आलू की खेती

आलू की खेती

आलू की खेती


 

आलू की जैविक खेती 



  1. आलू कन्द की फसल

  2. अनुमोदित किस्में

  3. भूमि

  4. भूमि की तैयारी

  5. बीज की तैयारी

  6. बिजाई का समय

  7. बीज की मात्रा तथा बिजाई का ढंग

  8. खरपतवारों की रोकथाम

  9. जल प्रबन्ध

  10. घास-पत्तियों का प्रयोग

  11. फसल की खुदाई एवं श्रेणीकरण

  12. पौध संरक्षण

  13. स्थानीय किस्में

  14. पैदावार

  15. बीज वाले आलू का उत्पादन



आलू कन्द की फसल


आलू की फसल हिमाचल प्रदेश की आर्थिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखती है क्योंकि यहां की जलवायु बीज के आलू उत्पादन के लिए अनुकूल है। प्रदेश के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में जहां समशीतोष्ण जलवायु के साथ-साथ तेज हवा और कम आर्द्रता होती है और तेले का प्रकोप भी बहुत कम होता है, रोगमुक्त बीज के आलू पैदा किए जाते हैं। हिमाचल प्रदेश में (2008-09) आलू की खेती लगभग 16.0 हैक्टेयर में की गई तथा 173.73 हजार टन उत्पादन हुआ व उत्पादन 108.58 क्विंटल/हैक्टेयर रहा।

 

अनुमोदित किस्में


कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी ज्योति, आलू-राजमाश /मटर/फ्रांसबीन अंतरा फसल

 

भूमि


अच्छे निकास वाली, उपजाऊ दोमट मिट्टी आलू की फसल के लिए सबसे उत्तम है। यद्यपि अच्छे प्रबंध द्वारा इसे विभिन्न प्रकार की भूमियों में भी उगाया जा सकता है।

आलू की सफल खेती(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

भूमि की तैयारी


एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और 2-3 जुताईयां देसी हल से करनी चाहिए ताकि आलू की फसल के लिए अच्छे खेत बन सके। खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। खेत समतल होना चाहिए ताकि जल निकासी सही हो सके।

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बीज की तैयारी


बिजाई के लिए अच्छे बीज की निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए -

  1. बीज शुद्ध प्रजाति का होना चाहिए।

  2. बीज स्वस्थ, रोग रहित, विषाणु, सूत्रकृमि तथा बैक्टीरिया से मुक्त होना चाहिए।

  3. बीज अंकुरण की सही अवस्था में होना चाहिए।


कन्द के आकार के अनुसार इसे समूचे तथा छोटे टुकड़ों में काटकर बोया जा सकता है। यदि कन्द का आकार बड़ा हो तो इस प्रकार काटें कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम दो आंखे हों और प्रत्येक टुकड़े का भार 30 ग्राम से कम न हो। कटे हुए टुकड़ों को डाईथेन एम-45/इंडोफिल एम-45 (0.05 प्रतिशत) के घोल से उपचार करने से अच्छी फसल व उपज प्राप्त होती है।

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बिजाई का समय


निचले पर्वतीय क्षेत्र (800 मीटर ऊंचाई तक)

  • पतझड़ वाली फसल-  मध्य सितंबर - मध्य अक्तूबर

  • बसंत वाली फसल - जनवरी - फरवरी

  • मध्य पर्वतीय क्षेत्र (800-1600 मी.) - मध्य जनवरी

  • ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र (1600-2400 मी.) - मार्च-अप्रैल

  • बहुत ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र (2400 मी. से अधिक) - अप्रैल-मई शुरू


सोयाबीन(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

 

बीज की मात्रा तथा बिजाई का ढंग


आलू को 50-60 सें. मी. की दूरी में नालियों/खलियों में ढलान की विपरीत दिशा में बोना चाहिए तथा बिजाई के तुरन्त बाद मेढे बनानी चाहिए। कन्द से कन्द का अंतर 15-20 सें. मी. होना चाहिए। यदि बीज के आलुओं का भार 30 ग्राम से कम न हो तो 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर बीज पर्याप्त होगा।

 

खरपतवारों की रोकथाम


आलुओं की फसल को जब खरपतवारों के साथ बढ़ना पड़ता है तो उपज में बहुत अधिक कमी आ जाती है। अत: यह आवश्यक है कि फसल को प्रारंभिक अवस्था में खरपतवारों से मुक्त रखा जाए। निराई-गुड़ाई उचित रूप से एवं कम खर्च से तभी हो सकती है यदि फसल की बिजाई पंक्तियों में की हो। पहली निराई-गुड़ाई फसल की 75 प्रतिशत अंकुरण पर करनी चाहिए और यह अवस्था बिजाई के लगभग 30 दिनों के बाद आती है। जब पौधे 15-20 सें. मी. लम्बे हो जाएं तो दूसरी निराई-गुड़ाई करके मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।

 

