केले की खेती
केले की खेती कई तरह की भूमि में की जा सकती है बशर्ते उस भूमि में पर्याप्त उर्वरता, नमी एवं अच्छा जल निकास हो. किसी भी मिट्टी में केला की खेती के लिए उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि मृदा की संरचना को सुधारा जाय, उत्तम जल निकास की व्यवस्था किया जाय. केला 4.5 से लेकर 8.0 तक पी. एच मान वाली मिट्टी में उगाया जा सकता है.
जलवायु और भूमि
- केले की खेती के लिये उर्वर भूमि की आवश्यकता होती है। 5 से 8.5 पी.एच. मान वाली भूमि में की जा सकती है, परन्तु अच्छी वृद्धि, फल के विकास एवं अच्छे उत्पादन के लिये 6.0 से 7.0 पी.एच. मान वाली मिट्टी सबसे उपयुक्त है।
- केला मुख्य रूप से उष्ण जलवायु का पौधा है परन्तु इसका उत्पादन नम उपोष्ण से शुष्क उपोष्ण क्षेत्रों में किया जा सकता है। केले के अच्छे उत्पादन के लिये 20 से 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त रहता है। तापमान में अधिक कमी या वृद्धि होने पर पौधों की वृद्धि, फलों के विकास एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
गुणवत्ता युक्त अधिक उपज हेतु मुख्य उत्पादन तकनीक
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अनुशासित प्रजाति का चुनाव
डवार्फ कैवेन्डिश, रोबस्टा, ग्रेन्डनेन (टिशुकल्चर), महालक्ष्मी, बसराई
गुणवत्ता युक्त पौध / प्रकंद का चुना
रोपाई के लिये टिशुकल्चर (जी-9), पौध की लम्बाई 30 से.मी., मोटाई 5 से.मी. तथा 4-5 पूर्णरूप से खुली पत्तियां
सोर्ड सकर का चुनाव :
पत्तिया पतली उपर की तरफ तलवारनूमा, खेती के लिये सबसे उपयुक्त होते है। तीन माह पुराने पौधे का कन्द जिसका वजन 700 ग्राम से 1 कि.ग्रा. का हो, उपयुक्त होता है।
वाटर सकर :
चौड़ी पत्ती वाले देखने में मजबूत परन्तु आन्तरिक रूप से कमजोर, प्रवर्धन हेतु इनका प्रयोग वर्जित है।
सकर्स का चुनाव संक्रमण मुक्त बागान से करें।
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प्रकंद का उपचार
- सकर्स की अच्छी सफाई कर रोपाई पूर्व कार्बेन्डिाजिम (0.1:), + इमिडाक्लोरोप्रिड (0.05.:) के जलीय घोल में लगभग 30 मिनट तक डालकर शोधन करते है। तत्पश्चात सकर्स को एक दिन तक छाया में सुखाकर रोपाई करें।
- टिशु कल्चर पौध की रोपाई से एक सप्ताह पूर्व 1:कार्बोफ्यूरान एवं 1 प्रतिशत ब्लीचिंग पावडर का घोल बनाकर पोलीथिन बेग में छिडकाव करें। जिससे निमेटोड एवं बैक्टरियल राट जैसी बिमारीयों से बचा जा सकें।
अनुशंसित दूरी एवं उचित पौध संख्या
पद्धति | किस्म | दूरी (मीटर) | पौधों की संख्या (प्रति हेक्टेयर) |
सामान्य रोपण | ग्रैण्ड नाइन | 1.6 * 1.6 | 3900 |
डवार्फ कैवेण्डिश | 1.5 * 1.5 | 4444 | |
रोबस्टा | 1.8 * 1.8 | 3086 | |
सघन रोपण | रोबस्टा, कैवेन्डिश, बसराई | 15 * 1.5 * 2.0 | 4500 |
ग्रैण्ड नाइन | 1.2 * 1.2 * 2.0 | 5000 |
अनुशंसित समय पर रोपाई
1. मृग बहार : जून, जूलाई
2. कांदा बहार : अक्टुबर, नवम्बर
अनुशंसित खाद एवं उर्वरक
200 ग्राम नत्रजन+ 60 ग्राम स्फुर +300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा।
उर्वरक देने हेतु निम्न विकल्पों का उपयोग किया जा सकता है ।
विकल्प | उर्वरक की मात्रा |
विकल्प नम्बर 1 | 434 ग्राम युरिया, 375 ग्राम सुपर (एसएसपी) एवं 500 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी) |
विकल्प नम्बर 2 | 190 ग्राम एनपीके (12:32:16), 390 ग्राम युरिया एवं 430 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी) |
विकल्प नम्बर 3 | 231 ग्राम एनपीके (10:26:26), 380 ग्राम युरिया एवं 370 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी) |
विकल्प नम्बर 4 | 130 ग्राम डीएपी, 380 ग्राम युरिया एवं 500 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी) |
उर्वरक देने की विधि –
खेत के तैयारी के समय गोबर/कम्पोस्ट की मात्रा – 25 टन प्रति हेक्टर एवं पौध लगाते समय 15 कि.ग्रा. गोबर की खाद प्रति पौधा, कार्बोक्यूरान 25 ग्राम एवं स्फुर व पोटाश की आधारिय मात्रा देकर ही रोपाई करे। उर्वरक हमेशा पौधे से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर रिंग बनाकर नमी की उपस्थिति में व्यवहार कर मिट्टी में मिला दें।
