मक्का

मक्का


मक्के की खेती





  1. परिचय

  2. खेत की तैयारी

  3. बुवाई का समय

  4. किस्म

  5. कम्पोजिट जातियां

  6. बीज की मात्रा

  7. बीजोपचार

  8. बुवाई का तरीका

  9. खाद एवं उर्वरक की मात्रा

  10. खाद एवं उर्वरक देने की विधी

  11. सिंचाई

  12. पौध संरक्षण

  13. मक्के में लगने बालें कीट व रोगों तथा उपचार

  14. रोग व उपचार

  15. फसल की कटाई व गहाई

  16. भण्डारण






परिचय


मक्के की फसल (Cultivation of Maize) के लिए खेत की तैयारी जून महा से कर देनी चाहिए. मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना लाभदायक होता है. खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के बाद पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में नमी बानी रहती है. इस तहह से जुताई करने का मुख्य उदेश्य खेत की मिट्टी को भुरभुरी बनाना होता है.

मक्का, एक प्रमुख खाद्य फसल हैं, जो मोटे अनाजो की श्रेणी में आता है। इसे भुट्टे की शक्ल में भी खाया जाता है।

भारत के अधिकांश मैदानी भागों से लेकर २७०० मीटर उँचाई वाले पहाडी क्षेत्रो तक मक्का सफलतापूर्वक उगाया जाता है। इसे सभी प्रकार की मिट्टियों में उगाया जा सकता है तथा बलुई, दोमट मिट्टी मक्का की खेती के लिये बेहतर समझी जाती है।

मक्का खरीफ ऋतु की फसल है, परन्तु जहां सिचाई के साधन हैं वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप मे ली जा सकती है। मक्का कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत है। यह एक बहपयोगी फसल है व मनुष्य के साथ- साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव भी है तथा औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है।

चपाती के रूप मे, भुट्टे सेंककर, मधु मक्का को उबालकर कॉर्नफलेक्स, पॉपकार्न, लइया के रूप मे आदि के साथ-साथ अब मक्का का उपयोग कार्ड आइल, बायोफयूल के लिए भी होने लगा है। लगभग 65 प्रतिशत मक्का का उपयोग मुर्गी एवं पशु आहार के रूप मे किया जाता है। साथ ही साथ इससे पौष्टिक रूचिकर चारा प्राप्त होता है। भुट्टे काटने के बाद बची हुई कडवी पशुओं को चारे के रूप मे खिलाते हैं। औद्योगिक दृष्टि से मक्का मे प्रोटिनेक्स, चॉक्लेट पेन्ट्स स्याही लोशन स्टार्च कोका-कोला के लिए कॉर्न सिरप आदि बनने लगा है। बेबीकार्न मक्का से प्राप्त होने वाले बिना परागित भुट्टों को ही कहा जाता है। बेबीकार्न का पौष्टिक मूल्य अन्य सब्जियों से अधिक है।

जलवायु एवं भूमि

मक्का उष्ण एवं आर्द जलवायु की फसल है। इसके लिए ऐसी भूमि जहां पानी का निकास अच्छा हो उपयुक्त होती है

खेत की तैयारी

खेत की तैयारी के लिए पहला पानी गिरने के बाद जून माह मे हेरो करने के बाद पाटा चला देना चाहिए। यदि गोबर के खाद का प्रयोग करना हो तो पूर्ण रूप से सड़ी हुई खाद अन्तिम जुताई के समय जमीन मे मिला दें। रबी के मौसम मे कल्टीवेटर से दो बार जुताई करने के उपरांत दो बार हैरो करना चाहिए।

बुवाई का समय

1. खरीफ :- जून से जुलाई तक।

2. रबी :- अक्टूबर से नवम्बर तक।

3. जायद :- फरवरी से मार्च तक।

किस्म



































संकर किस्म

 
अवधि (दिन मे)

 
उत्पादन (क्ंवि/हे.)

 
गंगा-5

 
100-105

 
50-80

 
डेक्कन-101

 
105-115

 
60-65

 
गंगा सफेद-2

 
105-110

 
50-55

 
गंगा-11

 
100-105

 
 

60-70

 
डेक्कन-103

 
110-115

 
 

60-65

 

 

कम्पोजिट जातियां


सामान्य अवधि वाली- चंदन मक्का-1

जल्दी पकने वाली- चंदन मक्का-3

अत्यंत जल्दी पकने वाली- चंदन सफेद मक्का-2

बीज की मात्रा


संकर जातियां :- 12 से 15 किलो/हे.

कम्पोजिट जातियां :- 15 से 20 किलो/हे.

हरे चारे के लिए :- 40 से 45 किलो/हे.

(छोटे या बड़े दानो के अनुसार भी बीज की मात्रा कम या अधिक होती है।)

बीजोपचार


बीज को बोने से पूर्व किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जी.एन. 2.5-3 ग्रा./कि. बीज का दर से उपचारीत करके बोना चाहिए। एजोस्पाइरिलम या पी.एस.बी.कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करें।

पौध अंतरण

  1. शीघ्र पकने वाली:- कतार से कतार-60 से.मी. पौधे से पौधे-20 से.मी.

  2. मध्यम/देरी से पकने वाली :- कतार से कतार-75 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.

  3. हरे चारे के लिए :- कतार से कतार:- 40 से.मी. पौधे से पौधे-25 से.मी.


बुवाई का तरीका


वर्षा प्रारंभ होने पर मक्का बोना चाहिए। सिंचाई का साधन हो तो 10 से 15 दिन पूर्व ही बोनी करनी चाहिये इससे पैदावार मे वृध्दि होती है। बीज की बुवाई मेंड़ के किनारे व उपर 3-5 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। बुवाई के एक माह पश्चात मिट्टी चढ़ाने का कार्य करना चाहिए। बुवाई किसी भी विधी से की जाय परन्तु खेत मे पौधों की संख्या 55-80 हजार/हेक्टेयर रखना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा



  • शीघ्र पकने वाली :- 80 : 50 : 30 (N:P:K)

  • मध्यम पकने वाली :- 120 : 60 : 40 (N:P:K)

  • देरी से पकने वाली :- 120 : 75 : 50 (N:P:K)


भूमि की तैयारी करते समय 5 से 8 टन अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद खेत मे मिलाना चाहिए तथा भूमि परीक्षण उपरांत जहां जस्ते की कमी हो वहां 25 कि.ग्रा./हे जिंक सल्फेट वर्षा से पूर्व डालना चाहिए।

खाद एवं उर्वरक देने की विधी


1. नत्रजन :-

  • 1/3 मात्रा बुवाई के समय, (आधार खाद के रूप मे)

  • 1/3 मात्रा लगभग एक माह बाद, (साइड ड्रेसिंग के रूप में)

