ओल की खेती

ओल की खेती



ओल (जिमीकंद) की वैज्ञानिक खेती





  1. परिचय

  2. मिट्टी का चुनाव एवं खेत की तैयारी

  3. बीज एवं बुआई

  4. बुआई का समय: अप्रैल-जून

  5. खाद एवं उर्वरक

  6. अन्तर्वर्ती खेती

  7. फसल सुरक्षा

  8. खुदाई एवं भंडारण








परिचय


ओल यानि जिमीकंद ‘एरेसी’ कुल का एक सर्वपरिचित पौधा है जिसे भारतवर्ष में सूरन, बालुकन्द, अरसधाना, कंद त

लहसून

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था चीनी आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसकी खेती भारत में प्राचीन काल

से होती आ रही है तथा अपने गुणों के कारण यह सब्जियों में एक अलग स्थान रखता है। बिहार में इसकी खेती गृह वाटिका से लेकर बड़े पैमाने पर हो रही है तथा यहाँ के किसान इसकी खेती आज नगदी फसल के रूप में कर रहे हैं। ओल में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसे आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। इसे बवासीर, खुनी बवासीर, पेचिश, ट्यूमर, दमा, फेफड़े की सूजन, उदर पीड़ा, रक्त विकार में उपयोगी बताया गया है। इसकी खेती हल्के छायादार स्थानों में भी भली-भांति की जा सकती है जो किसानों के लिए काफी लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

मिट्टी का चुनाव एवं खेत की तैयारी


ओल के सर्वोतम विकास एवं अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उत्तम जल निकास वाली हल्की और भुरभुरी मिट्टी सर्वोत्तम है। इस फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश पदार्थ का प्रचुर मात्रा हो, उपयुक्त पायी गयी है, खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो-तीन बार देशी हल से अच्छी तरह जोत कर मिट्टी को मुलायम तथा भुरभुरी बना लेना चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पट्टा चलाकर समतल कर दें।

यह प्रभेद आज पूरे भारत में फ़ैल गया है, साथ ही हमारे बिहार राज्य में पूरी तरह छा गया है। यह 200-215 दिनों में तैयार होने वाली प्रजाति है। इस प्रजाति की औसत उपज 40-50 टन/हें. है। इस प्रभेद के कंद चिकने सतह वाले होते हैं। इसमें कैल्शियम आक्जेलेट कम मात्रा में पाया जाता है जिसके कारण इसमें कबकबाहट नहीं होता है। यही कारण है कि इसका व्यवहार विभिन्न व्यंजनों के रूप में होता है।

बीज एवं बुआई


ओल का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा किया जाता है जिसके लिए पूर्ण कंद या कंद को काट कर लगाया जाता है। बुआई हेतु 250-500 ग्राम का कंद उपयुक्त होता है। यदि उपरोक्त वजन के पूर्ण कंद उपलब्ध हो तो उनका ही उपयोग करें। ऐसा करने पर प्रस्फुटन अग्रिम होता है जिससे फसल पहले तैयार एवं अधिक उपज की प्राप्ति होती है। यदि कंद का आकार बड़ा हो तो उसे 250-500 ग्राम के टुकड़ों में काट कर बुआई करना चाहिए। परन्तु कंद को काटते समय एस बात का ध्यान रखें कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम कालर (कलिका) का कुछ भाग अवश्य रहे।

उपरोक्त कंदों को बोने से पूर्व कन्दोपचार करना चाहिए। इसके लिए इमीसान 5 ग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में घोल कर कंद को 25-30 मिनट तक या ताजा गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें 2 ग्राम कार्बोंडाजिम (वेविस्टीन) पाउडर प्रति लीटर घोल में मिलाकर कंद को उपचारित कर छाया में सुखाने के बाद ही लगायें। उपरोक्त आकार के कंद लगाने पर इनकी बढ़वार 8-10 गुणा के बीच होता है। बीज दर कंद के आकार एवं बुआई की दूरी पर निर्भर करता है।




























कंद का वजन

दूरी



बीज दर


(क्विंटल/हें.)


250 ग्राम

75 x 75 सें.मी.



40-50


500 ग्राम

75 x 75 सें.मी.



