मेंथा की खेती

मेंथा की खेती

मेंथा की खेती





  1. जायद की प्रमुख फसल

  2. भूमि एवं भूमि की तैयारी

  3. संस्तुत प्रजातियाँ

  4. जड़ों को पौधशाला में लगाने का समय

  5. बुवाई/रोपाई का समय

  6. भूस्तरियो (सकर्स) का शोधन

  7. बुवाई की विधि

  8. उर्वरक की मात्रा

  9. सिंचाई एवं खरपतवार नियंत्रण

  10. फसल सुरक्षा

    1. दीमक

    2. बालदार सूंड़ी

    3. पत्ती लपेटक कीट

    4. रोग जड़गलन

    5. पर्णदाग



  11. कटाई

  12. उपज

  13. प्रभावी बिन्दु





मेंथा की खेती के लिए मिट्टी पलटने वाले कृषि उपकरण से कम से कम एक बार गहरी जुताई करें और इसी के साथ 250 से 300 क्वंटल प्रति हेक्टेयर गोबर या कंपोस्ट की खाद खेत में मिलाएं. इसके बाद दो या तीन बार कल्टीवेटर से जुताई करें और हर बार जुताई के बाद पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा कर लें.








जायद की प्रमुख फसल


मेंथा की खेती बदायूं, रामपुर, मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, बाराबंकी, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, लखनऊ आदि जिलों में किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर की जाती है। विगत कुछ वर्षों से मेंथा इन जिलों में जायद की प्रमुख फसल के रूप में अपना स्थान बना रही है। इसके तेल का उपयोग सुगन्ध के लिए व औषधि बनाने में किया जाता है।

भूमि एवं भूमि की तैयारी


मेंथा की खेती क लिए पर्याप्त जीवांश अच्छी जल निकास वाली पी. .एच. मान 6-7.5 वाली बलुई दोमट व मटियारी दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। खेत की अच्छी तरह से जुताई करके भूमि को समतल बना लेते हैं। मेंथा की रोपाई के तुरन्त बाद में खेत में हल्का पानी लगाते हैं जिसके कारण मेन्था की पौध ठीक लग जाये।

संस्तुत प्रजातियाँ



  1. मेन्था स्पाइकाटा एम.एस.एस.-1 (देशी पोदीना)

  2. कोसा (समय व देर से रोपाई हेतु उत्तम) (जापानी पोदीना)

  3. हिमालय गोमती (एम.ए.एच.-9)एम.एस.एस.-1 एच०वाई-77

  4. मेन्था पिप्रेटा-कुकरैल


जड़ों को पौधशाला में लगाने का समय


मेन्था की जड़ों की बुवाई अगस्त माह में नर्सरी में कर देते हैं। नर्सरी को ऊँचे स्थान में बनाते है ताकि इसे जलभराव से रोका जा सके। अधिक वर्षा हो जाने पर जल का निकास करना चाहिए।

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बुवाई/रोपाई का समय


समय से मेन्था की जड़ों की बुवाई का उचति समय 15 जनवरी से 15 फरवरी है। देर से बुवाई करने पर तेल की मात्रा कम हो जाती है व कम उपज मिलती है। देर बुवाई हेतु पौधों को नर्सरी में तैयार करके मार्च से अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक खेत में पौधों की रोपाई अवश्य कर देना चाहिए। विलम्ब से मेंथा की खेती के लिए कोसी प्रजाति का चुनाव करें।

भूस्तरियो (सकर्स) का शोधन


रोपाई के पूर्व भूस्तरियों को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति लीटर पानी के घोल बनाकर 5 मिनट तक डुबोकर शोधित करना चाहिए।