  • 1/3 मात्रा नरपुष्प (मंझरी) आने से पहले


2. फास्फोरस व पोटाश :-

इनकी पुरी मात्रा बुवाई के समय बीज से 5 से.मी. नीचे डालना चाहिए। चुकी मिट्टी मे इनकी गतिशीलता कम होती है, अत: इनका निवेशन ऐसी जगह पर करना आवश्यक होता है जहां पौधो की जड़ें हो।

निराई-गुड़ाई

बोने के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का प्रयोग करना चाहिए। एट्राजीन का उपयोग हेतु अंकुरण पूर्व 600-800 ग्रा./एकड़ की दर से छिड़काव करें। इसके उपरांत लगभग 25-30 दिन बाद मिट्टी चढावें।

अन्तरवर्ती फसलें

मक्का के मुख्य फसल के बीच निम्नानुसार अन्तरवर्ती फसलें लीं जा सकती है :-

मक्का           :                उड़द, बरबटी, ग्वार, मूंग (दलहन)

मक्का           :                सोयाबीन, तिल (तिलहन)

मक्का           :                सेम, भिण्डी, हरा धनिया (सब्जी)

मक्का           :                बरबटी, ग्वार (चारा)

सिंचाई


मक्का के फसल को पुरे फसल अवधि मे लगभग 400-600 mm पानी की आवश्यकता होती है तथा इसकी सिंचाई की महत्वपूर्ण अवस्था पुष्पन और दाने भरने का समय है। इसके अलावा खेत मे पानी का निकासी भी अतिआवश्यक है।

पौध संरक्षण


(क) कीट प्रबन्धन :

1. मक्का का धब्बेदार तनाबेधक कीट :- इस कीट की इल्ली पौधे की जड़ को छोड़कर समस्त भागों को प्रभावित करती है। सर्वप्रथम इल्ली तने को छेद करती है तथा प्रभावित पौधे की पत्ती एवं दानों को भी नुकसान करती है। इसके नुकसान से पौधा बौना हो जाता है एवं प्रभावित पौधों में दाने नहीं बनते है। प्रारंभिक अवस्था में डैड हार्ट (सूखा तना) बनता है एवं इसे पौधे के निचले स्थान के दुर्गध से पहचाना जा सकता है।

2. गुलाबी तनाबेधक कीट:- इस कीट की इल्ली तने के मध्य भाग को नुकसान पहुंचाती है फलस्वरूप मध्य तने से डैड हार्ट का निर्माण होता है जिस पर दाने नहीं आते है।

उक्त कीट प्रबंधन हेतु निम्न उपाय है :-

  • फसल कटाई के समय खेत में गहरी जुताई करनी चाहिये जिससे पौधे के अवशेष व कीट के प्यूपा अवस्था नष्ट हो जाये।

  • मक्का की कीट प्रतिरोधी प्रजाति का उपयोग करना चाहिए।

  • मक्का की बुआई मानसुन की पहली बारिश के बाद करना चाहिए।

  • एक ही कीटनाशक का उपयोग बार-बार नहीं करना चाहिए।

  • प्रकाश प्रपंच का उपयोग सायं 6.30 बजे से रात्रि 10.30 बजे तक करना चाहिए।

  • मक्का फसल के बाद ऐसी फसल लगानी चाहिए जिसमें कीटव्याधि मक्का की फसल से भिन्न हो।

  • जिन खेतों पर तना मक्खी, सफेद भृंग, दीमक एवं कटुवा इल्ली का प्रकोप प्रत्येक वर्ष दिखता है, वहाँ दानेदार दवा फोरेट 10 जी. को 10 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई के समय बीज के नीचे डालें।

  • तनाछेदक के नियंत्रण के लिये अंकुरण के 15 दिनों बाद फसल पर क्विनालफास 25 ई.सी. का 800 मि.ली./हे. अथवा कार्बोरिल 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. का 1.2 कि.ग्रा./हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके 15 दिनों बाद 8 कि.ग्रा. क्विनालफास 5 जी. अथवा फोरेट 10 जी. को 12 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर एक हेक्टेयर खेत में पत्तों के गुच्छों में डालें।


(ख) मक्का के प्रमुख रोग

1. डाउनी मिल्डयू :- बोने के 2-3 सप्ताह पश्चात यह रोग लगता है सर्वप्रथम पर्णहरिम का ह्रास होने से पत्तियों पर धारियां पड़ जाती है, प्रभावित हिस्से सफेद रूई जैसे नजर आने लगते है, पौधे की बढ़वार रूक जाती है।

उपचार :-  डायथेन एम-45 दवा आवश्यक पानी में घोलकर 3-4 छिड़काव करना चाहिए।

2. पत्तियों का झुलसा रोग :- पत्तियों पर लम्बे नाव के आकार के भूरे धब्बे बनते हैं। रोग नीचे की पत्तियों से बढ़कर ऊपर की पत्तियों पर फैलता हैं। नीचे की पत्तियां रोग द्वारा पूरी तरह सूख जाती है।

उपचार :- रोग के लक्षण दिखते ही जिनेब का 0.12% के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

3. तना सड़न :- पौधों की निचली गांठ से रोग संक्रमण प्रारंभ होता हैं तथा विगलन की स्थिति निर्मित होती हैं एवं पौधे के सड़े भाग से गंध आने लगती है। पौधों की पत्तियां पीली होकर सूख जाती हैं व पौधे कमजोर होकर गिर जाते है।

उपचार :- 150 ग्रा. केप्टान को 100 ली. पानी मे घोलकर जड़ों पर डालना चाहिये।

मक्के में लगने बालें कीट व रोगों तथा उपचार


मक्का खरीफ ऋतु की फसल है, परन्तु जहां सिचाई के साधन हैं वहां रबी और खरीफ की अगेती फसल के रूप मे ली जा सकती है। मक्का कार्बोहाइड्रेट का बहुत अच्छा स्रोत है। यह एक बहपयोगी फसल है व मनुष्य के साथ- साथ पशुओं के आहार का प्रमुख अवयव भी है तथा औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है।जिन किसानों ने मक्के की बुवाई की है, उन्हें मक्के में लगने वाले कीटों, रोगों व उनके उपचार के बारे में जानना बहुत ज़रूरी है ताकि समय रहते किसान कीट व रोग को पहचान कर उचित उपचार कर सकें। इस संकलन से हम किसानों को मक्के में लगने वाले कीटों, रोगों व उनके उपचार के बारे में बता रहे हैं।

कीट व उपचार

1- दीमक : खड़ी फसल में प्रकोप होने पर सिंचाई के पानी के साथ क्लोरपाइरीफास 20 फीसदी ईसी 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