उर्वरक तालिका –
उर्वरक देने का समय | उर्वरक | उर्वरक की मात्रा (ग्राम) |
पौध लगाते समय | सुपर फास्फेट + म्यूरेट आफ पोटाश | 125:100 |
30 दिन के पश्चात | युरिया | 60 |
75 दिन के पश्चात | युरिया + सुपर फास्फेट + सुक्ष्म पोषक तत्व | 60:125:25 |
125 दिन के पश्चात | युरिया + सुपर फास्फेट | 60:125 |
165 दिन के पश्चात | युरिया + पोटाश | 60:100 |
210 दिन के पश्चात | युरिया + पोटाश | 60:100 |
255 दिन के पश्चात | युरिया + पोटाश | 60:100 |
300 दिन के पश्चात | युरिया + पोटाश | 60:100 |
केले में फर्टीगेशन द्वारा अनुशंसित उर्वरकों की मात्रा
मात्रा / पौधा (ग्राम) : 170 ग्राम नाइट्रोजन 45 ग्राम स्फुर 200 ग्राम पोटाश
रोपाई के बाद ( सप्ताह में ) | नाइट्रोजन (ग्राम / पौधा) | स्फुर (ग्राम / पौधा) | पोटाश (ग्राम / पौधा) |
9-18 | 50 | 45 | 30 |
19-30 | 90 | – | 90 |
31-42 | 30 | – | 60 |
43-46 | – | – | 20 |
कुल | 170 | 45 | 200 |
उपरोक्त उर्वरक के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व 10 ग्राम प्रति पौधा एवं मैग्नीशियम सल्फेट 25 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के 75 दिन बाद फर्टीगेशन द्वारा दें।
खरपतवार प्रबंधन
केले की फसल को 90 दिन तक खरपतवार से मुक्त रखें। इसके प्रबंधन हेतु यांत्रिक विधियों जैसे बख्खर एवं 15 दिन के अंतराल पर डोरा चलाने से फसल वृद्धि एवं उत्पादकता में अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
केले में अन्र्तवर्ती फसल
राज्य मे केले के किसान इस फसल को एकाकी फसल के रूप मे ही करते चले आ रहे है लेकीन आज बदले हुए विपरित स्थिती मे केला कृषको को अपने खेती के परम्परागत तरीको मे बदलाव लाने की जरूरत है। केला उत्पादकों का उत्पादन लागत बढ़ती जा रहा है। केले के साथ अन्र्तवर्ती खेती कर लागत को कम किया जा सकता है।
मृग बहार –
मृग बहार मे मूंग, ग्रीष्म कालीन कटुआ धनिया, चैलाफली, टमाटर, सागवाली फसल लेना चाहिए परन्तु ध्यान रखा जावे कि कृषक के पास पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध हो, फसले केले की जड से 9 इंच से 1 फीट की दूरी पर बोई जाये।
कांदा बहार
-इस मौसम मे पालक, मेथी, सलाद, आलू, प्याज, टमाटर, मटर, धनिया, मक्का, गाजर, मूली, बैगन की फसल ली जा सकती है। इन्हें अतिरिक्त पोषक तत्व देना जरूरी रहता है। मौसमी फूल भी उगाये जा सकते है।
सिंचाई प्रबंधन
माह | रबी | खरीफ | माह | रबी | खरीफ |
जून | 5-6 | 12-14 | नवम्बर | 8-10 | 4-6 |
जूलाई | 4-5 | 12-14 | दिसम्बर | 6-8 | 4-6 |
अगस्त | 5-6 | 12-14 | जनवरी | 10-12 | 5-7 |
सितम्बर | 6-8 | 14-16 | फरवरी | 12-14 | 5-7 |
ऑक्टोबर | 8-10 | 4-6 | मार्च | 16-18 | 10-12 |
अप्रैल | 18-20 | 12-14 | |||
मई | 20-22 | 12-14 |
पानी की आवश्यकता प्रति पौधा प्रति दिन (लीटर)
नोट – पानी की मात्रा जमीन के प्रकार एवं मौसमानुसार बदलाव करें।
फसल चक्र
केला – गेहूँ / मक्का / चना
केला – मूँग – मक्का
विशेष शस्य क्रियाएँ
पत्तियों की कटाई छटाई मिटटी चढ़ाना सहारा देना मल्चिंग अवांछित सकर्स (प्रकंद) की कटाई गुच्छों को ढकना एवं नर पुष्प की छटाई घड़ के अविकसित हत्थों को हटाना
पौध संरक्षण
लू से बचाव –
गर्मी के दिनो में लू से बचाव के लिए खेत के चारो तरफ बागड वायु अवरोधक के रूप मे लगाना चाहिए, इसके लिए उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे ढैंचा की दो कतार लगाते है। जिससे फसल को अधिक तापमान एवं लू से बचाया जा सकता है।
कीट
- तना छेदक कीट (ओडोपोरस लांगिकोल्लिस)
- पत्ती खाने वाला केटर पिलर (इल्ली)
- महू (एफिड))
बीमारी –
- सिगाटोका लीफ स्पाट (करपा)
- पत्ती गुच्छा रोग (बंची टॉप)
- जड़ गलन
- एन्थ्रेकनोज
- बाजरा की खेती(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
कीट प्रबंधन
कीट के नाम | लक्षण एवं नुकसान | प्रबंधन |
