मसूर उत्पादन तकनीक | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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उन्नतषील प्रजातियाँ | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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जलवायु | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर एक दीर्घ दीप्तिकाली पौधा है इसकी खेती उपोष्ण जलवायु के क्षेत्रों में जाडे के मौसम में की जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
1.भूमि एवं खेत की तैयारीः- | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बीज एवं बुआईः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बीजोपचार: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बुआई का समय: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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पौषक तत्व प्रबंधनः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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निंदाई-गुडाई: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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पौध सुरक्षाः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) रोग इस रोग का प्रकोप होने पर फसल की जडें गहरे भूरे रंग की हो जाती है तथा पत्तियाँ नीचे से ऊपर की ओर पीली पडने लगती है। तथा बाद में सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। किसी किसी पौधें की जड़े शिरा सडने से छोटी रह जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कालर राट या पद गलन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
यह रोग पौघे पर प्रारंभिक अवस्था में होता है। पौधे का तना भूमि सतह के पास सड जाता है। जिससे पौधा खिचने पर बडी आसानी से निकल आता है। सडे हुये भाग पर सफेद फफुंद उग आती है जो सरसों की राई के समान भूरे दाने वाले फफूद के स्कलेरोषिया है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
जड़ सडन: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
यह रोग मसूर के पौधो पर देरी से प्रकट होता है, रोग ग्रसित पौधे खेत में जगह जगह टुकडों में दिखाई देते है व पत्ते पीले पड जाते है तथा पौधे सूख जाते है। जड़े काली पड़कर सड़ जाती है। तथा उखाडने पर अधिक्तर पौधे टूट जाते है व जडें भूमि में ही रह जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
(ब) रोग प्रबंधन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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गेरूई रोग | ||||||||||||||||||||||||||||||||
इस रोग का प्रकोप जनवरी माह से प्रभावित होता है तथा संवेदनषील किस्मों में इससे अधिक क्षति होती है। इस रोग का प्रकोप होने पर सर्वप्रथम पत्तियों तथा तनों पर भूरे अथवा गुलावी रंग के फफोले दिखाई देते है जो बाद में काले पढ जाते है रोग का भीषण प्रकोप होने पर सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
रोग का प्रबंधन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रभावित फसल में 0.3% मेन्कोजेब एम-45 का 15 दिन के अन्तर पर दो बार अथवा हेक्जाकोनाजोल 0.1% की दर से छिडकाव करना चाहिये। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कीट नियंत्रण | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल में मुख्य रूप से माहु तथा फलीछेदक कीट का प्रकोप होता है। माहू का नियंत्रण इमिडाक्लोरपिड 150 मिलीलीटर / हें. एवं फली छेदक हेतु इमामेक्टीन बेजोइट 100 ग्रा. प्रति हें. की दर से छिडकाव करना चाहिये। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कटाई: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल के पककर पीली पडने पर कटाई करनी चाहियें। पौधें के पककर सूख जाने पर दानों एवं फलियों के टूटकर झडने से उपज में कमी आ जाती है। फसल को अच्छी प्रकार सुखाकर बैलों के दायँ चलोर मडाई करते है तथा औसाई करके दाने को भूसे से अलग कर लेते है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
उपज: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल से 20.25 कु./ हें. दाना एवं 30.40 कु./हें. भूसे की उपज प्राप्त होती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
जवलपुर कार्यशाला के दौरान निर्धारित तकनीकी बिन्दु निम्नानुसार है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
‘‘ मसूर ‘‘ | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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मसूर की बुवाई रबी में अक्टूबर से दिसंबर तक होती है, परंतु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर का समय इसकी बुवाई के लिए काफी उपयुक्त है
[…] मसूर की खेती […]
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