करंज के पत्ते ,नीम के पत्ते ,धतूरे के पत्ते 10 लीटर गौमूत्र में डालकर उबालें  यह तब तक उबालें जब गौ मूत्र 5 लीटर रह जाये तो ठंडा करके छान कर इस में 1 ली तेल  अरंडी का मिला लें 50 ग्राम सर्फ़ मिला कर 15 लीटर पानी में 200 मिली घोल मिला कर तनें और जड़ों में प्रयोग करें।

2- सूत्रकृमि : रासायनिक नियंत्रण के लिए बुआई से एक सप्ताह पूर्व खेत में 10 किग्रा फोरेट 10 जी फैलाकर मिला दें।

2 लीटर गाय के मठ्ठे  में 15 ग्राम हींग 25 नमक ग्राम अच्छी तरह मिला कर खेत में छिरक दें

3- तना छेदक कीट : कार्बोफ्यूरान 3जी 20 किग्रा अथवा फोरेट 10 प्रतिशत सीजी 20 किग्रा अथवा डाईमेथोएट  30 प्रतिशत ईसी 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा क्यूनालफास 25 प्रतिशत ईसी 1.50 लीटर।

20 लीटर गौमूत्र में 5 किलो नीम की पत्ती , 3 किलो धतुरा की पत्ती और 500 ग्राम तम्बाकू की पत्ती, 1 किलो बेशर्म की पत्ती  2 किलो अकौआ  की पत्ती  200 ग्राम अदरक की पत्ती (यदि  नही मिले तो 50ग्राम अदरक) 250ग्राम लहसुन 1 किलो गुड 25 ग्राम हींग  150 ग्राम  लाल मिर्च डाल कर तीन दिनों के लिए छाया में रख दें  यह घोले 1 एकड़ के लिए तैयार है इसे दो बार में 7-10 दिनों के अन्तेर से छिद्काब करना है प्रति 15 लीटर पानी में 3 लीटर घोल मिलाना है छिद्काब पूरी तरह से तर करके करना होगा

4 – प्ररोह मक्खी : कार्बोफ्यूूरान 3जी 20 किग्रा अथवा फोरेट 10 प्रतिशत सीजी 20 किग्रा अथवा डाईमेथोएट 30 प्रतिशत ईसी 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा कूनालफास 25 प्रतिशत ईसी 1.50 लीटर।

20 लीटर गौमूत्र में 5 किलो नीम की पत्ती , 3 किलो धतुरा की पत्ती और 500 ग्राम तम्बाकू की पत्ती, 1 किलो बेशर्म की पत्ती  2 किलो अकौआ  की पत्ती  200 ग्राम अदरक की पत्ती (यदि  नही मिले तो 50ग्राम अदरक) 250ग्राम लहसुन 1 किलो गुड 25 ग्राम हींग  150 ग्राम  लाल मिर्च डाल कर तीन दिनों के लिए छाया में रख दें  यह घोले 1 एकड़ के लिए तैयार है इसे दो बार में 7-10 दिनों के अन्तेर से छिद्काब करना है प्रति 15 लीटर पानी में 3 लीटर घोल मिलाना है छिद्काब पूरी तरह से तर करके करना होगा|

रोग व उपचार


1 – तुलासिता रोग

पहचान: इस रोग में पत्तियों पर पीली धारियां पड़ जाती है। पत्तियों के नीचे की सतह पर सफेद रुई के समान फफूंदी दिखाई देती है। ये धब्बे बाद में गहरे अथवा लाल भूरे पड़़ जाते हैं। रोगी पौधे में भुट्टा कम बनते हैं या बनते ही नहीं हैं। रोगी पौधे बौने एवं झाड़ीनुमा हो जाते हैं।

उपचार: इनकी रोकथाम के लिए जिंक मैगनीज कार्बमेट या जीरम 80 प्रतिशत, दो किलोग्राम अथवा 27 प्रतिशत के तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव आवश्यक पानी की मात्रा में घोलकर करना चाहिए।

इम से कम 40-50 दिन पुराना 15 लीटर गोमूत्र को तांबे के बर्तन में रखकर 5 किलोग्राम धतूरे की पत्तियों एवं तने के साथ उबालें 7.5 लीटर गोमूत्र शेष रहने पर इसे आग से उतार कर ठंडा करें एवं छान लें मिश्रण तैयार कर 3 ली. को प्रति पम्प के द्वारा फसल में तर-बतर कर छिडकाव करना चाहिए |

2 – झुलसा रोग

पहचान: इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे अथवा कुछ अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। रोग के उग्र होने पर पत्तियां झुलस कर सूख जाती है।

उपचार: इसकी रोकथाम के लिए जिनेब या जिंक मैगनीज कार्बमेट दो किलो अथवा जीरम 80 प्रतिशत, दो लीटर अथवा जीरम 27 प्रतिशत तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।

नीम का काढ़ा  २५० मि. ली. को प्रति पम्प के हिसाब से फसल में तर-बतर कर छिड़काव  करें |

3- तना सडऩ

पहचान: यह रोग अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में लगता है। इसमें तने की पोरियों पर जलीय धब्बे दिखाई देते हैं, जो शीघ्र ही सडऩे लगते हैं और उससे दुर्गन्ध आती है। पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती हैं।

उपचार: रोग दिखाई देने पर 15 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन अथवा 60 ग्राम एग्रीमाइसीन तथा 500 ग्राम कॉपर आक्सीक्लोराइड प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करने से अधिक लाभ होता है।

देसी गाय का मूत्र 5 लीटर लेकर 15 ग्राम के आकार के बराबर हींग लेकर पिस कर  2 किलो नीम का तेल या काड़ा अच्छी तरह मिलाकर घोल बनाना चाहिए प्रति 2 ली. पम्प के द्वारा तर-बतर कर छिडकाव करे ।

उपज

1. शीघ्र पकने वाली :- 50-60 क्ंविटल/हेक्टेयर

2. मध्यम पकने वाली :- 60-65 क्ंविटल/हेक्टेयर

3. देरी से पकने वाली :- 65-70 क्ंविटल/हेक्टेयर

फसल की कटाई व गहाई

फसल अवधि पूर्ण होने के पश्चात अर्थात् चारे वाली फसल बोने के 60-65 दिन बाद, दाने वाली देशी किस्म बोने के 75-85 दिन बाद, व संकर एवं संकुल किस्म बोने के 90-115 दिन बाद तथा दाने मे लगभग 25 प्रतिशत् तक नमी हाने पर कटाई करनी चाहिए।

कटाई के बाद मक्का फसल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य गहाई है इसमें दाने निकालने के लिये सेलर का उपयोग किया जाता है। सेलर नहीं होने की अवस्था में साधारण थ्रेशर में सुधार कर मक्का की गहाई की जा सकती है इसमें मक्के के भुट्टे के छिलके निकालने की आवश्यकता नहीं है। सीधे भुट्टे सुखे होने पर थ्रेशर में डालकर गहाई की जा सकती है साथ ही दाने का कटाव भी नहीं होता।