जल प्रबन्ध


आलू की फसल में सिंचाई की संख्या एवं समय, मिट्टी की बनावट, मौसम, फसल की वृद्धि की अवस्था तथा उगाई गई किस्म पर निर्भर करती है। फिर भी कुछ क्रांतिक अवस्थाओं में जैसे कि भूमि के अंदर तने से भूस्तारी तथा आलुओं के बनते तथा बढ़ते समय सिंचाई करना बहुत आवश्यक होता है। अतः इन अवस्थाओं में पानी की कमी नहीं होनी चाहिए। हल्की और बार-बार सिंचाई देना भारी सिंचाई देने की अपेक्षा अच्छा है। मेंढों तक खेतों में पानी भर देना हानिकारक है जबकि सिंचाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि नालियां पानी से आधी भरें ताकि मेढ़ों में पानी के रिसाव से स्वयं नमी आ जाये जो कि फसल की बढ़ौतरी के लिए सही है। प्रायः बसंत की फसल में 5-7 सें. मी. गहराई की 5-6 सिंचाईयां पर्याप्त होती हैं।

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घास-पत्तियों का प्रयोग


बसंत की फसल में घास - पत्तियों का प्रयोग 10 टन/हैक्टेयर की दर से करना आवश्यक है ताकि भूमि में पर्याप्त नमी व सिंचाई का सही उपयोग हो सके। इससे सिंचाई के पानी का बचाव होता है और साथ में आलूओं के आकार में वृद्धि होती है। जिससे उपज में बढ़ौतरी होती हैं।

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फसल की खुदाई एवं श्रेणीकरण


जब फसल पूरी तैयार हो जाए तो आलुओं की खुदाई करनी चाहिए। आलुओं के तैयार हो जाने पर उन्हें भूमि के अंदर देर तक नहीं रहने देना चाहिए। खुदाई के समय भूमि न सूखी न अधिक गीली होनी चाहिए। पौधों की शाखाओं का थोड़ा सूचना तथा रगड़ने पर आलू के छिलके का न निकलना फसल तैयार होने के संकेत देते हैं। आलू का निम्नलिखित विधि से श्रेणीकरण किया जा सकता है –

पौध संरक्षण


(क) कीट प्रबंधन






































कटुआ

सफेद सुंडी, कटुआ कीट, हड्डा बीटल, जैसिड और एफिड एवं पतंगा
पौधों को जमीन की सतह से काट देता है जबकि सफेद सुंडी व वाइट वर्म आलुओं को खाते हैं। बड़े कीट व सुंडियां पत्ता को खाकर छलनी कर देते हैं। कीट पत्तों व फूलों के रस को चूसकर हानि पहुंचाते हैं। तथा विषाणु रोग फैलाने में सहायक होते हैं। आलू का पतंगा खेतों में लार्वे के रूप में जमीन से बाहर निकलकर और गौदाम में आलुओं को हानि पहुंचाते हैं। यह पत्तों में सुरंगे बनाते हैं व तने के अंदर चले जाते हैं। गोदामों में लार्वे आलुओं पर आंखों के रास्ते अंदर जाते हैं व सुरंगे बना देते हैं। आलू के अंदर जाने के रास्ते के बाहर मल का इकट्ठा होना इसका लक्षण है। उसके बाद अन्य जीवाणुओं के आक्रमण द्वारा आलू सड़ने शुरू हो जाते हैं।

रोकथाम –

· फसल की बिजाई के लिए स्वस्थ आलू बीज का प्रयोग करें।

· मेढ़ों पर मिट्टी पूरी तरह चढ़ाएं ताकि आलू भूमि से बाहर न दिखाई दें।

· आलुओं की खुदाई के बाद खेत में उन पर तरपाल/चादर ढक दें, ताकि पतंगे उन पर अडे न दे सके।

· गोदाम में स्वस्थ आलुओं को सूखे पत्तों व सूखी रेत से 2 सें.मी. तह तक ढक आलुओं को गोदाम में रखने से पहले आलुओं को पंचगव्य से उपचारित करें। जिन गोदामों में आलू भंडारण किए जाते हैं उसकी साफ-सफाई का खास ख्याल रखें।

· भृगों व सुंडियों को शाम के समय रोगग्रस्त पौधों से इकट्ठा करें तथा उन्हें मार दें