70-80


250 ग्राम

1 x 1 मीटर



25


500 ग्राम

1 x 1 मीटर



50



बुआई का समय: अप्रैल-जून


लगाने की विधि: दो विधियों द्वारा ओल की बुआई की जाती है: 1. चौरस खेत में, 2. गड्ढों में ।

  1. चौरस खेत में: ओल की बुआई करने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद एवं रासायनिक उर्वरक में नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा को खेत में मिलाकर जुताई कर देते हैं। उसके बाद कंदों के आकार के अनुसार 75 से 90 सें.मी. की दूरी पर कुदाल द्वारा 20 से 30 सें.मी. गहरी नाली बनाकर कंदों की बुआई कर दी जाती है तथा नाली को मिट्टी से ढक दिया जाता है।

  2. गड्ढों में: इस विधि से अधिकांशत: ओल की बुआई की जाती है। इस विधि में 75 x 75 x 30 सें.मी. या 1.0 x 1.0 मी. x 30 सें.मी. चौड़ा एवं गहरा गड्ढा खोद कर कंदों की रोपाई की जाती है। रोपाई के पूर्व निर्धारित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलाकर गड्ढा में डाल दें। कंदों को बुआई के बाद मिट्टी से पिरामिड के आकार में 15 सें.मी. उंचा कर दें। कंद की बुआई इस प्रकार करते हैं कि कंद का कलिका युक्त भाग ऊपर की तरु सीधा रहे।


खाद एवं उर्वरक


ओल की अच्छी उपज हेतु खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए 10-15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद, नेत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश 80:60:80 किग्रा./हे. के अनुपात में प्रयोग करें। बुआई के पूर्व गोबर की सड़ी खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा, नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नेत्रजन एवं पोटाश को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों के रोपाई के 50-60 तथा 80-90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करें। उर्वरकों का व्यवहार तालिका  के अनुसार करें।

SWARAJ CODE TRACTOR INFORMATION



































उर्वरक



उर्वरक की मात्रा


किग्रा./हें.



बुआई के समय


(किग्रा./हें.)



बुआई के बाद


(किग्रा./हें.)


50-60 दिन80-90 दिन
यूरिया

180.0



60.00



60.00



60.00


सिंगल सुपर फास्फेट

375.00



375.00



-



-


म्यूरेट ऑफ़ पोटाश

160.00



53.30



53.30



53.30



गड्ढों में ओल लगाते समय प्रति गड्ढा 2 से 3 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद 18 ग्राम यूरिया, 38 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 15 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 5 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग करें। यूरिया की आधी मात्रा 9 ग्राम एवं अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा को मिट्टी में मिलाकर गड्ढों में भर दें। शेष आधी बची यूरिया को प्ररोह निकलने के 80-90 दिन बाद प्रति गड्ढा की दर से व्यवहार करें।

मल्चिंग

बुआई के बाद पुआल अथवा शीशम की पत्तियों से ढक देना चाहिए जिससे ओल का अंकुरण जल्दी होता है, खेत में नमी बनी रहती है तथा खरपतवार कम होने के साथ ही अच्छी उपज प्राप्त होती है।

जल प्रबंधन

यदि खेत में नमी की मात्रा कम हो तो एक या दो हल्की सिंचाई अवश्य कर दें। वर्षा आरम्भ होने तक खेत में नमी की मात्रा को बनाये रखें। बरसात में पौधों के पास जल जमाव न होने दें।

निकाई-गुड़ाई

बुआई के 25-30 दिनों के अंदर पौधे उग जाते हैं। 50-60 दिनों बाद पहली तथा 80-90 दिनों बाद दूसरी निकाई करें। निकाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ाते जायें।

फसल चक्र: ओल-गेहूँ, ओल-मटर, ओल-अदरक, ओल-प्याज।

अन्तर्वर्ती खेती


चूँकि इस फसल का अंकुरण देर से होता है। इसलिए पौधों के प्रारम्भिक विकास की अवधि में अन्तर्वर्ती फसलें जैसे भिण्डी, बोड़ा, मूंग, कलाई, मक्का, खीरा, कद्दू आदि फसलें सफलतापूर्वक ली जा सकती है। अनुसंधान द्वारा यह पाया गया है कि इसकी खेती लीची एवं अन्य फलों के बागों में अन्तर्वर्ती फसल के रूप में सफलतापूर्वक किया जा सकता है।

