रही है जो इस समय बढ्कर 5.98 तक पहुँच चुका है।
यह फसल भारत की भूमि पर १६०० ई० के अन्त में ही पैदा करना शुरू की गई और आज भारत संसार के प्रमुख उत्पादक देशों में शामिल है। जितनी प्रकार की मक्का भारत में उत्पन्न की जाती है, शायद ही किसी अन्य देश में उतनी प्रकार की मक्का उत्पादित की जा रही है। हाँ यह बात और है कि भारत मक्का के उपयोगो मे काफी पिछडा हुआ है। जबकि अमरीका में यह एक पूर्णतया औद्याोगिक फसल के रूप में उत्पादित की जाती है और इससे विविध औद्याोगिक पदार्थ बनाऐ जाते है। भारत में मक्का का महत्त्व एक केवल खाद्यान्न की फसल के रूप मे जाना जाता है। सयुक्त राज्य अमरीका मे मक्का का अधिकतम उपयोग स्टार्च बनाने के लिये किया जाता है।
जलवायु एवं भूमि
मक्का उष्ण एवं आर्द जलवायु की फसल है। इसके लिए ऐसी भूमि जहां पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त होती है।
खेत की तैयारी
खेत की तैयारी के लिए पहला पानी गिरने के बाद जून माह मे हेरो करने के बाद पाटा चला देना चाहिए। यदि गोबर के खाद का प्रयोग करना हो तो पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय जमीन मे मिला दें। रबी के मौसम मे कल्टीवेटर से दो बार जुताई करने के उपरांत दो बार हैरो करना चाहिए।
बुवाई का समय
1. खरीफ :- जून से जुलाई तक।
2. रबी :- अक्टूबर से नवम्बर तक।
3. जायद :- फरवरी से मार्च तक।
किस्म
संकर किस्म | अवधि (दिन मे) | उत्पादन (क्ंवि/हे.) |
गंगा-5 | 100-105 | 50-80 |
डेक्कन-101 | 105-115 | 60-65 |
गंगा सफेद-2 | 105-110 | 50-55 |
गंगा-11 | 100-105 | 60-70 |
डेक्कन-103 | 110-115 | 60-65 |
कम्पोजिट जातियां
सामान्य अवधि वाली- चंदन मक्का-1
जल्दी पकने वाली- चंदन मक्का-3
अत्यंत जल्दी पकने वाली- चंदन सफेद मक्का-2
बीज की मात्रा
संकर जातियां :- 12 से 15 किलो/हे.
कम्पोजिट जातियां :- 15 से 20 किलो/हे.
हरे चारे के लिए :- 40 से 45 किलो/हे.
(छोटे या बड़े दानो के अनुसार भी बीज की मात्रा कम या अधिक होती है।)
बीजोपचार
बीज को बोने से पूर्व किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्रा./कि. बीज का दर से उपचारीत करके बोना चाहिए। एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें।
पौध अंतरण
- शीघ्र पकने वाली:- कतार से कतार-60 से.मी. पौधे से पौधे-20 से.मी.
- मध्यम/देरी से पकने वाली :- कतार से कतार-75 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
- हरे चारे के लिए :- कतार से कतार:- 40 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.