भण्डारण


कटाई व गहाई के पश्चात प्राप्त दानों को धूप में अच्छी तरह सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। यदि दानों का उपयोग बीज के लिये करना हो तो इन्हें इतना सुखा लें कि आर्द्रता करीब 12 प्रतिशत रहे। खाने के लिये दानों को बॉस से बने बण्डों में या टीन से बने ड्रमों में रखना चाहिए तथा 3 ग्राम वाली एक क्विकफास की गोली प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से ड्रम या बण्डों में रखें। रखते समय क्विकफास की गोली को किसी पतले कपडे में बॉधकर दानों के अन्दर डालें या एक ई.डी.बी. इंजेक्शन प्रति क्विंटल दानों के हिसाब से डालें। इंजेक्शन को चिमटी की सहायता से ड्रम में या बण्डों में आधी गहराई तक ले जाकर छोड़ दें और ढक्कन बन्द कर दें।



सामान्य जानकारी


मक्के की फसल (Cultivation of Maize) के लिए खेत की तैयारी जून महा से कर देनी चाहिए. मक्के की फसल के लिए गहरी जुताई करना लाभदायक होता है. खरीफ की फसल के लिए 15-20 सेमी गहरी जुताई करने के बाद पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में नमी बानी रहती है. इस तहह से जुताई करने का मुख्य उदेश्य खेत की मिट्टी को भुरभुरी बनाना होता है.



मक्का (Zea mays L) दूसरे दर्जे का अनाज है जिसे सामूहिक रूप से खाद्य पदार्थों या चारे के रूप में उपयोग किया जाता है। विश्व स्तर पर, मक्का को अनाज की रानी के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसमें अनाज के बीच उच्चतम आनुवंशिक उपज क्षमता होती है। अनाज खाद्य पदार्थ प्रदान करता है जिसका सेवन स्टार्च के रूप में किया जाता है, मकई के गुच्छे भी ग्लूकोज के रूप में। यह पोल्ट्री में पशु चारा के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। मक्का की खेती किसी भी मिट्टी में की जा सकती है क्योंकि इसके लिए कम उपजाऊ मिट्टी और विभिन्न रसायनों की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, यह धान की तुलना में 3 महीने कम पकने की अवधि प्राप्त करता है, जिसमें 145 दिन लगते हैं।

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मक्के की खेती करके, किसान आसानी से मिट्टी की बिगड़ती ग्रेड को ढाल सकते हैं, धान की तुलना में 90% पानी और 70% शक्ति को संरक्षित कर सकते हैं और गेहूं और धान की तुलना में अधिक लाभ कमा सकते हैं, ”कुलपति, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा रिपोर्ट किया गया। यह तेल, स्टार्च, मादक पेय आदि जैसे हजारों औद्योगिक उत्पादों के लिए बुनियादी कच्चे माल के रूप में कार्य करता है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब प्रमुख मक्का उत्पादक राज्य हैं। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक दक्षिण में मक्का के प्रमुख उत्पादक हैं।



धरती





उपजाऊ अच्छी जलोढ़ जलोढ़ या साधारण लाल दोमट मिट्टी जिसमें मोटे तत्व नहीं होते हैं और नाइट्रोजन से भरपूर मक्के की खेती के लिए आदर्श मिट्टी है। मक्के को दोमट रेत से लेकर चिकनी दोमट मिट्टी सहित कई प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। निश्चित रूप से समाप्त मैदान खेती के अनुकूल प्रभावी हैं, भले ही यह विभिन्न पहाड़ी क्षेत्रों में समान रूप से बढ़ता है। उपज बढ़ाने के लिए 5.5-7.5 पीएच के साथ अच्छी जल धारण क्षमता वाले सूक्ष्म कार्बनिक पदार्थों वाली मिट्टी की आवश्यकता होती है। भारी मिट्टी की मिट्टी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

मिट्टी में किसी पोषक तत्व की कमी का पता लगाने के लिए मृदा परीक्षण आवश्यक है।



उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में





पीएमएच 1 : खरीफ/वसंत और गर्मी के मौसम के लिए सिंचित परिस्थितियों में पूरे राज्य में खेती के लिए लागू। यह लंबी अवधि की किस्म है, 95 दिनों में पक जाती है। तना मजबूत और बैंगनी रंग का होता है। औसत उपज लगभग 21 क्विंटल प्रति एकड़ है।

प्रभात: लंबी अवधि की किस्म। खरीफ, वसंत और गर्मी के मौसम में सिंचित परिस्थितियों में पूरे राज्य में खेती की जाती है। यह मध्यम मोटा तना वाला मध्यम लंबा पौधा है और रहने के लिए प्रतिरोधी है। 95 दिनों में परिपक्व होती है। औसत उपज 17.5 क्विंटल प्रति एकड़ है।

केसरी: मध्यम अवधि की किस्म, 85 दिनों में पक जाती है। अनाज नारंगी रंग के होते हैं। औसतन 16 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

PMH-2 : कम अवधि की किस्म, 83 दिनों में पकती है। वर्षा सिंचित के साथ-साथ सिंचित परिस्थितियों में भी खेती की जाती है। यह संकर सूखे के प्रति सहनशील है। नारंगी चकमक के दानों के साथ कान मध्यम लंबे होते हैं। औसत उपज लगभग 16.5 क्विंटल प्रति एकड़ है।

JH 3459 : कम अवधि की किस्म, 84 दिनों में पकती है। यह सूखे और आवास के प्रति सहिष्णु है। इसमें 17.5 क्विंटल/एकड़ की औसत उपज के साथ नारंगी चकमक के दाने होते हैं।

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प्रकाश: यह सूखा सहिष्णु जल्दी परिपक्व (82 दिन) संकर है। यह औसतन 15-17 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

मेघा: कम अवधि की किस्म, 82 दिनों में पकती है। इसमें पीले-नारंगी चकमक पत्थर के दाने होते हैं। यह औसतन 12 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

सोयाबीन(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

पंजाब साथी 1: 70 दिनों में पक जाती है, यह कम अवधि की ग्रीष्म ऋतु की किस्म है। गर्मी के प्रति सहनशील। औसत उपज लगभग 9 क्विंटल प्रति एकड़ है।

मूंगफली(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

पर्ल पॉपकॉर्न: सिंचित परिस्थितियों में पूरे राज्य में खेती के लिए लागू। यह पॉपकॉर्न की मिश्रित किस्म है। इसके पौधे की ऊंचाई मध्यम होती है। कान पतले, छोटे गोल चकमक के दानों के साथ बेलनाकार होते हैं, 88 दिनों में परिपक्व होते हैं। औसत उपज 12 क्विंटल प्रति एकड़ है।