फसल सुरक्षा


झुलसा रोग: यह ओल का बैक्टीरिया जनित रोग है जिसका आक्रमण पौधों की पत्तियों पर सितम्बर-अक्टूबर माह में अधिक होता है। पत्तियों पर छोटे-छोटे वृताकार हल्के-भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में सुखकर काले पड़ जाते हैं एवं पत्तियाँ सुख कर झलस जाती है। कंदों की वृद्धि नहीं हो पाती है।

रोग का लक्षण आते ही बैभीस्टीन अथवा इंडोफिल एम 45 का 2.5 मिली. प्रति ली. की दर से 2-3 छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।

तना गलन: इस रोग का आक्रमण उन क्षेत्रों में अत्यधिक होता है जहां पानी का जमाव ज्यादा होता है तथा लगातार एक ही खेत में ओल की खेती की जा रही हो। एस रोग का प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है। यह मृदा जनित रोग है। इस रोग का लक्षण कालर भाग पर दिखाई पड़ता है तथा पौधा पीला पड़कर जमीन पर गिर जाता है।

इसके रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाएँ। जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। कंद लगाने से पूर्व उसे बताई गयी विधि द्वारा उपचारित कर लें। कैप्टान दवा के 2% के घोल से 15 दिनों के अंतराल पर दो-तीन बार पौधे के आस-पास भूमि को भींगा दें।

खुदाई एवं भंडारण


बुआई के सात से आठ माह के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ कर सूखने लगती है तब फसल खुदाई हेतु तैयार हो जाती है। खुदाई के पश्चात कंदों की अच्छी तरह मिट्टी साफ़ कर दो-तीन दिन धूप में रखकर सुखा लें। कटे या चोट ग्रस्त कंद को स्वस्थ कंदों से अलग कर लें। इसके बाद कंद को किसी हवादार भण्डार गृह में लकड़ी के मचान पर रखकर भण्डारित करें। इस प्रकार ओल को पांच से छ: माह तक आसानी से भण्डारित किया जा सकता है।

लाभ

यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर ओल की खेती किया जाये तो इससे रु. 1,25,000/- से 1,50,000/- तक शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है तथा किसान अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार सकते हैं।



ओल (जिमीकंद) की उन्नत खेती : औषधिय गुणों के कारण जिमीकंद की मांग में वृद्धि


किसान भाई अपनी आय में बढ़ोतरी के लिए गेहूं, धान, मक्का आदि फसलों के साथ सब्जियों और फलों की खेती पर भी ध्यान दे सकते हैं। ऐसा करके वह पारंपरिक फसलों से मुनाफा तो पाएंगे ही साथ में वह सब्जियों और फलों की फसल से भी अच्छी-खासी कमाई कर सकते हैं। किसानों को सब्जियों और फलों की खेती पर सरकार द्वारा आर्थिक रूप से मदद भी दी जाती है। आज हम एक ऐसी सब्जी की फसल के बारे में बात कर रहे हैं, जिसकी खेती कर किसान भाई अपनी आमदनी को बढ़ा सकते हैं।

क्योंकि इसकी खेती काफी ज्यादा आमदनी देने वाली होती है। इसकी कीमत एवं मांग बाजार में कभी कम नहीं होती है। साथ ही इसके लम्बे समय तक खराब होने का भी कोई ड़र नहीं होता है। किसान को हरी सब्जियों की भॉति इसे जल्दबाजी में बेचने की परेशानी भी नहीं होती है। यही कारण है कि किसानों के बीच इस सब्जी की खेती अधिक लोकप्रिय है। आज हम जिस सब्जी के बारे में चर्चा कर रहे है वह ओल (जिमीकंद) है। ओल खाने में स्वादिष्ट होने के साथ-साथ इसके कई स्वास्थ्यवर्धक लाभ भी होते हैं। लोग इसका इस्तेमाल सब्जी के अलावा अचार, चटनी में भी करते हैं। इसके साथ-साथ ओल से कई प्रकार की औषधियों का भी निर्माण किया जाता है। ओल की खेती गर्मी के मौसम में की जाती है। ओल की खेती का जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अब गर्मियों का मौसम चल रहा है। ओल की खेती के लिए यह सही समय हैं, अगर किसान भाई ओल की खेती करना चाहते हैं, तो वे अभी से इसकी बुवाई शुरू कर सकते हैं। ध्यान रहें किसानों के पास इसकी सिंचाई की अच्छी व्यवस्था खेत के आसपास होनी चाहिए।