तना छेदक कीट | केले के तना छेदक कीट का प्रकोप 4-5 माह पुराने पौधो में होता है । शुरूआत में पत्तियाँ पीली पडती है तत्पश्चात गोदीय पदार्थ निकालना शुरू हो जाता है। वयस्क कीट पर्णवृत के आधार पर दिखाई देते है। तने मे लंबी सुरंग बन जाती है। जो बाद मे सडकर दुर्गन्ध पैदा करता है। | 1. प्रभावित एव सुखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए। 2.नयी पत्तियों को समय – समय पर निकालते रहना चाहिए। 3. घड काटने के बाद पौधो को जमीन की सतह से काट कर उनके उपर कीटनाषक दवाओ जैसे – इमिडाक्लोरोपिड (1 मिली. /लिटर पानी) के घोल का छिडकाव कर अण्डो एवं वयस्क कीटो को नष्ट करे। 4. पौध लगाने के पाचवे महीने में क्लोरोपायरीफॉस (0.1 प्रतिशत) का तने पर लेप करके कीड़ो का नियंत्रण किया जा सकता है। |
पत्ती खाने वाला केटर पिलर | यह कीट नये छोटे पौधों के उपर प्रकोप करता है लर्वा बिना फैली पत्तियों में गोल छेद बनाता है। | 1. अण्डों को पत्ती से बाहर निकाल कर नष्ट करें 2. नव पतंगों को पकड़ने हेतु 8-10 फेरोमेन ट्रेप / हेक्टेयर लगायें। 3. कीट नियंत्रण हेतु ट्राइजफॉस 2.5 मि.ली./लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें एवं साथ में चिपचिपा पदार्थ अवश्य मिलाऐं। |
बीमारी के नाम | लक्षण एवं नुकसान | प्रबंधन |
सिगाटोका लीफ स्पाट | यह केले में लगने वाली एक प्रमुख बीमारी है इसके प्रकोप से पत्ती के साथ साथ घेर के वजन एवं गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शुरू में पत्ती के उपरी सतह पर पीले धब्बे बनना शुरू होते है जो बाद में बड़े भूरे परिपक्व धब्बों में बदल जाते है। | 1. रोपाई के 4-5 महीने के बाद से ही ग्रसित पत्तियों को लगातार काटकर खेत से बाहर जला दें। 2. जल भराव की स्थिति में जल निकास की उचित व्यवस्था करे। 3. खेत को खरपतवार से मुक्त रखें। 4. पहला छिड़काव फफूंदनाशी कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे। दूसरा प्रोपीकोनाजोल 1 मि.ली. 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे एव तीसरा ट्राइडमार्फ 1 ग्राम 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे। |
पत्ती गुच्छारोग | यह एक वायरस जनित बीमारी है पत्तियों का आकार बहुत ही छोटा होकर गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाता है। | 1. ग्रसित पौधों को अविलंब उखाड कर मिट्टी में दबा दें या जला दें। फसल चक्र अपनायें। 2. कन्द को संक्रमण मुक्त खेत से लें। 3. रोगवाहक कीट के नियंत्रण हेतु इमीडाक्लोप्रिड 1 मि. ली. / पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। |
जड़ गलन | इस बीमारी के अंतर्गत पौधे की जड़े गल कर सड़ जाती है एवं बरसात एवं तेज हवा के कारण गिर जाती है। | 1. खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था करें। 2. रोपाई के पहले कन्द को फफूंदनाशी कार्बन्डाजिम 2 ग्राम/लीटर पानी के घाले से उपचारित करे। 3. रोकथाम के लिये काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम 0.2 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन/लीटर पानी की दर से पौधे में ड्रेचिग करें। |
फसल की कटाई एवं कटाई के उपरांत शस्य प्रबंधन
कटाई उपरांत केला की गुणवत्ता मे काफी क्षति होती है क्योकि केला उत्पादन स्थल पर भंडारण की समाप्ति व्यवस्था एवं कूल चेंम्बर की व्यवस्था नही होती है। कूल चेम्बर मे 10-12 0 ब तापक्रम रहने से केला के भार व गुणवत्ता मे हराष नही होता एवं बाजार भाव अच्छा मिलता है। इस विधि मे बहते हुए पानी मे 1 घंटे तक केले को रखा जाता है। भंण्डारण मे केले को दबाकर अथवा ढककर नही रखना चाहिए अन्यथा अधिक गर्मी से फल का रंग खराब हो जाता है। भंडार कक्ष में तापमाकन 10-12 0ब और सापेक्ष आर्द्रता 70 से अधिक ही होनी चाहिए।
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केले की खेती
- परिचय
- किस्में
- खाद एवं उर्वरक
- कीट एवं रोग नियंत्रण
परिचय