पंजाब स्वीट कॉर्न : यह किस्म व्यावसायिक आधार पर स्वीट कॉर्न के लिए अत्यधिक उपयुक्त है। इसके विकसित होने और हरे कानों में अपरिपक्व दानों के कारण शर्करा की मात्रा अधिक होती है। 95-100 दिनों में पक जाती है। इसके हरे कानों की औसत उपज 50 क्विंटल प्रति एकड़ है।

FH-3211: विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा द्वारा विकसित। औसत उपज 2643 किग्रा/एकड़ के साथ।

JH-10655 : पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित। प्रमुख रोगों के प्रति सहनशील इस किस्म की औसत औसत उपज 2697 किग्रा/एकड़ है।

HQPM-1 हाइब्रिड: हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित। 2514 किग्रा/एकड़ की औसत उपज देता है। यह मेडिस लीफ ब्लाइट (एमएलबी) और टर्सिकम लीफ ब्लाइट (टीएलबी) जैसी प्रमुख बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है।

जे 1006: पीएयू, लुधियाना द्वारा विकसित और 1992 में पंजाब में खेती के लिए जारी किया गया। यह मेडिस ब्लाइट, भूरे रंग की धारीदार डाउनी फफूंदी और तना छेदक के लिए प्रतिरोधी है।

प्रताप मक्का चारी 6 : एमपीयूए एंड टी, उदयपुर द्वारा विकसित। यह एक मध्यम लंबी किस्म है, तना मजबूत, मध्यम मोटा होता है और ठहरने के लिए प्रतिरोधी होता है। यह 90-95 दिनों में पक जाती है। इसके हरे चारे की उपज क्षमता 187-200 क्विंटल प्रति एकड़ है।

निजी कंपनियों की किस्में

पायनियर 39V92 और 30R77, प्रो एग्रो 4640, मोनसेंटो हाय, शेल एंड डबल, श्री राम जेनेटिक केमिकल लिमिटेड। बायो 9690 और राज कुमार, कंचन सीड, पोलो, हाइब्रिड कॉर्न और केएच 121 (सोनालिका), महीको एमपीएम 3838। जुआरी सी। 1415 , गंगा कावेरी जीके 3017, जीके 3057, सिनजेंटा इंडिया लिमिटेड एनके 6240।

अन्य राज्य किस्में

PEEHM 5 : पूसा एक्स्ट्रा अर्ली हाइब्रिड मक्का। यह उच्च तापमान के प्रति सहनशील है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में बुवाई के लिए उपयुक्त। 20 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

पीसी 1: पूसा कम्पोजिट 1, जल्दी पकने वाली किस्म। यह डंठल सड़न, मकई बेधक और पत्ती झुलसा के लिए प्रतिरोध देता है। यह औसतन 12 से 14 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

पीसी 2: जल्दी पकने वाली किस्म। यह डंठल गलन, पत्ती झुलसा, शीट ब्लाइट और भूरी धारी डाउनी फफूंदी को प्रतिरोध देता है। यह औसतन 14 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

सरसों(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

पीसी 3 : अगेती से मध्यम पकने वाली किस्म। यह तना छेदक के प्रति सहनशील है और रहने और नमी के दबाव को प्रतिरोध प्रदान करता है। यह औसतन 16 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

पीसी 4: जल्दी परिपक्व होने वाला सम्मिश्रण। यह तना छेदक के प्रति सहनशील है और रहने और नमी के दबाव को प्रतिरोध प्रदान करता है। यह औसतन 16 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।




भूमि की तैयारी





खेती के लिए चयनित भूमि खरपतवारों और पहले उगाई गई फसल के अवशेषों से मुक्त होनी चाहिए। मिट्टी को अच्छी तरह से जोतने के लिए जमीन की जुताई करें। इसमें 6 से 7 हल लग सकते हैं। 4-6 टन प्रति एकड़ अच्छी तरह से सड़ी हुई गाय के गोबर को पूरे खेत में लगाएं, 10 एजोस्पिरिलम के पैकेट भी खेत में लगाएं। 45 सेमी से 50 सेमी की दूरी के साथ तैयार खांचे और लकीरें।




बोवाई





बुवाई का समय
खरीफ मौसम में, फसल मई के अंत से जून के महीने में मानसून की शुरुआत के साथ बोई जाती है। वसंत फसलों को फरवरी के अंत से मार्च के अंत तक बोया जाता है। बेबी कॉर्न की रोपाई दिसंबर और जनवरी को छोड़कर पूरे साल की जा सकती है। स्वीट कॉर्न की बुवाई के लिए खरीफ और रबी का मौसम सबसे अच्छा होता है।

रिक्ति
संसाधन-उपयोग दक्षता के साथ-साथ अधिक उपज प्राप्त करने के लिए, इष्टतम पौधे की दूरी प्रमुख कारक है।
1) खरीफ मक्का के लिए: 60x20 सेमी की दूरी का प्रयोग करें।
2) स्वीट कॉर्न : 60x20 सेमी की दूरी का प्रयोग करें।
3) बेबी कॉर्न: 60x20 सेमी या 60x15 सेमी की दूरी का प्रयोग करें।
4) पॉप कॉर्न: 50x15 सेमी की दूरी का प्रयोग करें।
5) चारा: 30x10 सेमी के फासले पर

बुवाई की गहराई का प्रयोग करें

बीज को 3-4 सें.मी. की गहराई पर बोना चाहिए। स्वीट कॉर्न की खेती के लिए बुवाई की गहराई 2.5 सेमी रखें।

बुवाई की विधि
मैन्युअल रूप से बीजों को खोदकर या यंत्रवत् ट्रैक्टर से तैयार रिजर सीड ड्रिल की सहायता से किया जा सकता है।




बीज





बीज दर
उद्देश्य, बीज का आकार, मौसम, पौधे का प्रकार, बुवाई की विधि ये कारक बीज दर को प्रभावित करते हैं।
1) खरीफ मक्के के लिए : बीज दर 8-10 किग्रा/एकड़ का
प्रयोग करें, 2) स्वीट कॉर्न : बीज दर 8 किग्रा/एकड़ का प्रयोग करें
3) बेबी कॉर्न: 16 किग्रा/एकड़ बीज दर।
4) पॉप कॉर्न: 7 किलो प्रति एकड़ बीज दर।
5) चारा: 20 किलो प्रति एकड़ बीज दर।
अंतरफसल : मक्के के पौधे में मटर को अंतरफसल के रूप में लिया जा सकता है। इसके लिए मक्के की फसल के बीच मटर की एक कतार लें। शरद ऋतु में गन्ना और मक्का की भी अंतरफसली की जा सकती है। गन्ने की दो कतार के बाद मक्के के पौधे की एक कतार बोयें।