ओल की खेती के बारें में जानकारी 


ओल (जिमीकंद) एक बहुवर्षीय भूमिगत सब्जी है, जिसका वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में भी पाया जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों में ओल (जिमीकंद) को ओल या सूरन आदि भिन्न-भिन्न नाम से जाना जाता है। पहले ओल (जिमीकंद) को गृहवाटिका में या घरों के अगल-बगल की जमीन में ही उगाया जाता था। परन्तु अब किसान ओल (जिमीकंद) की व्यवसायिक खेती करने लगे हैं। ओल (जिमीकंद) एक सब्जी ही नहीं बल्कि यह एक बहुमूल्य जड़ीबूटी भी है, जो स्वस्थ एवं निरोग रखने में मदद करता है। भोज्य पदार्थों के संचन हेतु यह भूमिगत तना का रूपांतर है, जिसे घनकंद कहते हैं। यह परिवर्तित तना बहुत अधिक जैसा-तैसा फूला रहता है एवं इसकी सतह पर पर्व संधियाँ रहती हैं जिनपर शल्क-पत्र लगे रहते हैं। सतह पर जहाँ-तहाँ अपस्थानिक जड़ें लगी रहती हैं। अगले सिरे पर अग्रकलिका तथा शल्कपत्रों के अक्ष पर छोटी-छोटी कलिकाएँ होती हैं। ओल में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसे आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। इसे बवासीर, खुनी बवासीर, पेचिश, ट्यूमर, दमा, फेफड़े की सूजन, उदर पीड़ा, रक्त विकार में उपयोगी बताया गया है। इसकी खेती हल्के छायादार स्थानों में भी भली-भांति की जा सकती है, जो किसानों के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हुआ है।

बड़े आकार की जिमीकंद के लिए एक से डेढ़ किलो वजनी कंद का करें प्रयोग 


ओल (जिमीकंद) की खेती अप्रैल मई के महीने में शुरू की जाती है। खेत में ओल (जिमीकंद) लगाने हेतु कंद का ही उपयोग की जाती है, ज्यादातर किसान छोटे कंद का उपयोग ओल (जिमीकंद) लगाने हेतु करते हैं। जिस वजह से ओल (जिमीकंद) छोटे एवं ज्यादा वजनी नहीं मिल पाता। यदि किसान को ओल (जिमीकंद) की व्यवसायिक खेती शुरू करनी है, तो ओल (जिमीकंद) कम से कम एक से डेढ़ किलो वजनी का ही उपयोग में लेना चाहिए। बड़े ओल (जिमीकंद) का उपयोग खेती में बीज के रूप में करने से सात से आठ महीना उपरांत हमें बड़े आकार का ओल (जिमीकंद) की उपज प्राप्त हो सकती है।

ओल (जिमीकंद) की खेती के लिए जलवायु 


ओल (जिमीकंद) उष्ण और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु का पौधा हैं। भारत में ओल (जिमीकंद) की खेती बारिश के मौसम से पहले और बाद में की जाती है। इसके पौधे को अच्छे से विकास करने के लिए गर्मी की आवश्यकता होती है। किन्तु इसके कंद को विकास करने के लिए ठंड के मौसम की जरूरत होती है। ठण्ड के मौसम में इसका कंद अच्छे से विकास करता हैं। ओल (जिमीकंद) के पौधे बीज लगाने के लगभग 20 से 30 दिन बाद अंकुरित होते हैं। इस दौरान ओल (जिमीकंद) के पौधों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री के आसपास तापमान की जरूरत होती है। अंकुरित होने के बाद पौधों को विकास करने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है। इसके पौधे अधिकतम 35 डिग्री तापमान पर भी अच्छे से विकास करते हैं।