बुवाई की विधि


जापानी मेंथा की रोपाई के लिए लाइन की दूरी 30-40 सेमी. देशी पोदीना 45-60 सेमी. तथा जापानी पोदीना में पौधों से पौधों की दूरी 15 सेमी. रखना चाहिए। जड़ों की रोपाई 3 से 5 सेमी. की गहराई पर कूंड़ों में करना चाहिए। रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। बुवाई/रोपाई हेतु 4-5 कुन्तल जड़ों के 8-10 सेमी. के टुकड़े उपयुक्त होते हैं।

उर्वरक की मात्रा


सामान्यतः उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाना लाभदायक होता है। सामान्य परिस्थितियों में मेंथा की अच्छी उपज के लिए 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन 50-60 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा.पोटाश तथा 20 किग्रा. सल्फर प्रति हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश तथा सल्फर की पूरी मात्रा तथा 30-35 किग्रा. नाइट्रोजन बुवाई/रोपाई से पूर्व कूंड़ों में प्रयोग करना चाहिए। शेष नाइट्रोजन को बुवाई/रोपाई के लगभग 45 दिन, पर 70-80 दिन पर तथा पहली कटाई के 20 दिन पश्चात् देना चाहिए।किडनी बीन (राजमा)(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

सिंचाई एवं खरपतवार नियंत्रण


मेंथा में सिंचाई भूमि की किस्म तापमान तथा हवाओं की तीव्रता पर निर्भर करती है। मेंथा में पहली सिंचाई बुवाई/रोपाई के तुरन्त बाद कर देना चाहिए। इसके पश्चात् 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए व प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करना आवश्यक है। खरपतवार नियंत्रण रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथलीन 30 ई.सी. के 3.3 लीटर प्रति हे. को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई/रोपाई के पश्चात् ओट आने पर यथाशीघ्र छिड़काव करें।

फसल सुरक्षा


कीट

दीमक


दीमक जड़ों को क्षति पहुंचाती है, फलस्वरूप जमाव पर बुरा असर पड़ता है। बाद में प्रकोप होने पर पौधें सूख जाते है। खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरपाइरीफास 2.5 लीटर प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें।

बालदार सूंड़ी


यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है और पत्तियों को खाती है। जिससे तेल की प्रतिशत मात्रा कम हो जाती है। इस कीट से फसल की सुरक्षा के लिए डाइकलोर वास 500 मिली. या फेनवेलरेट 750 मिली. प्रति हे. की दर से 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। झुन्ड में दिये गये अण्डों एवं प्रारम्भिक अवस्था में झुण्ड में खा रही सूंड़ियों को इक्कठा कर नष्ट कर देना चाहिए। पतंगों को प्रकाश से आकर्षित कर मार देना चाहिए।

पत्ती लपेटक कीट


इसकी सूड़ियां पत्तियों को लपेटते हुए खाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हे. की दर से 600-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

रोग जड़गलन


इस रोग में जड़े काली पड़ जाती है। जड़ों पर गुलाबी रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। बुवाई/रोपाई से पूर्व भूस्तारियों का शोधन 0.1% कार्बेन्डाजिम से इस रोग का निदान हो जाता है। इसके अतिरिक्त रोगमुक्त भूस्तारियों का प्रयोग करें।

पर्णदाग


पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं। इससे पत्तियां पीली पड़कर गिरने लगती हैं। इस रोग के निदान के लिए मैंकोजेब 75 डब्लू पी नामक फफूंदीनाशक की 2 किग्रा. मात्रा 600-800 लीटर में मिलाकर प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।

कटाई


मेंथा फसल की कटाई प्रायः दो बार की जाती है। पहली कटाई के लगभग 100-120 दिन पर जब पौधों में कलियां आने लगे की जाती है। पौधों की कटाई जमीन की सतह से 4-5 सेमी. ऊॅंचाई पर करनी चाहिए। दूसरी कटाई, पहली कटाई के लगभग 70-80 दिन पर करें। कटाई के बाद पौधों को 2-3 घन्टे तक खुली धूप में छोड़ दें तत्पश्चात् कटी फसल को छाया में हल्का सुखाकर जल्दी आसवन विधि द्वारा यंत्र से तेल निकाल लें।