बीज उपचार
बीजों को मृदा जनित रोगों एवं कीटों से बचाने के लिए बीजोपचार आवश्यक है। बीज को फफूंदी से बचाने के लिए, बीज को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। रासायनिक उपचार के बाद बीज को एज़ोस्पिरिलम 600 ग्राम+ चावल के घी से उपचारित करें। उपचार के बाद सूखे बीजों को 15-20 मिनट तक छाया में रखें। एज़ोस्प्रिलम मिट्टी में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करने में मदद करता है।

या नीचे से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग करें



















कवकनाशी का नाममात्रा (खुराक प्रति किलो बीज)
इमिडाक्लोप्रिड 70WS5 मिली
कप्तान2.5 ग्राम
कार्बेन्डाजिम + कैप्टन (1:1)2 ग्राम

उर्वरक





उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)
















यूरिया     डीएपी या एसएसपीपोटाश का मूरिएटजस्ता
75-11027-5575-15015-208

 

पोषक तत्व मूल्य (किलो/एकड़)













नाइट्रोजनफॉस्फोरसपोटाश
35-5012-248-12

 

(मिट्टी परीक्षण के परिणाम के आधार पर खाद डालें)। सुपर फॉस्फेट 75-150 किग्रा, यूरिया 75-110 किग्रा और पोटाश 15-20 किग्रा (मिट्टी में कमी होने पर ही लगाएं) प्रति एकड़ मक्के की फसल में डालें। एसएसपी और एमओपी की पूरी मात्रा और यूरिया की एक तिहाई बिजाई के समय डालें। नत्रजन की बची हुई मात्रा को घुटने की ऊंचाई और टासेलिंग से पहले की अवस्था में डालें।

मक्का की फसल में जिंक और मैग्नीशियम की कमी आम है। इस कमी को दूर करने के लिए Znso4@8kg/एकड़ को मूल मात्रा में डालें। जिंक और मैग्नीशियम की कमी के साथ-साथ आयरन की कमी भी देखी जाती है। इससे पूरा पौधा पीला दिखाई देता है। इस कमी को दूर करने के लिए मक्के की बिजाई के बाद सूक्ष्म पोषक तत्वों का मिश्रण 25 किलो बालू में 25 किलो बालू मिलाकर प्रति एकड़ में डालें।





खरपतवार नियंत्रण





मक्का में खरपतवार एक गंभीर समस्या है, विशेष रूप से खरीफ/मानसून के मौसम में वे पोषक तत्वों के लिए मक्का से प्रतिस्पर्धा करते हैं और 35% तक उपज की हानि का कारण बनते हैं। इसलिए अधिक उपज प्राप्त करने के लिए समय पर खरपतवार प्रबंधन की आवश्यकता होती है। मक्के की फसल में कम से कम एक या दो हाथों से निराई करें। पहला बुवाई के 20-25 दिन बाद और दूसरा बुवाई के 40-45 दिन बाद। यदि खरपतवार का प्रकोप अधिक हो तो एट्राजीन 500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। निराई-गुड़ाई के बाद उर्वरक को टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालें और मिट्टी की मिट्टी चढ़ाने का कार्य करें।



सिंचाई





बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई करें। मिट्टी की किस्म के आधार पर तीसरे या चौथे दिन जीवन रक्षक सिंचाई करें। बरसात के मौसम में, अगर बारिश संतोषजनक है तो इसकी आवश्यकता नहीं है। फसल के शुरुआती चरण में पानी के ठहराव से बचें और अच्छी जल निकासी की सुविधा प्रदान करें। प्रारंभिक अवस्था में फसल को कम सिंचाई की आवश्यकता होती है, बुवाई के 20 से 30 दिन बाद सप्ताह में एक बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। अंकुर, घुटने की ऊंचाई की अवस्था, फूल आना और दाने का अहसास सिंचाई के लिए सबसे संवेदनशील अवस्था है। इस स्तर पर पानी की कमी से उपज में भारी नुकसान होता है। पानी की कमी होने पर वैकल्पिक कुंड की सिंचाई करें। इससे पानी की भी बचत होगी।




प्लांट का संरक्षण






बैक्टीरियल डंठल रोट




  • रोग और उनका नियंत्रण


बैक्टीरियल डंठल सड़ना : जमीन के पास का डंठल भूरे रंग के साथ पानी से लथपथ हो जाता है और आसानी से टूट जाता है और अप्रिय गंध देता है।

खेत में जलभराव से बचें और उचित जल निकासी की व्यवस्था करें। 33% क्लोरीन युक्त ब्लीचिंग पाउडर 2-3 किग्रा/एकड़ के रूप में फूल आने से पहले डालें।









टरसिकम लीफ ब्लाइट



टरसिकम लीफ ब्लाइट (TLB) : यह उत्तरी और उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों और प्रायद्वीपीय भारत में सबसे महत्वपूर्ण बीमारियों में से एक है और यह एक्ससेरोहिलम टरसिकम के कारण होता है। यदि संक्रमण रेशमी अवस्था में होता है तो महत्वपूर्ण आर्थिक क्षति देखी जाती है। प्रारंभिक लक्षण थोड़े अंडाकार, पानी से लथपथ, पत्तियों पर छोटे धब्बे बनते हैं। गंभीर प्रकोप में सबसे पहले निचली पत्तियों पर दिखाई देते हैं, पूरा पौधा जलता हुआ दिखाई देता है। यदि उचित समय पर नियंत्रित नहीं किया गया, तो इससे उपज में 70% तक की कमी आने की संभावना है।

इसके नियंत्रण के लिए मैनकोजेब या जिनेब @2-4 ग्राम/लीटर का छिड़काव रोग के पहले प्रकट होने के बाद 10 दिनों के अंतराल पर करें।









मेडिस लीफ ब्लाइट



मेडिस लीफ ब्लाइट (एमएलबी) : एमएलबी बाइपोलारिस मेडिस के कारण होता है और आमतौर पर गर्म उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में आर्द्र समशीतोष्ण जलवायु में दिखाई देता है। युवा घाव छोटे और हीरे के आकार के होते हैं। जैसे-जैसे वे परिपक्व होते हैं, वे बढ़ते जाते हैं। घाव आपस में जुड़ सकते हैं, जिससे पत्तियों के बड़े क्षेत्रों का पूर्ण "जलन" हो सकता है।

डायथेन एम-45 या ज़िनेब 2.0-2.5 ग्राम/लीटर पानी की 2-4 स्प्रे रोग की पहली उपस्थिति से 7-10 दिनों के अंतराल पर करने से रोगज़नक़ के प्रसार को नियंत्रित किया जाता है।