बुवाई का तरीका
वर्षा प्रारंभ होने पर मक्का बोना चाहिए। सिंचाई का साधन हो तो 10 से 15 दिन पूर्व ही बोनी करनी चाहिये इससे पैदावार मे वृध्दि होती है। बीज की बुवाई मेंड़ के किनारे व उपर 3-5 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बुवाई किसी भी विधी से की जाय परन्तु खेत मे पौधों की संख्या 55-80 हजार/हेक्टेयर रखना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा
- शीघ्र पकने वाली :- 80 : 50 : 30 (N:P:K)
- मध्यम पकने वाली :- 120 : 60 : 40 (N:P:K)
- देरी से पकने वाली :- 120 : 75 : 50 (N:P:K)
भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए तथा भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 कि.ग्रा./हे जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक देने की विधी
1. नत्रजन :-
- 1/3 मात्रा बुवाई के समय, (आधार खाद के रूप मे)
- 1/3 मात्रा लगभग एक माह बाद, (साइड ड्रेसिंग के रूप में)
- 1/3 मात्रा नरपुष्प (मंझरी) आने से पहले
2. फास्फोरस व पोटाश :-
इनकी पुरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। चुकी मिट्टी मे इनकी गतिशीलता कम होती है, अत: इनका निवेशन ऐसी जगह पर करना आवश्यक होता है जहां पौधो की जड़ें हो।
निराई-गुड़ाई
बोने के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का प्रयोग करना चाहिए। एट्राजीन का उपयोग हेतु अंकुरण पूर्व 600-800 ग्रा./एकड़ की दर से छिड़काव करें। इसके उपरांत लगभग 25-30 दिन बाद मिट्टी चढावें।
अन्तरवर्ती फसलें
मक्का के मुख्य फसल के बीच निम्नानुसार अन्तरवर्ती फसलें लीं जा सकती है :-
मक्का : उड़द, बरबटी, ग्वार, मूंग (दलहन)
मक्का : सोयाबीन, तिल (तिलहन)
मक्का : सेम, भिण्डी, हरा धनिया (सब्जी)
मक्का : बरबटी, ग्वार (चारा)
सिंचाई
मक्का के फसल को पुरे फसल अवधि मे लगभग 400-600 mm पानी की आवश्यकता होती है तथा इसकी सिंचाई की महत्वपूर्ण अवस्था पुष्पन और दाने भरने का समय है। इसके अलावा खेत मे पानी का निकासी भी अतिआवश्यक है।
पौध संरक्षण
(क) कीट प्रबन्धन :
1. मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट :- इस कीट की इल्ली पौधे की जड़ को छोड़कर समस्त भागों को प्रभावित करती है। सर्वप्रथम इल्ली तने को छेद करती है तथा प्रभावित पौधे की पत्ती एवं दानों को भी नुकसान करती है। इसके नुकसान से पौधा बौना हो जाता है एवं प्रभावित पौधों में दाने नहीं बनते है। प्रारंभिक अवस्था में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है एवं इसे पौधे के निचले स्थान के दुर्गध से पहचाना जा सकता है।
2. गुलाबी तनाबेधक कीट:- इस कीट की इल्ली तने के मध्य भाग को नुकसान पहुंचाती है फलस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है जिस पर दाने नहीं आते है।
उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है :-
- फसल कटाई के समय खेत में गहरी जुताई करनी चाहिये जिससे पौधे के अवशेष व कीट के प्यूपा अवस्था नष्ट हो जाये।
- मक्का की कीट प्रतिरोधी प्रजाति का उपयोग करना चाहिए।
- मक्का की बुआई मानसुन की पहली बारिश के बाद करना चाहिए।
- एक ही कीटनाशक का उपयोग बार-बार नहीं करना चाहिए।
- प्रकाश प्रपंच का उपयोग सायं 6.30 बजे से रात्रि 10.30 बजे तक करना चाहिए।
- मक्का फसल के बाद ऐसी फसल लगानी चाहिए जिसमें कीटव्याधि मक्का की फसल से भिन्न हो।
- जिन खेतों पर तना मक्खी, सफेद भृंग, दीमक एवं कटुवा इल्ली का प्रकोप प्रत्येक वर्ष दिखता है, वहाँ दानेदार दवा फोरेट 10 जी. को 10 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई के समय बीज के नीचे डालें।
- तनाछेदक के नियंत्रण के लिये अंकुरण के 15 दिनों बाद फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे. अथवा कार्बोरिल 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके 15 दिनों बाद 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों में डालें।
(ख) मक्का के प्रमुख रोग