खेती के लिए भूमि का चुनाव


व्यवसायिक तौर पर जिमीकंद की खेती के लिए उत्तम जल निकास वाली बलूई दोमट मिट्टी वाले खेत का ही चुनाव करें। इस तरह की मिट्टी में इसके पौधे अच्छे से विकास करते हैं। किन्तु अधिक जल-भराव वाली भूमि में इसकी खेती को नहीं की जा सकती। क्योंकि जलभराव की स्थिति में इसके फलों का विकास अच्छे से नहीं हो पाता। इसकी खेती के लिए 6 से 7 पी.एच मान वाली भूमि उपयुक्त होती हैं। इसके अतिरिक्त जिमीकंद की खेती बारिश के मौसम में नहीं करनी चाहिए।

बीज एवं बीजों की बुवाई का समय 


जिमीकंद की बुवाई अप्रैल से मई महीने के शुरू में की जाती है। जिमीकंद की बुवाई वानस्पतिक विधि द्वारा की जाती है। बुवाई के लिए बीज उसके फलों से ही बनते हैं। बीज के लिए इसके पूर्ण रूप से पक चुके फल का ही प्रयोग किया जाता है। इन पूर्ण तरीके से पक चुके फल को कई भागों में काटकर खेत में लगाया जाता है। बुआई हेतु 250 से 500 ग्राम का कंद का टुकड़ा उपयुक्त होता है। यदि जिमीकंद बुवाई के लिए उपरोक्त वजन के पूर्ण कंद के टुकड़े उपलब्ध हो, तो उनका ही उपयोग करें। ऐसा करने पर प्रस्फुटन अग्रिम होता है जिससे फसल पहले तैयार एवं अधिक उपज की प्राप्ति होती है। परन्तु कंद को काटते समय एक बात का ध्यान रखें कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम कालर (कलिका) का कुछ भाग अवश्य रहे।

बीजों को खेत में बोने से पहले उपचारित कैसे करें?


इसके फल से बीजों को तैयार करते वक्त ध्यान रखें कि इसके बीजों का वजन 250 से 500 ग्राम होना चाहिए और प्रत्येक कटे हुए बीज में कम से कम दो आंखे होनी चाहिए। ताकि पौधे का अंकुरण अच्छे से हो पाए। कंद से बीज तैयार करने के बाद उन्हें खेत में लगाने से पहले बीजो के उपचारण के लिए स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या इमीसान की उचित मात्रा का घोल बनाकर उसमें आधे घंटे के लिए इन बीजों को डूबा देना चाहिए। इन बीजों को उपचारित करके ही खेत में लगाएं। क्योंकि जिमीकंद के बीज इसके फलो से ही तैयार होते हैं। इसके एक बीज का वजन तकरीबन 250 से 500 ग्राम के मध्य होता है, जिस वजह से प्रति हेक्टेयर के खेत में 50 क्विंटल बीज की आवश्यकता होती हैं।

बीजों की रोपाई का तरीका


जिमीकंद के बीजों के तैयार टुकड़ों को उपचारित कर ही खेत में लगाएं। इसके तैयार उपचारित बीजों को खेत में पहले से तैयार की गई नालियों में लगाया जाता हैं। लेकिन कुछ किसान भाई जिमीकंद के बीजो की बुवाई गड्ढ़ों को तैयार कर उसमें भी लगाते हैं। अगर किसान इनकी बीजों की बुवाई गड्ढ़ों में करना चाहता है तो उसके लिए किसान भाई को उचित दूरी रखते हुए खेतों में नाली की जगह गड्ढ़ों को तैयार कर लेना चाहिए। बीज रोपाई के लिए नालियों या गड्ढ़ों को तैयार करते वक्त ध्यान रखे की प्रत्येक नालियों के बीच दो से ढाई फिट की दूरी होनी चाहिए। और इन नालियों या गड्ढ़ों के अंदर बीज को आपस में दो फिट की दूरी पर ही लगाना चाहिए। बीज को नालियों में लगाने के बाद उन्हें मिट्टी से अच्छे से ढक देते हैं।