भूरी धारी नीचे की ओर फफूंदी



भूरी धारी डाउनी फफूंदी : घाव निचली पत्तियों पर संकीर्ण क्लोरोसिस या पीली धारियों के रूप में विकसित होने लगते हैं, 3-7 मिमी चौड़ी, अच्छी तरह से परिभाषित मार्जिन के साथ और नसों द्वारा सीमांकित होते हैं। धारियां बाद में लाल से बैंगनी रंग की हो जाती हैं। घावों के पार्श्व विकास के कारण गंभीर स्ट्रिपिंग और ब्लॉचिंग होती है।

प्रतिरोधी किस्में उगाएं। बीज का उपचार मेटलैक्सिल 6 ग्राम प्रति किलो बीज से करें। संक्रमित पौधे को हटाकर खेत से दूर नष्ट कर दें। मेटलैक्सिल 1 ग्राम प्रति लीटर या मेटलैक्सिल + मैनकोजेब 2.5 ग्राम लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।









पोस्ट फ्लावरिंग डंठल रोट



फूल आने के बाद डंठल सड़ना : यह सबसे विनाशकारी बीमारियों में से एक है और कई रोगजनकों के जटिल जुड़ाव के कारण होता है। यह जड़ों, ताज क्षेत्र और फसलों के निचले इंटर्नोड्स को प्रभावित करता है।

यदि इस रोग का प्रकोप दिखे तो पोटाशियम उर्वरक का प्रयोग कम से कम करें। फसल चक्र अपनाएं। फूल आने की अवस्था में पानी का दबाव न दें। बायो-कंट्रोल एजेंट जैसे ट्राइकोडर्मा फॉर्मूलेशन को बुवाई से 10 दिन पहले फरो @ 10 ग्राम / किग्रा एफवाईएम में लगाने से अच्छा नियंत्रण मिलता है।











पायथियम डंठल रोट



पाइथियम डंठल सड़न: इस रोग में, बेसल इंटरनोड्स नरम, गहरे भूरे रंग के पानी से भीग जाते हैं, जिससे पौधे गिर जाते हैं। क्षतिग्रस्त इंटर्नोड्स आमतौर पर पौधों के लॉज से पहले मुड़ जाते हैं।

पिछली फसल के अवशेषों को हटा दें और बुवाई से पहले खेत को साफ रखें। खेत में इष्टतम पौधों की आबादी बनाए रखें। बेसल इंटरनोड (5-7 सप्ताह की वृद्धि अवस्था) @ 1 ग्राम / लीटर पानी में कैप्टन के साथ मिट्टी की सिंचाई करें।









डंठल बेधक या तना छेदक




  • कीट और उनका नियंत्रण


डंठल छेदक या तना छेदक : चिलो पार्टेलस, जिसे आमतौर पर डंठल बेधक के रूप में जाना जाता है जो पूरे मानसून की अवधि में दिखाई देता है। यह पूरे देश में एक गंभीर बग है। चीलो अंकुरण के 10-25 रात बाद पत्ती के निचले हिस्से पर अंडे देती है। लार्वा भँवर में घुस जाता है और फिर पत्ती में गिरावट का कारण बनता है और शॉट होल का कारण बनता है। तना छेदक का लार्वा भूरे रंग के सिर के साथ पीले-भूरे रंग का होता है।
तना बेधक के लिए, अंडे देने की अवधि के साथ अंडा परजीवी ट्राइकोग्रामा चिलोनिस@1,00,000/एकड़ छोड़ दें। साप्ताहिक अंतराल पर तीन रिलीज वांछनीय हैं। तीसरी रिलीज के साथ लार्वा परजीवी कोटेसिया फ्लेवाइप्स @ 2000/एकड़ दिया जाना है।

फोरेट 10% सीजी@4किलोग्राम प्रति एकड़ या कार्बेरिल 4%जी@1किलोग्राम प्रति एकड़ रेत में मिलाकर 10 किलो की कुल मात्रा बना लें और बिजाई के 20वें दिन पत्तों की चोंच में डालें। या बुवाई के 20वें दिन कार्बेरिल 50WP@1 किलो प्रति एकड़ या डाइमेथोएट 30% ईसी@200 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें। अंकुरण के 10-12 दिनों के बाद क्लोरपाइरीफॉस 1-1.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से अच्छा नियंत्रण मिलता है।









गुलाबी छेदक



गुलाबी छेदक (सीसमिया अनुमान) : यह अनुमान मुख्यतः प्रायद्वीपीय भारत में शीत ऋतु के समय में उत्पन्न होता है। गुलाबी बेधक के लार्वा जड़ को छोड़कर मक्के के पौधे के सभी भागों को खाकर नुकसान पहुंचाते हैं। लार्वा तने के अंदर मल से भरी गोलाकार या "एस" आकार की सुरंग बनाते हैं और सतह पर निकास छेद भी दिखाते हैं। गंभीर क्षति के मामले में, तना टूट गया।

कार्बोफुरन (40F) 5% W/W @ 2.5g/kg बीज के साथ बीज उपचार भी प्रभावी पाया गया। अंकुरण के दस दिन बाद प्रति एकड़ 4 ट्राइकोकार्ड (ट्राइकोग्रामा चिलोनिस) की शुरूआत करके चिलो को नियंत्रित किया जा सकता है। वयस्क पतंगों की घटनाओं का आकलन करने के लिए प्रकाश और फेरोमोन जाल का उपयोग किया जा सकता है।









मकई का कीड़ा



मकई का कीड़ा : लार्वा रेशम और विकासशील अनाज पर फ़ीड करता है। मकई के कीड़ों के लार्वा हरे से भूरे रंग में भिन्न होते हैं। इसके शरीर पर पार्श्व सफेद रेखाओं के साथ गहरे भूरे रंग की धूसर रेखाएँ होती हैं।

फेरोमोन ट्रैप @5/एकड़ पर लगाएं। फूलगोभी निकलने के तीसरे और 18वें दिन कार्बेरिल 10डी 10 किलो प्रति एकड़ या मैलाथियान 5डी 10 किलो प्रति एकड़ डालें।









बग को गोली मारो



शूट बग: पत्ती के ऊतक के अंदर बग रखे अंडे को गोली मारो और एक सफेद मोमी पदार्थ से ढका हुआ है। इसके संक्रमण के कारण पौधा अस्वस्थ, बौना और पीला हो जाता है। पत्तियाँ ऊपर से नीचे की ओर मुरझा जाती हैं। अंडे देने के कारण पत्तियों की मध्य शिराएं लाल हो जाती हैं और बाद में सूख सकती हैं।

यदि इसका हमला दिखे तो डाइमेथोएट 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।