1. डाउनी मिल्डयू :- बोने के 2-3 सप्ताह पश्चात यह रोग लगता है सर्वप्रथम पर्णहरिम का ह्रास होने से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती है, प्रभावित हिस्से सफेद रूई जैसे नजर आने लगते है, पौधे की बढ़वार रूक जाती है।
उपचार :- डायथेन एम-45 दवा आवश्यक पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव करना चाहिए।
2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लम्बे नाव के आकार के भूरे धब्बे बनते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़कर ऊपर की पत्तियों पर फैलता हैं। नीचे की पत्तियां रोग द्वारा पूरी तरह सूख जाती है।
उपचार :- रोग के लक्षण दिखते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण प्रारंभ होता हैं तथा विगलन की स्थिति निर्मित होती हैं एवं पौधे के सड़े भाग से गंध आने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं व पौधे कमजोर होकर गिर जाते है।
उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों पर डालना चाहिये।
मक्के में लगने बालें कीट व रोगों तथा उपचार
मक्का खरीफ ऋतु की फसल है, परन्तु जहां सिचाई के साधन हैं वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप मे ली जा सकती है। मक्का कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत है। यह एक बहपयोगी फसल है व मनुष्य के साथ- साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव भी है तथा औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है।जिन किसानों ने मक्के की बुवाई की है, उन्हें मक्के में लगने वाले कीटों, रोगों व उनके उपचार के बारे में जानना बहुत ज़रूरी है ताकि समय रहते किसान कीट व रोग को पहचान कर उचित उपचार कर सकें। इस संकलन से हम किसानों को मक्के में लगने वाले कीटों, रोगों व उनके उपचार के बारे में बता रहे हैं।
कीट व उपचार
1- दीमक : खड़ी फसल में प्रकोप होने पर सिंचाई के पानी के साथ क्लोरपाइरीफास 20 फीसदी ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।
करंज के पत्ते ,नीम के पत्ते ,धतूरे के पत्ते 10 लीटर गौमूत्र में डालकर उबालें यह तब तक उबालें जब गौ मूत्र 5 लीटर रह जाये तो ठंडा करके छान कर इस में 1 ली तेल अरंडी का मिला लें 50 ग्राम सर्फ़ मिला कर 15 लीटर पानी में 200 मिली घोल मिला कर तनें और जड़ों में प्रयोग करें।
2- सूत्रकृमि : रासायनिक नियंत्रण के लिए बुआई से एक सप्ताह पूर्व खेत में 10 किग्रा फोरेट 10 जी फैलाकर मिला दें।
2 लीटर गाय के मठ्ठे में 15 ग्राम हींग 25 नमक ग्राम अच्छी तरह मिला कर खेत में छिरक दें
3- तना छेदक कीट : कार्बोफ्यूरान 3जी 20 किग्रा अथवा फोरेट 10 प्रतिशत सीजी 20 किग्रा अथवा डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ईसी 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत ईसी 1.50 लीटर।
20 लीटर गौमूत्र में 5 किलो नीम की पत्ती , 3 किलो धतुरा की पत्ती और 500 ग्राम तम्बाकू की पत्ती, 1 किलो बेशर्म की पत्ती 2 किलो अकौआ की पत्ती 200 ग्राम अदरक की पत्ती (यदि नही मिले तो 50ग्राम अदरक) 250ग्राम लहसुन 1 किलो गुड 25 ग्राम हींग 150 ग्राम लाल मिर्च डाल कर तीन दिनों के लिए छाया में रख दें यह घोले 1 एकड़ के लिए तैयार है इसे दो बार में 7-10 दिनों के अन्तेर से छिद्काब करना है प्रति 15 लीटर पानी में 3 लीटर घोल मिलाना है छिद्काब पूरी तरह से तर करके करना होगा
4 – प्ररोह मक्खी : कार्बोफ्यूूरान 3जी 20 किग्रा अथवा फोरेट 10 प्रतिशत सीजी 20 किग्रा अथवा डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ईसी 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा कूनालफास 25 प्रतिशत ईसी 1.50 लीटर।
20 लीटर गौमूत्र में 5 किलो नीम की पत्ती , 3 किलो धतुरा की पत्ती और 500 ग्राम तम्बाकू की पत्ती, 1 किलो बेशर्म की पत्ती 2 किलो अकौआ की पत्ती 200 ग्राम अदरक की पत्ती (यदि नही मिले तो 50ग्राम अदरक) 250ग्राम लहसुन 1 किलो गुड 25 ग्राम हींग 150 ग्राम लाल मिर्च डाल कर तीन दिनों के लिए छाया में रख दें यह घोले 1 एकड़ के लिए तैयार है इसे दो बार में 7-10 दिनों के अन्तेर से छिद्काब करना है प्रति 15 लीटर पानी में 3 लीटर घोल मिलाना है छिद्काब पूरी तरह से तर करके करना होगा|