हमारे देश के फलों में केले का प्रमुख स्थान है। इसकी खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश में बढ़ती जा रही है। केले का फल पौष्टिक होता है। इसमें शर्करा एवं खनिज लवण जैसे फास्फोरस तथा कैल्शियम प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसकी खेती निम्न बातों को ध्यान में रखकर की जाये तो आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होगा।
भूमि
दोमट भूमि जिसका जल निकास अच्छा हो और भूमि का पी.एच. मान 6 से 7.5 के बीच हो।
गड्ढे की खुदाई
गड्ढे की लम्बाई, चौड़ाई एवं गहराई 60x 60x 60 सें.मी. ।
खुदाई का समय अप्रैल-मई
गड्ढे की भराई
गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी खाद (20-25 कि.ग्रा. या 2-3 टोकरी) तथा 100 ग्राम बी. एच. सी. प्रति गड्ढा, उपरोक्त पदार्थो को गड्ढे की ऊपर की मिट्टी में मिश्रित करके जमीन की सतह से लगभग 10 सें.मी. ऊँचाई तक भरकर सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी मिश्रण गड्ढे में अच्छी तरह बैठ जाए।
पौधों की दूरी एवं संख्या
पौधों एवं कतार की दूरी 1.5x 1.5 मीटर, 4400 पौधे प्रति हेक्टेयर
लगाने का समय
15 मई से 15 जुलाई
जून का महीना सबसे उपयुक्त है।
किस्में
केले की अनेक किस्में हैं जो इस क्षेत्र में उगायी जा सकती हैं, जैसे – ड्वार्फ कैवेंडिश, रोवस्टा, मालभोग, चिनिया, चम्पा, अल्पान, मुठिया/कुठिया तथा बत्तीसा। इन किस्मों के विषय में कुछ जानकारी नीचे दी जा रही है:
ड्वार्फ कैवेंडिश: यह सबसे प्रचलित एवं पैदावार देने वाली किस्म है। इस पर पनामा उक्ठा नामक रोग का प्रकोप नहीं होता है। इस प्रजाति के पौधे बौने होते हैं व औसतन एक घौंद (गहर) का वजन 22-25 कि.ग्रा. होता है जिसमें 160-170 फलियाँ आती हैं। एक फली का वजन 150-200 ग्रा. होता है। फल पकने पर पीला एवं स्वाद में उत्तम होता है। फल पकने के बाद जल्दी खराब होने लगता है।
रोवेस्टा: इस किस्म का पौधा लम्बाई में ड्वार्फ कैवेंडिश से ऊँचा होता है और इसकी घौंद या गहर का वजन अपेक्षाकृत अधिक और सुडौल होता है। यह किस्म प्रर्वचित्ती रोग से अधिक प्रभावित होती है। परन्तु पनामा उकठा के प्रति पूर्णतया प्रतिरोधी है।
मालभोग: यह जाति अपने लुभावने रंग, सुगंध एवं स्वाद के लिये लोगों को प्रिय हैं। लेकिन पनामा उक्ठा रोग के प्रकोप से फसल को हानि होती है। इनके पौधे बड़े होते हैं। फल का आकार मध्यम और उपज औसतन होती है।
चिनिया चम्पा: यह भी खाने योग्य स्वादिष्ट किस्म हिया जिसके पौधे बड़े किन्तु फल छोटे होते हैं। इस किस्म को परिवार्षिक फसल के रूप में उगाया जाता है।
अल्पान: यह वैशाली क्षेत्र में उगाये जाने वाली मुख्य किस्म है। इस जाति के पौधे बड़े होते हैं जिसपर लम्बी घौंद लगती है। फल एक आकार छोटा होता है। फल पकने पर पीले एवं स्वादिष्ट होते हैं जिसे कुछ समय के लिये बिना खराब हुए रखा जा सकता है।
मुठिया/कुठिया: यह सख्त किस्म है। इसकी उपज जल के अभाव में भी औसतन अच्छी होती है। फल मध्यम आकार के होते है जिनका उपयोग कच्ची अवस्था में सब्जी हेतु एवं पकने पर खाने के लिये किया जाता है। फल एक स्वाद साधारण होता है।
बत्तीसा: यह किस्म सब्जी के लिये काफी प्रचलित है जिसकी घौंद लम्बी होती है और एक गहर में 250-300 तक फलियाँ आती हैं।
पुत्तियों का चुनाव
2-3 माह पुरानी, तलवारनुमा पुत्तियाँ हों
टीसू कल्चर से प्रवर्धित पौधे रोपण के लिए सर्वोत्तम होते हैं क्योंकि इनमें फलत शीघ्र तथा समय पर होती है।
खाद एवं उर्वरक
300 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष नाइट्रोजन को पाँच, फास्फोरस को दो तथा पोटाश को तीन भागों में बाँट कर देना चाहिए।
जिसका विवरण निम्नवत है –
पौध रोपण के समय : फास्फोरस 50 ग्राम
पौध रोपण के एक माह बाद : नाइट्रोजन 60 ग्राम
पौध रोपण के दो माह बाद : नाइट्रोजन (60 ग्राम) +फास्फोरस (50 ग्रा.) +पोटाश (100 ग्रा.)
पौध रोपण के तीन माह बाद : नाइट्रोजन (60 ग्रा.) + पोटाश (100 ग्रा.)
फूल आने के दो माह पहले : नाइट्रोजन 60 ग्राम
फूल आने के एक माह पहले : नाइट्रोजन (60 ग्रा.) + पोटाश (100 ग्रा.)
