कठिया गेहू

कठिया गेहू



कठिया गेहू







  1. परिचय

  2.     कठिया गेहूँ की खेती से लाभ

    1. कम सिंचाई

    2. अधिक उत्पादन -

    3.    पोषक तत्वों की प्रचुरता -

    4.    फसल सुरक्षा

    5. सिंचित दशा हेतु -

    6. असिंचित दशा हेतु



  3. उर्वरकों की मात्रा

  4. बुआई

  5. सिंचाई

  6. फसल सुरक्षा

  7. कटाई व मड़ाई

  8. कठिया गेहूँ की सफल खेती हेतु मुख्य बिन्दु







परिचय


भारत वर्ष में कठिया गेहूँ की खेती लगभग 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है। मुख्यतः इसमें मध्य तथा दक्षिण भारत के ऊष्ण जलवायुविक क्षेत्र आते है। भारत वर्ष में कठिया गेहूँ ट्रिटिकम परिवार में दूसरे स्तर का महत्वपूर्ण गेहूँ है। गेहूँ के तीनों उप-परिवारों (एस्टिवम, डयूरम, कोकम) में कठिया गेहूँ क्षेत्रफल में एवं उत्पादन में द्वितीय स्थान प्राप्त फसल है। भारत में इसकी खेती बहुत पुरानी है। पहले यह उत्तर पश्चिम भारत के पंजाब में अधिक उगाया जाता था फिर दक्षिण भारत के कर्नाटक तत्पश्चात् गुजरात के कठियावाड़ क्षेत्र में अब पूर्व से पश्चिमी बंगाल आदि में भी फैला हुआ है।

कठिया गेहूँ की खेती प्रायः असिंचित दशा में की जाती थी जिससे पैदावार भी अनिश्चित रहती थी तथा प्रजातियाँ लम्बी, बीमारी से ग्रसित, कम उर्वरक ग्रहण क्षमता व सीमित क्षेत्र में उगायी जाती थी। आज प्रकृति ने मध्य भारत को कठिया गेहूँ उत्पादन की अपार क्षमता प्रदान की है। वहाँ का मालवांचल, गुजरात का सौराष्ट्र और कठियावाड़, राजस्थान का कोटा, मालावाड़ तथा उदयपुर, उत्तर प्रदेश का बुन्देलखण्ड में गुणवत्ता युक्त नियतिक गेहूँ उगाया जाता है। कठियां गेहूँ आद्यौगिक उपयोग लिए अच्छा माना जाता है इससे बनने वाले सिमोलिना (सूजी/रवा) से शीघ्र पचने वाले व्यंजन जैसे पिज्जा, स्पेघेटी, सेवेइयां, नूडल, वर्मीसेली आदि बनाये जाते हैं। इसमें रोग अवरोधी क्षमता अधिक होने के कारण इसके निर्यात की अधिक संभावना रहती है।

कठिया गेहूं की खेती करने का तरीका, उन्नत किस्में, लाभ और फसल सुरक्षा


भारत में कठिया गेहूं की खेती लगभग 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है. मुख्यतः इसमें मध्य तथा दक्षिण भारत के ऊष्ण जलवायुविक क्षेत्र आते है. भारत वर्ष में कठिया गेहूं ट्रिटिकम परिवार में दूसरे स्तर का महत्वपूर्ण गेहूं है. गेहूं के तीनों उप-परिवारों (एस्टिवम, डयूरम, कोकम) में कठिया गेहूं क्षेत्रफल में एवं उत्पादन में द्वितीय स्थान प्राप्त फसल है. भारत में इसकी खेती बहुत पुरानी है. पहले यह उत्तर पश्चिम भारत के पंजाब में अधिक उगाया जाता था फिर दक्षिण भारत के कर्नाटक तत्पश्चात् गुजरात के कठियावाड़ क्षेत्र में अब पूर्व से पश्चिमी बंगाल आदि में भी फैला हुआ है.

कठिया गेहूं की खेती से लाभ (Kathia wheat Cultivation)


कम सिंचाई - कठिया गेहूं  की किस्में में सूखा प्रतिरोधी क्षमता अधिक होती है. इसलिये 3 सिंचाई ही पर्याप्त होती है जिससे 45-50 कु०/हे० पैदावार हो जाती है.