जिमीकंद की उन्नत किस्में 


बात दें कि वैसे तो इसके फल से बीजों को तैयार किया जाता हैं। इसके अलावा अगर किसानों के पास इसकी खेती के लिए बीज उपलब्ध नहीं हैं। तो किसान इन बीजों को आपने स्थानिय बाजार या कृषि विभाग से प्राप्त कर सकतें है। ओल (जिमीकंद) कुछ उन्नत किस्में का पैदावार और मौसम के अनुसार उपयोग कर सकतें है। ओल (जिमीकंद) की अच्छी पैदावार के लिए उन्नत किस्मों को ही खेत में लगाना चाहिए। ओल (जिमीकंद) की कुछ उन्नत किस्में इस प्रकार हैं- गजेंन्द्र, संतरा गाची, एम-15, राजेन्द्र आदि। किसान भाई इन किस्मों का इस्तेमाल ओल की व्यावसायित खेती के लिए अपने खेत में लगाने के लिए कर सकते है। ओल की इन उन्नत किस्मों की औसत पैदावार 70 से 85 टन प्रति हेक्टेयर की दर से होती हैं।

खाद व उर्वरक का प्रयोग 


ओल की अच्छी उपज हेतु खाद एवं उर्वरक की उचित मात्रा से ज्यादा जरूरत होती है। इसके लिए खेत की जुताई के समय 10 से 15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद, नेत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश 80 : 60 : 80 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में प्रयोग करें। बुआई के पूर्व गोबर की सड़ी खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा, नेत्रजन एवं पोटाश की आधी मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नेत्रजन एवं पोटाश को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों के रोपाई के 50-60 तथा 80-90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करें।

पौधों की सिंचाई


ओल की फसल को सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती है, क्योंकि पौधों को पानी की उचित मात्रा मिलती रहने पर इसका कंद अच्छे से तैयार होता है। इसकी पहली सिंचाई रोपाई के बाद तुरंत कर देनी चाहिए। बीजों को अंकुरित होने तक खेत में नमी की मात्रा बनाए रखने के लिए खेत की सप्ताह में दो बार सिंचाई करें। बीजों के अंकुरित होने के बाद बारिश से पहले गर्मियों के मौसम में पौधों को चार से पांच दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए। सर्दियों के मौसम में इसके पौधे को पानी की सामान्य जरूरत होती है। इसलिए सर्दियों के मौसम में पौधों को 15 से 20 दिन के अंतराल में पानी देना चाहिए।

फसल की देखभाल 



  • झुलसा रोग : रोग का लक्षण आते ही बाविस्टीन अथवा इंडोफिल एम 45 का 2.5 मिली. प्रति ली. की दर से 2 से 3 छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।

  • तना गलन :  इसके रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाएँ। जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। कंद लगाने से पूर्व उसे बताई गयी विधि द्वारा उपचारित कर लें। कैप्टान दवा के 2 प्रतिशत के घोल से 15 दिनों के अंतराल पर दो से तीन बार पौधे के आस-पास भूमि को भींगा दें।

  • जिमीकंद भृंग रोग :  इस रोग से बचाव के लिए नीम के काढ़े का माइक्रो झाइम के साथ मिश्रित कर छिड़काव करें।

  • तम्बाकू की सुंडी रोग : इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिडकाव करें।


ओल (जिमीकंद) की खेती से पैदावार और लाभ


ओल (जिमीकंद) के पौधे रोपाई के बाद 6 से 8 महीने में पककर पैदावार देने के लिए तैयार हो जाती है। जब इसके पौधों की पत्तियां सूखकर गिरने लगे तब इसके फलों को खुदाई कर निकल लेना चाहिए। इसके बाद उन्हें साफ पानी से धो देना चाहिए। धोये हुए फलों को छायादार जगह में अच्छे से सूखा लेना चाहिए। इसके बाद इन्हे हवादार बोरों में भरकर बाजारों में बेचने के लिए भेज देना चाहिए। छटनी के बाद बाकी बची हुई छोटी कंदों का इस्तेमाल फिर से बुवाई के लिए बीजों के रूप में कर सकते हैं। जिमीकंद के एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन 70 से 80 टन की पैदावार प्राप्त हो जाती है। जिमीकंद का बाजार भाव 2000 रूपए प्रति क्विंटल के आसपास होता है, जिस हिसाब से किसान भाई इसकी एक बार की फसल से लगभग 4 लाख तक की कमाई कर सकते हैं।

 

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