खाद एवं उर्वरक को पौधे के मुख्य तने से 10-15 सें.मी. की दूरी पर चारों तरफ गुड़ाई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए और पौधे की तुरन्त सिंचाई कर देनी चाहिए।
सिंचाई
सामान्यतया बरसात में (जुलाई-सितम्बर) सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। गर्मियों में (मार्च से जून तक) सिंचाई 5-6 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। सर्दियों में (अक्टूबर से फरवरी तक) 12-13 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।
अवरोध परत (मल्चिंग)
पौधों के नीचे पुआल अथवा गन्ने की पत्ती की 8 सें.मी. मोटी परत अक्टूबर माह में बिछा देनी चाहिए। इससे सिंचाई की संख्या में 40 प्रतिशत की कमी हो जाती है, खर पतवार नहीं उगते तथा उपज एवं भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ जाती है।
पुत्ती निकलना
पौधे के बगल से निकलने वाली पुत्तियों को 20 सें.मी. तक वृद्धि करने के पहले ही भूमि की सतह से काट कर निकालते रहना चाहिए। मई-जून के महीन में एक पुत्ती हर पौधे के पास अगले वर्ष पेड़ी की फसल के लिए छोड़ देना चाहिए।
नर फूल से गुच्छे काटना
फल टिकाव हो जाने पर घार के अगले भाग पर लटकते नर फूल के गुच्छे को काट देना चाहिए।
सहारा देना
घार निकलते समय बांस/बल्ली की कैंची बनाकर पौधों को दो तरफ से सहारा देना चाहिए।
मिट्टी चढ़ाना
बरसात से पहले एक पंक्ति के सभी पौधों को दोनों तरफ से मिट्टी चढ़ाकर बांध देना चाहिए।
कीट एवं रोग नियंत्रण
पत्ती विटिल: यह कीट कोमल पत्तों तथा ताजे बने फलों के छिलके को खाता है। प्रकोप अप्रैल-मई प्रारम्भ होकर सितम्बर-अक्टूबर तक रहता है। रोकथाम के लिए इन्ड़ोसल्फान 2 मि.ली. अथवा कार्वरिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर पहला छिड़काव फूल आने के तुरन्त बाद तथा दूसरा इसके 15 दिन बाद करना चाहिए।
केले का घुन (बनाना विविल): इस कीट के प्रौढ़ तथा सुंडियां दोनों हानिकारक होते हैं। इसका प्रकोप बरसात में अधिक होता है। भूमि सतह के पास तने अथवा प्रकन्द में छेद बनाकर मादा अंडे देती है। इनसे सुंडियां निकलकर तने में छेद करके खाती रहती हैं। इसके फलस्वरूप सड़न पैदा हो जाती है तथा पौधा कमजोर होकर गिर जाता है।
इसकी रोकथाम हेतु
(क) स्वस्थ कंद लगाने चाहिए।
(ख) कंदों को लगाने से पहले साफ करके एक मि.ली. फास्फेमिडान अथवा 1.5 मि.ली. मोनोक्रोटोफास प्रति लीटर पानी के बने घोल में 12 घंटे तक डुबों कर उपचारित कर लेना चाहिए।
(ग) अधिक प्रकोप होने पर एक मि.ली. फास्फेमिडान प्रति 3 लीटर पानी अथवा डाईमेथियोयेट 1.0 मि.ली. अथवा आक्सीडीमेटान मिथाइल 1.25 मि.ली. का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर 15-20 दिन बाद यह छिड़काव दुबारा कर देना चाहिए।
पनामा बिल्ट: यह कवक के कारण होता है। इसके प्रकोप से पौधे की पत्तियाँ पीली पड़कर डंठल के पास से नीचे झुक जाती है। अंत में पूरा पौधा सूख जाता है। रोकथाम के लिए बावेस्टीन के 1.5 मि.ग्रा. प्रति ली. पानी के घोल से पौधों के चारों तरफ की मिट्टी को 20 दिन के अंतर से दो बार तर कर देना चाहिए।
तना गलन (सूडोहर्ट राट): यह रोग फफूंदी के कारण होता है। इसके प्रकोप से निकलने वाली नई पत्ती काली पड़कर सड़ने लगती है। इससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है और पौधा पीला पड़कर सूखने लगता है। रोकथाम हेतु डाइथेन एम. – 45 के 2 ग्राम अथवा बावेस्टीन के 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल का 2-3 छिड़काव आवश्यकतानुसार 10-15 दिन के अंतर से करना चाहिए।
लीफ स्पाट: यह रोग कवक के कारण होता है। पत्तियों पर पीले भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। पौधा कमजोर हो जाता है तथा बढ़वार रुक जाती है। रोकथाम हेतु डाईथेन एम.-45 के 2 ग्राम अथवा कापर आक्सीक्लोराइड के 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल 2-3 छिड़काव 10-15 दिन के अंतर से करना चाहिए।
बन्चीटाप: यह विषाणु द्वारा होता है तथा माहूँ द्वारा फैलता है। रोगी पौधों की पत्तियाँ छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा फलत नहीं होती है। रोकथाम हेतु प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। अगली फसल के रोपण हेतु रोग प्रभावित बाग़ से पुत्तियाँ नही लेनी चाहिए। माहूँ के नियंत्रण के लिए दैहिक रसायन जैसे डाईमथियोयेट 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी अथवा 1.0 मि.ली. फास्फेमिडान प्रति 3 लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
फलत एवं तोड़ाई
केले में रोपण के लगभग 12 माह बाद फूल आते हैं। इसके लगभग 3 ½ माह बाद घार काटने योग्य हो जाती है। जब फलियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई ले लें तो इन्हें पूर्ण विकसित समझना चाहिए।
उपज
एक हेक्टेयर बाग़ से 60-70 टन उपज प्राप्त की जा सकती है जिससे शुद्ध आय 60-70 हजार तक मिल सकती है।
केले की फसल
- परिचय
- जलवायु एवं भूमि
- प्रजातियाँ
- खेती की तैयारी
- रोपाई हेतु गढढे की तैयारी
- पे़ड़ों की रोपाई
- खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
- सिंचाई का समय
- निराई एवं गुड़ाई
- मल्चिंग
- कटाई छंटाई
- रोगों का नियंत्रण
- कीट नियंत्रण
- तैयार फल की कटाई
- पकाने की विधि
- उत्पादन
परिचय
केला भारत वर्ष का प्राचीनतम स्वादिष्ट पौष्टिक पाचक एवं लोकप्रीय फल है अपने देश में प्राय:हर गाँव में केले के पेड़ पाए जातेहै इसमे शर्करा एवं खनिज लवण जैसे कैल्सियम तथा फास्फोरस प्रचुर मात्रा में पाए जाता हैI फलों का उपयोग पकने पर खाने हेतु कच्चा सब्जी बनाने के आलावा आटा बनाने तथा चिप्स बनाने के कम आते हैI इसकी खेती लगभग पूरे भारत वर्ष में की जाती हैI
जलवायु एवं भूमि
केला की खेती के लिए किस प्रकार की जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता होती है?