उपज


दो कटाइयों में लगभग 250-300 कुन्तल शाक या 125-150 किग्रा. तेल प्रति हे. प्राप्त होता है।

प्रभावी बिन्दु


फास्फोरस के लिए सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग करें अथवा डी.ए.पी. के साथ 200-250 किग्रा. जिप्सम प्रति हे. की दर से प्रयोग कर तेल की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। जड़ों को शोधित करके ही बुवाई/रोपाई करें।


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मेंथा की नई तकनीक से बुवाई संबंधित जानकारी  


भारत के किसान प्राचीन काल से ही पारंपरिक फसलों की ही खेती करते आ रहे हैं। पारंपरिक फसलों  से किसानों को औसत मुनाफा ही होता हैं। जिससे भारतीय किसानों की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है। कृषि विभाग द्वारा किसानों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए निरंतर प्रयास किए जाते हैं। कृषि विभाग के इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि पिछले कुछ सालों से देश का किसान जागरूक हुआ हैं। देश के किसानों ने पारंपरिक फसलों की खेती के साथ-साथ पिछले कुछ सालों से औषधीय फसलों की खेती में भी अपनी रूचि दिखाई है। हमारे देश के कई किसान वर्तमान में औषधीय पौधों की खेतीकर अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। वैसे तो हमारे देश में कई दशकों से औषधीय पौधों की खेती होती आ रही हैं। क्योंकि इन औषधीय पौधों का इस्तेमाल कई तरह की गंभीर बीमारियों के औषधी निर्माण में होता हैं। जिस वहज से इन औषधीय पौधों की मांग हमेशा बाजारों में अधिक बनी रहती हैं। इसी प्रकार की एक औषधीय फसल है मेंथा, जिसकी खेती कर किसान मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। मेंथा की खेती वैसे तो पूरे भारत में की जाती हैं, लेकिन इसकी खेती भारत में मुख्य रूप से राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात और पंजाब आदि राज्यों में विस्तारित रूप से की जाती हैं। पूरी दुनिया में मेंथा से निकले तेल की खपत लगभग 9500 मीट्रिक टन हैं। मेंथा तेल उत्पादन में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है। मेंथा तेल एक हजार रूपए प्रति लीटर से अधिक के दाम पर बिकता है। यहीं कारण है कि मेंथा की खेती करने वाले किसानों को मोटा मुनाफा हो रहा हैं। अगर आप भी इसकी खेती से मोटा मुनाफा कमाना चाहते हैं, तो ट्रैक्टर गुरू की इस पोस्ट में आपको मेंथा की खेती से संबंधित संपूर्ण जानकारी एवं इसकी खेती से होने वाले लाभ की जानकारी दी जा रही है।

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मेंथा (पुदीना) का परिचय


मेंथा (पुदीना) वंश से संबंधित एक बारहमासी, खुशबूदार औषधीय जड़ी हैं। अंग्रेजी में इसे मिन्ट (जापानीज मिन्ट) के नाम से जाना जाता है। मेंथा का वैज्ञानिक नाम मेंथा आरवैन्सिस हैं। इसकी विभिन्न प्रजातियां यूरोप, अमेरिका, एशिया, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया में पाई जाती हैं। मेंथा का उद्भव भूमध्यसागरीय बेसिन में हुआ तथा वहां से ये प्राकृतिक तथा अन्य तरीकों से संसार के अन्य हिस्सों में फैला। जापानी पोदीना, ब्राजील, पैरागुए, चीन, अर्जेन्टिना, जापान, थाईलैंड, अंगोला, तथा भारतवर्ष में उगाया जा रहा है। मेंथा के अंदर कई पोषक तत्व पाए जाते हैं जैसे कि ऊर्जा, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, नियासिन, विटामिन ए, विटामिन सी, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीशियम और कैल्शियम आदि। मेंथा की ताजी पत्ती में 0.4 से 0.6 प्रतिशत तेल होता है। तेल का मुख्य घटक मेन्थोल 65 से 75 प्रतिशत, मेन्थोन 7 से 10 प्रतिशत तथा मेन्थाइल एसीटेट 12 से 15 प्रतिशत तथा टरपीन पिपीन, लिकोनीन तथा कम्फीन हैं। तेल का मेन्थोल प्रतिशत, वातावरण के प्रकार पर भी निर्भर करता है। सामान्यतः यह गर्म क्षेत्रों में अधिक होता हैं। इस पौधे के पूरे भाग से औषधियां बनाई जाती है।