अधिक उत्पादन - सिंचित दशा में कठिया प्रजातियों औसतन 50-60 कु०/हे० पैदावार तथा असिंचित व अर्ध सिंचित दशा में इसका उत्पादन औसतन 30-35 कु०/हे० अवश्य होता है.

    कठिया गेहूँ की खेती से लाभ


कम सिंचाई


कठिया गेहूँ की किस्में में सूखा प्रतिरोधी क्षमता अधिक होती है। इसलिये 3 सिंचाई ही पर्याप्त होती है जिससे 45-50 कु०/हे० पैदावार हो जाती है

अधिक उत्पादन -


सिंचित दशा में कठिया प्रजातियों औसतन 50-60 कु०/हे० पैदावार तथा असिंचित व अर्ध सिंचित दशा में इसका उत्पादन औसतन 30-35 कु०/हेअवश्य  होता है।

   पोषक तत्वों की प्रचुरता -


कठिया गेहूँ से खाद्यान्न सुरक्षा तो मिली परन्तु पोषक तत्वों में शरबती (एस्टिवम) की अपेक्षा प्रोटीन 1.5-2.0 प्रतिशत अधिक विटामिन ‘ए’ की

अधिकता बीटा कैरोटीन एवं ग्लूटीन पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है।

   फसल सुरक्षा


·    ठिया गेहूँ में गेरूई या रतुआ जैसी महामारी का प्रकोप तापक्रम की अनुकूलतानुसार कम या अधिक होता है। नवीन प्रजातियों का उगाकर इनका प्रकोप कम किया जा सकता है।

प्रजातियाँ

पोषक तत्वों की प्रचुरता - कठिया गेहूं  से खाद्यान्न सुरक्षा तो मिली परन्तु पोषक तत्वों में शरबती (एस्टिवम) की अपेक्षा प्रोटीन 1.5-2.0 प्रतिशत अधिक विटामिन ‘ए’ की अधिकता बीटा कैरोटीन एवं ग्लूटीन पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है.

फसल सुरक्षा- कठिया गेहूं  में गेरूई या रतुआ जैसी महामारी का प्रकोप तापक्रम की अनुकूलतानुसार कम या अधिक होता है. नवीन प्रजातियों का उगाकर इनका प्रकोप कम किया जा सकता है.

प्रजातियाँ

सिंचित दशा हेतु - पी.डी.डब्लू. 34, पी.डी.डब्लू 215, पी.डी.डब्लू 233, राज 1555, डब्लू. एच. 896, एच.आई 8498 एच.आई. 8381, जी.डब्लू 190, जी.डब्लू 273, एम.पी.ओ. 1215

असिंचित दशा हेतु - आरनेज 9-30-1, मेघदूत, विजगा यलो जे.यू.-12, जी.डब्लू 2, एच.डी. 4672, सुजाता, एच.आई. 8627


उर्वरकों की मात्रा


संतुलित उर्वरक एवं खाद का उपयोग दानों के श्रेष्ठ गुण तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अति-आवश्यक है. अतः 120 किग्रा०नत्रजन (आधी मात्रा जुताई के साथ) 60 किग्रा० फास्फोरस 30 किग्रा० पोटाश प्रति हेक्टेयर सिंचित दशा में पर्याप्त है. इसमें नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद टापड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए. असिंचित दशा में 60:30:15 तथा अर्ध असिंचित में 80:40:20 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करना चाहिए.

बुवाई


असिंचित दशा में कठिया गेहूं  की बुआई अक्टूबर माह के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर से प्रथम सप्ताह तक अवश्य कर देनी चाहिए. सिंचित अवस्था में नवम्बर का दूसरा एवं तीसरा सप्ताह सर्वोत्तम समय होता है.

सिंचाई


सिंचाई सुविधानुसार करनी चाहिए. अर्धसिंचित दशा में कठिया गेहूं  की 1-2 सिंचाई, सिंचित दशा में तीन सिंचाई पयाप्र्त होती है.

पहली सिंचाई बुवाई के 25-30 दिन पर करते है जब फसल ताजमूल अवस्था में होती है.

दूसरी सिंचाई बुवाई के 60-70 दिन पर तब करते है जब फसल दुग्धावस्था में होती है.