गर्मतर एवं सम जलवायु केला की खेती के लिए उत्तम होती है अधिक वर्षा वाले क्षेत्रो में केला की खेती सफल रहती है जीवांश युक्त दोमट एवम मटियार दोमट भूमि ,जिससे जल निकास उत्तम हो उपयुक्त मानी जाती है भूमि का पी एच मान 6-7.5 तक इसकी खेती के लिए उपयुक्त होता हैI
प्रजातियाँ
कौन कौन सी प्रजातियाँ है जिनका इस्तेमाल हम केले की खेती करते वक्त करे?
उन्नतशील प्रजातियाँ केले की दो प्रकार की पाई जाती है फल खाने वाली किस्स्मो में गूदा मुलायम, मीठा तथा स्टार्च रहित सुवासित होता है जैसे कि बसराई,ड्वार्फ ,हरी छाल,सालभोग,अल्पान,रोवस्ट तथा पुवन इत्यादि प्रजातियाँ है दूसरा है सब्जी बनाने वाली इन किस्मों में गुदा कडा स्टार्च युक्त तथा फल मोटे होते है जैसे कोठिया,बत्तीसा, मुनथन एवं कैम्पिरगंज हैI
खेती की तैयारी
खेत की तैयारी कैसी होनी चाहिए व किस प्रकार करें?
खेत की तैयारी समतल खेत को 4-5 गहरी जुताई करके भुर भूरा बना लेना चाहिए उत्तर प्रदेश में मई माह में खेत की तैयारी कर लेनी चाहिए इसके बाद समतल खेत में लाइनों में गढढे तैयार करके रोपाई की जाती हैI
रोपाई हेतु गढढे की तैयारी
केला की रोपाई हेतु गढढे किस प्रकार से तैयार किए जाते हैI
खेत की तैयारी के बाद लाइनों में गढढे किस्मो के आधार पर बनाए जाते है जैसे हरी छाल के लिए 1.5 मीटर लम्बा 1.5 मीटर चौड़ा के तथा सब्जी के लिए 2-3 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर लम्बा 50 सेंटीमीटर चौड़ा 50 सेंटीमीटर गहरा गढढे मई के माह में खोदकर डाल दिये जाते है 15-20 दिन खुला छोड़ दिया जाता है जिससे धूप आदि अच्छी तरह लग जाए इसके बाद 20-25 किग्रा गोबर की खाद 50 ई.सी. क्लोरोपाइरीफास 3 मिली० एवं 5 लीटर पानी तथा आवश्यकतानुसार ऊपर की मिट्टी के साथ मिलाकर गढढे को भर देना चाहिए गढ़ढो में पानी लगा देना चाहिएI
पे़ड़ों की रोपाई
केले के पेड़ो की रोपाई किस प्रकार की जाती है?
पौध रोपण में केले का रोपण पुत्तियों द्वारा किया जाता है, तीन माह की तलवार नुमा पुत्तियाँ जिनमे घनकन्द पूर्ण विकसित हो का प्रयोग किया जाता है पुत्तियो का रोपण 15-30 जून तक किया जाता है इन पुत्तियो की पत्तियां काटकर रोपाई तैयार गढ़ढो में करनी चाहिए रोपाई के बाद पानी लगाना आवश्यक हैI
खाद एवं उर्वरक का प्रयोग
केले की खेती के लिए किस प्रकार की खाद एवं उर्वरक का प्रयोग हमें करना चाहिए और कितनी मात्रा में करना चाहिए इस बारे में बताये?
भूमि के उर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है फास्फोरस की आधी मात्रा पौध रोपण के समय तथा शेष आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए नत्रजन की पूरी मात्रा ५ भागो में बाँटकर अगस्त, सितम्बर ,अक्टूबर तथा फरवरी एवं अप्रैल में देनी चाहिए पोटाश की पूरी मात्रा तीन भागो में बाँटकर सितम्बर ,अक्टूबर एवं अप्रैल में देना चाहिएI
सिंचाई का समय
केले की खेती में सिचाई का सही समय क्या है और किस प्रकार सिचाई करनी चाहिए?
केले के बाग में नमी बनी रहनी चाहिए पौध रोपण के बाद सिचाई करना अति आवश्यक है आवश्यकतानुसार ग्रीष्म ऋतु 7 से 10 दिन के तथा शीतकाल में 12 से 15 दिन अक्टूबर से फरवरी तक के अन्तराल पर सिचाई करते रहना चाहिए मार्च से जून तक यदि केले के थालो पर पुवाल गन्ने की पत्ती अथवा पालीथीन आदि के बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है, सिचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती हैI
निराई एवं गुड़ाई
केला की खेती में निराई गुड़ाई का सही समय क्या है और किस प्रकार करनी चाहिए?
केले की फसल के खेत को स्वच्छ रखने के लिए आवश्यकतानुसार निराई गुड़ाई करते रहना चाहिए पौधों को हवा एवं धूप आदि अच्छी तरह से निराई गुड़ाई करने पर मिलता रहता है जिससे फसल अच्छी तरह से चलती है और फल अच्छे आते हैI
मल्चिंग
केले की खेती में मल्चिंग कब और किस प्रकार करनी चाहिए?