मेंथा का उपयोग


मेंथा कई पोषक तत्वों से भरपूर एक औषधीय पौधा हैं। इसके पौधे के पूरे भाग में औषधीय गुण मिलता है, इसी कारण इसका उपयोग कई औषधी निर्माण में किया जाता हैं। मेंथा की पत्तियों में तेल होता है। साथ ही इसमें मेन्थोन भी पाया जाता है। इस मेन्थोल का उपयोग बड़ी मात्रा में दवाईयों, सौंदर्य प्रसाधनों, कालफेक्शनरी, पेय पदार्थो, सिगरेट, पान मसाला आदि में खुशबू हेतु किया जाता हैं। इसके अलावा इसका तेल यूकेलिप्टस के तेल के साथ कई रोगों में काम आता है। ये कभी-कभी गैस दूर करने के लिए, दर्द निवारण हेतु तथा गठिया आदि में भी उपयोग किया जाता है। त्वचा पर हो रही लगातार खुजली से छुटकारा पाने के मेन्थाल का तेल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

मेंथा से प्राप्त तेल एवं उससे होने वाली कमाई


मेंथा की खेती किसान भाई नकदी फसल के रूप में करते हैं। मेंथा की खेती में सबसे अच्छी बात यह है कि इसकी खेती में लागत काफी कम आती है और इसकी सफल 90 से 110 दिन में तैयार हो जाती है। इस कारण किसानों को जल्द ही खेती में किए गए खर्च का पैसा मोटे मुनाफे के रूप में वापस मिल जाता है। वर्तमान में कई किसान मेंथा की खेती स्वतंत्र रूप से या कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर कर रहे हैं। किसानों को इसकी स्वतंत्र रूप से खेती करने में ज्यादा फायदा होता है, क्योंकि किसान मेंथा के पत्ते को नहीं बल्कि उससे तेल निकालकर सीधे बाजार में बेचते हैं। वर्तमान में मेथा का तेल एक हजार रूपए से भी अधिक भाव में बिक रहा हैं। मेंथा की एक हेक्टेयर में की गई खेती से 150 किलोग्राम तक तेल निकलता है। अगर इसकी खेती वैज्ञानिक तरीके से समय पर रोपाई, सिंचाई और उर्वरकों के इस्तेमाल से की जाये तो इसके तेल का उत्पादन 250 से 300 किलोग्राम तक प्राप्त किया जा सकता है। जिससे किसान को इसकी एक हेक्टेयर खेती से तीन लाख रूपए तक की कमाई आसानी से हो सकती हैं। मेंथा से एक सीजन में होने वाली कमाई किसी भी अन्य फसल से होने वाली कमाई से कई गुना अधिक है।