दीमक



दीमक : मक्का का गंभीर कीट अधिकांश क्षेत्रों में देखा गया है। इसके नियंत्रण के लिए फिप्रोनिल 8 किलो प्रति एकड़ डालें और फिर हल्की सिंचाई करें।

यदि दीमक का प्रकोप चकत्तों में हो तो फिप्रोनिल 2-3 किलो दाना/पौधे की जगह पर छिड़काव करना चाहिए। क्षेत्र में साफ-सफाई रखें।









फ्लाई शूट



शूट फ्लाई : यह दक्षिण भारत का एक प्रमुख कीट है लेकिन कभी-कभी उत्तर भारत में वसंत और गर्मियों की फसल में देखा जाता है। यह अंकुर के चरण में क्षति का कारण बनता है और अंकुर या मृत हृदय के सूखने का कारण बनता है।

प्ररोह मक्खी के संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए, पिछली फसल की कटाई के बाद जुताई की गई भूमि को भी पहले काटी गई फसल के अवशेषों और अवशेषों को हटा दें। इमिडाक्लोप्रिड @ 6 मि.ली./कि.ग्रा. बीज से बीजोपचार करें, इससे तना मक्खी पर अच्छा नियंत्रण मिलता है। फोरेट 10% सीजी 5 किलो प्रति एकड़ की दर से बुवाई के समय मिट्टी में डालें। डाइमेथोएट 30% ईसी @ 300 मिली प्रति एकड़ या मिथाइल डेमेटोन 25% ईसी @ 450 मिली प्रति एकड़ में से किसी एक कीटनाशक का छिड़काव करें।









फाल्मी वर्म.jpg



फॉल आर्मीवर्म:  वे युवा लार्वा पत्ती की सतह को खुरच कर फसल को नुकसान पहुंचाते हैं और अंत में उन्हें पपीता बना लेते हैं और युवा लार्वा पत्तियों को खाकर अपना पेट भरते हैं जिसके परिणामस्वरूप गोल से आयताकार छेद हो जाते हैं। सिर पर सफेद रंग के उल्टे वाई-आकार के निशान और पूंछ के अंत में चौकोर पैटर्न में व्यवस्थित चार धब्बे देखकर लार्वा की पहचान की जा सकती है।

नियंत्रण :  फसल को निर्धारित समय पर बोने का प्रयास करें। 20 दिन की फसल के लिए कोराजन 0.4 मिली प्रति लीटर पानी या डेलीगेट 0.5 मिली प्रति लीटर पानी का छिड़काव करें। इसके बाद पुरानी फसल के लिए खुराक और पानी की मात्रा बढ़ानी चाहिए।





कमी और उनके उपाय





जिंक की कमी
ज्यादातर उन क्षेत्रों में देखी गई जहां अधिक उपज देने वाली किस्म का उपयोग होता है। पौधे के ऊपर से दूसरी या तीसरी पत्ती पर मध्य पसली के प्रत्येक तरफ सफेद-पीले रंग के साथ लाल रंग की नसें दिखाई देती हैं।
जिंक की कमी को दूर करने के लिए जिंक सल्फेट 10 किलो प्रति एकड़ बिजाई के समय डालें। यदि खड़े खेत में कमी दिखाई दे तो जिंक सल्फेट को समान मात्रा में सूखी मिट्टी में मिलाकर कतारों में लगाएं।

मैग्नीशियम की कमी
आम मक्का की फसल है। ज्यादातर पत्तियों पर देखा जाता है। बेसल की पत्तियाँ पत्तियों के किनारों और शिराओं के बीच पीले रंग का रूप देती हैं। रोकथाम के उपाय के रूप में मक्का में मैगनीशियम सल्फेट 1 किलो प्रति एकड़ की पत्तियों पर स्प्रे करें।

आयरन की कमी

पूरा पौधा पीला रंग देता है। आयरन की कमी से बचाव के लिए मक्का की फसल की बुवाई के बाद सूक्ष्म पोषक तत्व 25 किलो प्रति एकड़ में बालू 18 किलो प्रति एकड़ में मिलाकर डालें।





फसल काटने वाले





जब कोब्स का बाहरी आवरण हरे से सफेद हो जाए तो कटाई की जानी चाहिए। मक्के की कटाई का इष्टतम समय तब होता है जब डंठल सूख जाते हैं और अनाज की नमी लगभग 17-20% हो जाती है। सुखाने की जगह या उपकरण सूखा, साफ और कीटाणुरहित होना चाहिए।

स्वीट कॉर्न की कटाई: जब फसल पकने के करीब आती है, तो पहली तुड़ाई का समय निर्धारित करने के लिए रोजाना कुछ कानों की जांच करें। मकई फसल के लिए तैयार है जब किस्म के लिए कान पूर्ण आकार का होता है, एक तंग भूसी होती है, और कुछ हद तक सूखे रेशम होते हैं। गुठली पूरी तरह से विकसित हो जाती है और पंचर होने पर एक दूधिया तरल निकलता है। कटाई में देरी से चीनी की मात्रा में कमी आती है। कटाई चाहे हाथ से की जाए या मशीन से, स्वीट कॉर्न को रात में या सुबह जल्दी इकठ्ठा करना चाहिए।

बेबी कॉर्न:उभरने के 45-50 दिनों के बाद कानों की कटाई की जाती है, जब रेशम 1-2 सेंटीमीटर लंबे होते हैं (रेशम उभरने के 1-2 दिनों के भीतर)। कटाई सुबह के समय की जाती है जब तापमान कम होता है और नमी अधिक होती है। बेबी कॉर्न की तुड़ाई तीन दिनों में एक बार की जानी चाहिए और आमतौर पर इस्तेमाल किए गए जीनोटाइप के आधार पर 7-8 तुड़ाई की आवश्यकता होती है।
मध्यप्रदेश की सभी मंडियों के आज के भाव(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
पॉप कॉर्न : पॉपकॉर्न के कानों को जितना हो सके पौधे पर छोड़ दें। यदि मौसम अनुमति देता है, तो उन्हें खेत में तब तक छोड़ दें जब तक कि भूसी सूखी और पपड़ीदार न हो जाए।

सूरजमुखी(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)





फसल कटाई के बाद





स्वीट कॉर्न को जल्दी से खेत से पैकिंग शेड में ले जाना चाहिए, जहां इसे तेजी से छांटना, पैक करना और ठंडा करना चाहिए। यह आम तौर पर तार से बंधे लकड़ी के टोकरे में पैक किया जाता है, जो टोकरे या कानों के आकार के आधार पर 4 से 6 दर्जन कानों तक पकड़ सकता है।




संदर्भ





1.पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना

2.कृषि विभाग

3.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

4.भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान

5.कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय



 

 

 

 

 

 

 

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