केले के खेत में प्रयाप्त नमी बनी रहनी चाहिए, केले के थाले में पुवाल अथवा गन्ने की पत्ती की 8 से 10 सेमी० मोटी पर्त बिछा देनी चाहिए इससे सिचाई कम करनी पड़ती है खरपतवार भी कम या नहीं उगते है भूमि की उर्वरता शक्ति बढ़ जाती है साथ ही साथ उपज भी बढ़ जाती है तथा फूल एवं फल एक साथ आ जाते हैI
कटाई छंटाई
केले की कटाई छटाई और सहारा देना कब शुरू करना चाहिए और कैसे करना चाहिए?
केले के रोपण के दो माह के अन्दर ही बगल से नई पुत्तियाँ निकल आती है इन पुत्तियों को समय - समय पर काटकर निकलते रहना चाहिए रोपण के दो माह बाद मिट्टी से 30 सेमी० व्यास की 25 सेमी० ऊँचा चबूतरा नुमा आकृति बना देनी चाहिए इससे पौधे को सहारा मिल जाता है साथ ही बांसों को कैची बना कर पौधों को दोनों तरफ से सहारा देना चाहिए जिससे की पौधे गिर न सकेI
रोगों का नियंत्रण
केले की खेती में फसल सुरक्षा हेतु रोगों का नियंत्रण कैसे करते रहना चाहिए और इसमे कौन कौन से रोग लगने की संभावना रहती है?
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते है जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट ,गुच्छा शीर्ष या बन्ची टाप,एन्थ्रक्नोज एवं तनागलन हर्टराट आदि लगते है नियंत्रण के लिए ताम्र युक्त रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3% का छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिएI
कीट नियंत्रण
केले की खेती में कौन कौन से कीट लगते है और उसका नियंत्रण हम किस प्रकार करे?
केले में कई कीट लगते है जैसे केले का पत्ती बीटिल (बनाना बीटिल),तना बीटिल आदि लगते है नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ -डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिली० प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिएI या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करना चाहिएI
तैयार फल की कटाई
केला तैयार होने पर उसकी कटाई किस प्रकार करनी चाहिए?
केले में फूल निकलने के बाद लगभग 25-30 दिन में फलियाँ निकल आती है पूरी फलियाँ निकलने के बाद घार के अगले भाग से नर फूल काट देना चाहिए और पूरी फलियाँ निकलने के बाद 100 -140 दिन बाद फल तैयार हो जाते है जब फलियाँ की चारो घरियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई लेकर पीली होने लगे तो फल पूर्ण विकसित होकर पकने लगते है इस दशा पर तेज धार वाले चाकू आदि के द्वारा घार को काटकर पौधे से अलग कर लेना चाहिएI
पकाने की विधि
केला की कटाई करने के बाद जो घार के फल होते है उनको पकाने की क्या विधि है किस प्रकार पकाया जाता है?
केले को पकाने के लिए घार को किसी बन्द कमरे में रखकर केले की पत्तियों से ढक देते है एक कोने में उपले अथवा अगीठी जलाकर रख देते है और कमरे को मिट्टी से सील बन्द कर देते है यह लगभग 48 से 72 घण्टे में कमरें केला पककर तैयार हो जाता हैI
उत्पादन
केला की खेती से प्रति हेक्टेयर कितनी पैदावार यानी की उपज प्राप्त कर सकते है?
सभी तकनीकी तरीके अपनाने से की गई केले की खेती से 300 से 400 कुन्तल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
1. म.प्र. में केला का कुल क्षेत्रफल लगभग 26.02 हजार हेक्टर , उत्पादन 1448.13 टन एवं उत्पादकता 55.65 (APEDA। 2012..13)टन हेक्टर | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
जलवायु और भूमि | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. केले की बागवानी के लिये उर्वर भूमि की आवश्यकता होती है। 5.5 से 8.5 पी.एच. मान वाली भूमि में की जा सकती है, परन्तु अच्छी वृद्धि, फल के विकास एवं अच्छे उत्पादन के लिये 6.0 से 7.0 पी.एच. मान वाली मिट्टी सबसे उपयुक्त है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
गुणवत्ता युक्त अधिक उपज हेतु मुख्य उत्पादन तकनीक | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनुशासित प्रजाति का चुनाव गुणवत्ता युक्त पौध / प्रकंद का चुनाव | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रकंद का उपचार | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. सकर्स की अच्छी सफाई कर रोपाई पूर्व कार्बेन्डिाजिम (0.1:), + इमिडाक्लोरोप्रिड (0.05.:) के जलीय घोल में लगभग 30 मिनट तक डालकर शोधन करते है। तत्पश्चात सकर्स को एक दिन तक छाया में सुखाकर रोपाई करें। 2. टिशु कल्चर पौध की रोपाई से एक सप्ताह पूर्व 1:कार्बोफ्यूरान एवं 1 प्रतिशत ब्लीचिंग पावडर का घोल बनाकर पोलीथिन बेग में छिडकाव करें। जिससे निमेटोड एवं बैक्टरियल राट जैसी बिमारीयों से बचा जा सकें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनुशंसित दूरी एवं उचित पौध संख्या | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनुशंसित समय पर रोपाई अनुशंसित खाद एवं उर्वरक उर्वरक देने हेतु निम्न विकल्पों का उपयोग किया जा सकता है ।
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उर्वरक देने की विधि - | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खेत के तैयारी के समय गोबर/कम्पोस्ट की मात्रा - 25 टन प्रति हेक्टर एवं पौध लगाते समय 15 कि.ग्रा. गोबर की खाद प्रति पौधा, कार्बोक्यूरान 25 ग्राम एवं स्फुर व पोटाश की आधारिय मात्रा देकर ही रोपाई करे। उर्वरक हमेशा पौधे से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर रिंग बनाकर नमी की उपस्थिति में व्यवहार कर मिट्टी में मिला दें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