तीसरी सिंचाई बुवाई के 90-100 दिन पर तब करते है जब फसल में दाने पड़ने लगते है.

फसल सुरक्षा


सामान्य गेहूं की भांति खरपतवार नाशी व रोग अवरोधी रसायनों का प्रयोग करना चाहिये.

कटाई व मड़ाई



  • कठिया गेहूं  के झड़ने की संभावना रहती है. अतः पक जाने पर शीघ्र कटाई तथा मड़ाई कर लेना चाहिए.

  • कठिया गेहूं  की सफल खेती हेतु मुख्य बिन्दु

  • भरपूर उपज के लिए समय पर बुआई करना आवश्यक है.






  • असिंचित तथा अर्धसिंचित दशा में बुआई समय खेत में नमी का होना अति आवश्यक है.

  • कठिया गेहूं की उन्नतिशील प्रजातियों का ही चयन करके संस्तुत बीज विक्रय केन्द्रों से लेकर बोना चाहिए.

  • चमकदार दानों के लिए पकने के समय आर्द्रता की कमी होनी चाहिए.

  • रोग तथा कीट नाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए जिससे दाने की गुणवत्ता पर असर न आए.




सिंचित दशा हेतु -


पी.डी.डब्लू. 34, पी.डी.डब्लू 215, पी.डी.डब्लू 233, राज 1555, डब्लू. एच. 896, एच.आई 8498 एच.आई. 8381, जी.डब्लू 190, जी.डब्लू 273, एम.पी.ओ. 1215

असिंचित दशा हेतु


आरनेज 9-30-1, मेघदूत, विजगा यलो जे.यू.-12, जी.डब्लू 2, एच.डी. 4672, सुजाता, एच.आई. 8627

उर्वरकों की मात्रा


संतुलित उर्वरक एवं खाद का उपयोग दानों के श्रेष्ठ गुण तथा अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अति-आवश्यक है। अतः 120 किग्रा०नत्रजन (आधी मात्रा जुताई के साथ) 60 किग्रा० फास्फोरस 30 किग्रा० पोटाश प्रति हेक्टेयर सिंचित दशा में पर्याप्त है। इसमें नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद टापड्रेसिंग के रूप में प्रयोग करना चाहिए। असिंचित दशा में 60:30:15 तथा अर्ध असिंचित में 80:40:20 के अनुपात में नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करना चाहिए।

बुआई


सिंचित असिंचित दशा में कठिया गेहूँ की बुआई अक्टूबर माह के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर से प्रथम सप्ताह तक अवश्य कर देनी चाहिए। सिंचित अवस्था में नवम्बर का दूसरा एवं तीसरा सप्ताह सर्वोत्तम समय होता है।

सिंचाई


सिंचाई सुविधानुसार करनी चाहिए। अर्धसिंचित दशा में कठिया गेहूँ की 1-2 होती है सिंचाईदशा में तीन सिंचाई पयाप्र्त





















1               पहली सिंचाई बुआई के                       25-30 दिन पर             ताजमूल अवस्था
2               दूसरी सिंचाई बुआई के                      60-70 दिन पर              दुग्धावस्था
3              तीसरी सिंचाई बुआई के                    90-100 दिन पर            दाने पड़ते समय

फसल सुरक्षा


सामान्य गेहूँ की भांति खरपतवार नाशी व रोग अवरोधी रसायनों का प्रयोग करना चाहिये।

कटाई व मड़ाई


कठिया गेहूँ के झड़ने की संभावना रहती है। अतः पक जाने पर शीघ्र कटाई तथा मड़ाई कर लेना चाहिए।

कठिया गेहूँ की सफल खेती हेतु मुख्य बिन्दु



  •    भरपूर उपज के लिए समय पर बुआई करना आवश्यक है।



  •    असिंचित तथा अर्धसिंचित दशा में बुआई समय खेत में नमी का होना अति आवश्यक है।



  •   कठिया गेहूँ की उन्नतिशील प्रजातियों का ही चयन करके संस्तुत बीज विक्रय केन्द्रों से लेकर बोना चाहिए।

  •    चमकदार दानों के लिए पकने के समय आर्द्रता की कमी होनी चाहिए।

  •    रोग तथा कीट नाशकों का कम से कम प्रयोग करना चाहिए जिससे दाने की गुणवत्ता पर असर न आए।




 

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