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मेंथा की उन्नत प्रजातियां


सीएसआईआर - केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान ने पिछले कुछ दशकों में मेंथा की कई उन्नतशील किस्में विकसित की हैं। इनमें सिम सरयू, सिम कोसी, सिम क्रांति किस्में किसान सबसे ज्यादा लगाते हैं। सिम कोसी व सिम-क्रान्ति दोनों किस्में खास करके उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में व्यावसायिक रूप से पिछले कई वर्षों से होती चली आ रही हैं। सिम कोशी, मेंथा प्रजाति की सबसे बेहतरीन किस्म मानी जाती हैं। सिम कोशी मेंथा की इस किस्म से किसान प्रति हेक्टेयर 150 लीटर से 200 किलोग्राम तक तेल प्राप्त कर सकते हैं। इनके अलावा मेंथा की कुछ और भी उन्नत किस्में है जैसें सिम क्रांन्ति, कुशल, कालका, कोसी, हिमालय और गोमती मेंथा की उन्नत प्रजातियाँ हैं। किसान इन उन्नत प्रजातियों को अपनाकर मेंथा की खेती से ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं। इन प्रजातियों से न केवल उत्पादन बढ़ता है, बल्कि किसानों की लागत भी कम लगती हैं।

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मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु व तापमान


मेंथा की खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। लेकिन मेंथा की खेती के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती भारत में तराई क्षेत्रों में भी सफल पाई गई है। ऐसे क्षेत्र विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों जहां पर शीत ऋतु में पाला एवं बर्फ पड़ने की संभावना हो, वह मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त समझी जाती है। जहां पर न्यूनतम तापमान 5 डिग्री सेल्सियस और उच्चतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक जाता है वहां पर भी इसकी खेती आसानी से की जा सकती है।

भूमि एवं भूमि की तैयारी : मेंथा की खेती के लिए गहरी भूमि, बलुई दोमट से दोमट भूमि अच्छी मानी जाती है। भारी मिट्टी मेंथा की खेती के लिए अच्छी नहीं है तथा  इसकी खेती के लिए जीवांश युक्त अच्छी जल निकास वाली भूमि जिसका पी.एच 6.5 से 7 के मध्य हो और साथ ही भूमि में वायु संचार अच्छा होना चाहिए। इसके लिए भूमि का भुरभुरा होना बहुत आवश्यक होता है। मैंथा की खेती के लिए गहरी जुताई की जरूरत होती है। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से कम से कम एक बार जुताई करें। और साथ ही साथ 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद या कंपोस्ट की खाद खेत में डालें। उसके बाद दो या तीन जुताई देसी हल या कल्टीवेटर से करें और पाटा लगाकर भूमि को समतल कर लें।

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मेंथा की जड़ कैसे तैयार की जाती है?


अगर मेंथा के खेत की रोपाई सीधें सकर (जड़) लगाते हैं, तो इसके एक हेक्टेयर के खेत में कुल ढाई से तीन क्विंटल सकर लग जाती हैं। जबकि इसके खेत की रोपाई पौधों के मध्य से की जाए तो इसके एक हेक्टेयर के खेत में एक क्विंटल सकर ही लगती हैं। इसके खेत की रोपाई के लिए सकर से पौधों को तैयार करने के लिए इसमें सबसे पहले नर्सरी तैयार की जाती है। नर्सरी तैयार करने के लिए सबसे पहले किसान मेंथा की जड़ लेकर, उसको छोटा-छोटा काट लें। फिर उसे जूट के बोरे में दो-तीन दिनों के लिए रख देंगे, ताकि जड़ें विकसित हो जाएं। इसके बाद खेत तैयार करने के बाद पलेवा करके उसमें जड़ें बिखेर देंगे, जिस तरह से धान की नर्सरी तैयार करते हैं। इसके बाद इसे पॉलिथिन शीट से ढंक देते हैं, ताकि अगर तापमान कम भी रहें तो पौधों को गर्मी मिलती रहे। फरवरी महीने में मेंथा की नर्सरी तैयार करते हैं, क्योंकि इस समय तामपान बढ़ने लगता है, तापमान बढ़ने से मेंथा की बढ़वार अच्छी होती है। फरवरी में लगाई गई नर्सरी 20 से 25 दिन में तैयार हो जाती है।