उर्वरक तालिका - | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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केले में फर्टीगेशन द्वारा अनुशंसित उर्वरकों की मात्रा | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मात्रा / पौधा (ग्राम) : 170 ग्राम नाइट्रोजन 45 ग्राम स्फुर 200 ग्राम पोटाश
उपरोक्त उर्वरक के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व 10 ग्राम प्रति पौधा एवं मैग्नीशियम सल्फेट 25 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के 75 दिन बाद फर्टीगेशन द्वारा दें। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
खरपतवार प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
केले की फसल को 90 दिन तक खरपतवार से मुक्त रखें। इसके प्रबंधन हेतु यांत्रिक विधियों जैसे बख्खर एवं 15 दिन के अंतराल पर डोरा चलाने से फसल वृद्धि एवं उत्पादकता में अनुकूल प्रभाव पड़ता है। केले में अन्र्तवर्ती फसल राज्य मे केले के किसान इस फसल को एकाकी फसल के रूप मे ही करते चले आ रहे है लेकीन आज बदले हुए विपरित स्थिती मे केला कृषको को अपने खेती के परम्परागत तरीको मे बदलाव लाने की जरूरत है। केला उत्पादकों का उत्पादन लागत बढ़ती जा रहा है। केले के साथ अन्र्तवर्ती खेती कर लागत को कम किया जा सकता है। मृग बहार - मृग बहार मे मूंग, ग्रीष्म कालीन कटुआ धनिया, चैलाफली, टमाटर, सागवाली फसल लेना चाहिए परन्तु ध्यान रखा जावे कि कृषक के पास पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध हो, फसले केले की जड से 9 इंच से 1 फीट की दूरी पर बोई जाये। कांदा बहार -इस मौसम मे पालक, मेथी, सलाद, आलू, प्याज, टमाटर, मटर, धनिया, मक्का, गाजर, मूली, बैगन की फसल ली जा सकती है। इन्हें अतिरिक्त पोषक तत्व देना जरूरी रहता है। मौसमी फूल भी उगाये जा सकते है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
सिंचाई प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पानी की आवश्यकता प्रति पौधा प्रति दिन (लीटर) फसल चक्र | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
विशेष शस्य क्रियाएँ | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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पौध संरक्षण | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
लू से बचाव - गर्मी के दिनो में लू से बचाव के लिए खेत के चारो तरफ बागड वायु अवरोधक के रूप मे लगाना चाहिए, इसके लिए उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे ढैंचा की दो कतार लगाते है। जिससे फसल को अधिक तापमान एवं लू से बचाया जा सकता है।
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कीट प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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फसल की कटाई एवं कटाई के उपरांत शस्य प्रबंधन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भण्डारण - कटाई उपरांत केला की गुणवत्ता मे काफी क्षति होती है क्योकि केला उत्पादन स्थल पर भंडारण की समाप्ति व्यवस्था एवं कूल चेंम्बर की व्यवस्था नही होती है। कूल चेम्बर मे 10-12 0 ब तापक्रम रहने से केला के भार व गुणवत्ता मे हराष नही होता एवं बाजार भाव अच्छा मिलता है। इस विधि मे बहते हुए पानी मे 1 घंटे तक केले को रखा जाता है। भंण्डारण मे केले को दबाकर अथवा ढककर नही रखना चाहिए अन्यथा अधिक गर्मी से फल का रंग खराब हो जाता है। भंडार कक्ष में तापमाकन 10-12 0ब और सापेक्ष आर्द्रता 70 से अधिक ही होनी चाहिए। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
निर्यात के लिए डिहेडिंग वाशिंग एवं फफूंदनाशक दवाओं से उपचार | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्राय: स्थानीय बाजार मे विक्रय के लिए गुच्छा परिवहन किया जाता है, परन्तु निर्यात के लिए हैण्ड को बंच से पृथक करते है, क्योकि इसमे सं क्षतिग्रस्त एवं अविकसित फल को प्रथक कर दिया जाता है। चयनित बड़े हैण्डस को 10 पीपीएम क्लोरीन क घोल मे धोया जाता है फिर 500 पीपीएम बेनोमिल घोल में 2 मिनट तक उपचारित किया जाता है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पैकिंग एवं परिवहन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
निर्यात हेतु प्रत्येक हैण्ड को एच.एम.एच, डीपीआई बैग में पैककर सीएफबी 13-20 किलो प्रति बाक्स की दर से भरकर रखा जाता है। ट्रक अथवा वेन्टिीलेटेड रेल बैगन मे 150ब तापक्रम पर परिवहन किया जाता है। जिससे फल की गुणवत्ता खराब नही होती है। उपज- जून जुलाई रोपण वाली फसल की उपज 70-75 टन प्रति हेक्टेयर एवं अक्टूबर से नवम्बर में रोपित फसल की औसत उपज 50 से 55 टन प्रति हेक्टेयर होती है। केला प्रसंस्करण - केले के फल से प्रसंस्करित पदार्थ जैसे केला चिप्स, पापड़, अचार, आटा, सिरका, जूस, जैम इल्यादि बना सकते है। इसके अलावा केले के तने से अच्छे किस्म के रेशे द्वारा साड़ियाँ, बैग, रस्सी एवं हस्त सिल्क के माध्यम से रोजगार सृजन किया जा सकता है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आय व्यय तालिका (मुख्य फसल) प्रति एकड़ | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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केले की खेती के मुख्य बिंदु | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. टिश्यू कल्चर केले की खेती को बढ़ावा देना अदरक की खेती(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है) जौ(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है) |
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