रोग व उपचार
1 – तुलासिता रोग
पहचान: इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियां पड़ जाती है। पत्तियों के नीचे की सतह पर सफेद रुई के समान फफूंदी दिखाई देती है। ये धब्बे बाद में गहरे अथवा लाल भूरे पड़़ जाते हैं। रोगी पौधे में भुट्टा कम बनते हैं या बनते ही नहीं हैं। रोगी पौधे बौने एवं झाड़ीनुमा हो जाते हैं।
उपचार: इनकी रोकथाम के लिए जिंक मैगनीज कार्बमेट या जीरम 80 प्रतिशत, दो किलोग्राम अथवा 27 प्रतिशत के तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव आवश्यक पानी की मात्रा में घोलकर करना चाहिए।
इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |
2 – झुलसा रोग
पहचान: इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। रोग के उग्र होने पर पत्तियां झुलस कर सूख जाती है।
उपचार: इसकी रोकथाम के लिए जिनेब या जिंक मैगनीज कार्बमेट दो किलो अथवा जीरम 80 प्रतिशत, दो लीटर अथवा जीरम 27 प्रतिशत तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
नीम का काढ़ा २५० मि. ली. को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिड़काव करें |
3- तना सडऩ
पहचान: यह रोग अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में लगता है। इसमें तने की पोरियों पर जलीय धब्बे दिखाई देते हैं, जो शीघ्र ही सडऩे लगते हैं और उससे दुर्गन्ध आती है। पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती हैं।
उपचार: रोग दिखाई देने पर 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन अथवा 60 ग्राम एग्रीमाइसीन तथा 500 ग्राम कॉपर आक्सीक्लोराइड प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से अधिक लाभ होता है।
देसी गाय का मूत्र 5 लीटर लेकर 15 ग्राम के आकार के बराबर हींग लेकर पिस कर 2 किलो नीम का तेल या काड़ा अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए प्रति 2 ली. पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।
उपज
1. शीघ्र पकने वाली :- 50-60 क्ंविटल/हेक्टेयर
2. मध्यम पकने वाली :- 60-65 क्ंविटल/हेक्टेयर
3. देरी से पकने वाली :- 65-70 क्ंविटल/हेक्टेयर
फसल की कटाई व गहाई
फसल अवधि पूर्ण होने के पश्चात अर्थात् चारे वाली फसल बोने के 60-65 दिन बाद, दाने वाली देशी किस्म बोने के 75-85 दिन बाद, व संकर एवं संकुल किस्म बोने के 90-115 दिन बाद तथा दाने मे लगभग 25 प्रतिशत् तक नमी हाने पर कटाई करनी चाहिए।
कटाई के बाद मक्का फसल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गहाई है इसमें दाने निकालने के लिये सेलर का उपयोग किया जाता है। सेलर नहीं होने की अवस्था में साधारण थ्रेशर में सुधार कर मक्का की गहाई की जा सकती है इसमें मक्के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सुखे होने पर थ्रेशर में डालकर गहाई की जा सकती है साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।
भण्डारण
कटाई व गहाई के पश्चात प्राप्त दानों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। यदि दानों का उपयोग बीज के लिये करना हो तो इन्हें इतना सुखा लें कि आर्द्रता करीब 12 प्रतिशत रहे। खाने के लिये दानों को बॉस से बने बण्डों में या टीन से बने ड्रमों में रखना चाहिए तथा 3 ग्राम वाली एक क्विकफास की गोली प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से ड्रम या बण्डों में रखें। रखते समय क्विकफास की गोली को किसी पतले कपडे में बॉधकर दानों के अन्दर डालें या एक ई.डी.बी. इंजेक्शन प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से डालें। इंजेक्शन को चिमटी की सहायता से ड्रम में या बण्डों में आधी गहराई तक ले जाकर छोड़ दें और ढक्कन बन्द कर दें।
गेहूं की खेती
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