नई तकनीक से बुवाई मेंथा की बुवाई


अभी तक किसान पुराने तरीकों से मेंथा की बुवाई करते आ रहे हैं, जिसमें लागत भी ज्यादा आती थी और उत्पादन भी ज्यादा नहीं मिलता था। नई विधि में सीधे खेत में रोपाई न करके आलू की बुवाई की तरह मेड़ बनायी जाती है। इसमें भी एक मेड़ से दूसरी मेड़ की दूरी 60 सेंटीमीटर रखी जाती है। इसमें एक बात का और ध्यान रखना होता है। फरवरी में मेंथा की रोपाई कर रहे हों तो एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 30 सेमी रखनी चाहिए। मेड़ लगाने का एक और फायदा है, जब खेत की सिंचाई करते हैं तो पानी पौधों की जड़ों तक आसानी से पहुंचता है। इस विधि से मेंथा की बुवाई करने पर किसान दो बार मेंथा की कटाई कर सकते हैं। कई किसान गेहूं की कटाई के बाद अप्रैल में मेंथा की बुवाई करते हैं, इसके लिए लगाने की विधि मार्च महीने की तरह ही होती है, मेड़ से मेड़ की दूरी 60 सेमी ही रखते हैं, लेकिन पौध से पौध की दूरी कम करके 20 से 25 सेमी कर देते हैं। जिससे मेंथा का अच्छा उत्पादन मिल जाता है।

खाद उर्वरक


खेत में उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर किया जाना चाहिए है। सामान्य परिस्थितियों में मेंथा की अच्छी उपज के लिए 120 से 150 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50से 60 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश तथा 20 किलोग्राम सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश तथा सल्फर की पूरी मात्रा तथा 30 से 35 किलोग्राम नाइट्रोजन रोपाई से पूर्व कूंड़ों में प्रयोग करना चाहिए। शेष नाइट्रोजन को रोपाई के लगभग 45 दिन, पर 70 से 80 दिन पर तथा पहली कटाई के 20 दिन पश्चात् देना चाहिए। आवश्यकता के अनुसार जैविक उर्वरक या गोबर की खाद का प्रयोग करें।

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सिंचाई एवं खरपतवार नियंत्रण


मेंथा में सिंचाई भूमि की किस्म, तापमान तथा भूमि की नमी पर निर्भर करती है। मेंथा में पहली सिंचाई रोपाई के तुरन्त बाद कर देना चाहिए। इसके पश्चात् 20 से 25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए व प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करना आवश्यक है। खरपतवार नियंत्रण रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथलीन 30 ई.सी. के 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर रोपाई के पश्चात् खरपतवार आने पर शीघ्र छिड़काव करें। साथ ही   खरपतवार की रोकथाम के लिए प्राकृतिक विधि से तीन समय समय पर निराई करनी चाहिए।आप कैसे कह सकते हैं कि भारतीय कृषि क्षेत्र में भूमि जोत का समेकन एक महत्वपूर्ण संस्थागत सुधार है?(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

मेंथा की फसल सुरक्षा


दीमक : दीमक जड़ों को क्षति पहुंचाती है, फलस्वरूप जमाव पर बुरा असर पड़ता है। दीमक का प्रकोप दिखाई देने पर क्लोरपाइरीफास 2.5 लीटर प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें।

बालदार सूंड़ी : इस कीट से फसल की सुरक्षा के लिए डाइकलोर वास 500 मिली. या फेनवेलरेट 750 मिली. प्रति हे. की दर से 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पत्ती लपेटक कीट: इसकी कीट की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1.0 लीटर प्रति हे. की दर से 600-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

मेंथा रोग


जड़गलन : इस रोग से बचाव के लिए रोपाई से पूर्व मेंथा के पौधों का शोधन 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम से उपचारित करें। इसके अतिरिक्त रोगमुक्त सकर (जड़) का प्रयोग करें।

पर्णदाग : इस रोग के रोकथाम के लिए मैंकोजेब 75 डब्लू पी नामक फफूंदीनाशक की 2 किग्रा. मात्रा 600-800 लीटर में मिलाकर प्रति हे. की दर से छिड़काव करें।

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