· खेत में नीम ऑयल 3 मि.ली./लीटर से छिड़काव करें।

· कीड़ों के नियंत्रण के लिए खेत में चिपचिपे बोर्डों का प्रयोग करें।

· बीज का उपचार बीजामृत व ट्राईकोडर्मा से करें।
(ब) बीमारियां -
अगेता झुलसापत्तों पर गोल चक्र रूप में भूरे धब्बे बनते हैं, जिसके कारण पत्ते शीघ्र गिर जाते हैं।
पछते झुलसापत्तों पर छोटे गोल बिंदुओं की तरह धब्बे बनते हैं। बीमारी वाले भाग के चारों ओर पीलापन बनता है और उसके बाद भूरे से गहरे भूरे धारियों वाले धब्बे बनते हैं।
कॉमन स्कैबरोगग्रस्त आलुओं का छिलका भद्दा हो जाता है, जिसमें गहरे छेद पड़ जाते हैं। आलुओं पर भूरे से काले कार्क की तरह धब्बे बन जाते हैं।
ब्लैक स्कर्फआलुओं से उगती हुई शाखाएं मर जाती हैं। भूमि के अंदर वाले भागों में कैंकर जैसी बढ़ौतरी बनती है और आलुओं पर भूरे से काले बीमारी के अंश प्रकट होते हैं।
पाऊडरी स्कैबःआरंभ में आलुओं पर उभरी हुई कीलें प्रकट होती हैं और बाद में गड्ढे /छेद बन जाते हैं, जिसके अंदर फफूद भर जाती है, जो पतले छिलके से घिरे रहते हैं।
बैक्टीरियल विल्टइस बीमारी के लक्षण पौधों व पत्तों का मुरझाना तथा नीचे झुकना है। इसके बाद पौधा पूरी तरह मुरझा जाता है और आलुओं के अंदर भूरापन आ जाता है।
रोकथाम

  1. बिजाई के लिए स्वस्थ व रोग रहित बीज का प्रयोग करें।

  2. प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाएं।

  3. रोगग्रस्त खेतों में फसल न लगाएं।

  4. प्रतिरोधी किस्मों का इस्तेमाल करें, जैसे कि कुफरी स्वर्ण, कुफरी ज्योति।

  5. बिजाई के समय बीज के आलुओं को ट्राईकोडर्मा तथा बीजामृत से उपचार करें।

  6. खेत में अच्छी तरह गली-सड़ी गोबर की खाद डालें, कच्ची खाद का प्रयोग न करें।

  7. मक्की व अन्य फसलों के साथ फसल चक्र अपनाएं।

  8. बिजाई के समय मेढ़ों पर मिट्टी अच्छी तरह से चढ़ाएं।

  9. जहां तक संभव हो, मध्य अगस्त तक फसल के ऊपरी भागों को काट दें।

  10. यूवेरिया बेसिना का इस्तेमाल करें। घोल बनाने के लिए 200 लीटर पानी में 2 कि.ग्रा. यूवेरिया शुष्क पाउडर मिलाएं। पाउडर को पानी में मिलाकर पूरक चूर्ण में भरें, 30 मिनट तक सैट होने दें और उसके बाद पत्तों पर छिड़काव करें।

  11. डाईपल (बेसीलस थूरीनजेनसिस) का 500 मि.ली./है. छिड़काव करें। फफूद (पेईसिलोमाइसिस लीलासीनस) आलू में जड़-गांठ सूत्रकृमि के लिए प्रयोग में लाएं।

  12. रोग और सूत्रकृमि को रोकने में फसल चक्र काफी महत्वपूर्ण है।

  13. फसल को विशिष्ट रोग से बचाने के लिए आलू, टमाटर, मिर्च और बैंगन जैसी फसलों के साथ खेती न की जाए क्योंकि यह एक ही कुल से संबंध रखती हैं।

  14. जैव नियंत्रण एजेंट जैसे बेसीलस सब्टिल्स का 2 कि.ग्रा./है. से छिड़काव करें। इस छिड़काव को जरूरत के अनुसार 5-7 दिनों में पुनः छिड़काव करें।

  15. बोरेक्स मिश्रण एक प्रतिशत का छिड़काव भी उपयुक्त माना गया है।



धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

स्थानीय किस्में


20-25 टन/हैक्टेयर

पैदावार


संकर किस्में : 30-35 टन/हैक्टेयर

बीज वाले आलू का उत्पादन



  1. विश्वसनीय स्रोत से ही रोग-रहित बीज को प्राप्त करें।

  2. बीज वाली आलू की फसल की अप्रैल के मध्य में बिजाई करें। शीघ्र बिजाई करने से कुफरी ज्योति किस्म के आलुओं पर दरारें आ जाती हैं।

  3. बिजाई के लिए स्वस्थ व बड़े (4-6 सें.मी. परिधी) जिसमें काफी आंखें हों,प्रयोग करें। इससे कई गुणा अधिक विषाणु रहित आलू पैदा होते हैं।

  4. जब फसल 10 सें.मी. के लगभग लम्बी हो जाये तो किसी कीटनाशक जैसे कि नीम के तेल का छिड़काव करें।

  5. बिजाई के शीघ्र ही आलुओं पर मिट्टी चढ़ा दें और जल्दी ही निराई-गुड़ाई | करें, ताकि बाद में पौधों की बढ़ौतरी की अवस्था में कम से कम बाधा पहुंचे।

  6. फसल की बढ़ौतरी में 2-3 बार निरीक्षण करें। अन्य किस्म के एवं रोग ग्रसित पौधे जिनके पत्तों में पीलापन, मौजेक, झुरियां, मुड़े हुए आदि लक्षण दिखाई दें, ऐसे पौधों को निकाल दें। पहला परीक्षण उस समय करें जब पौधे 15 सें.मी. लंबे हों। दूसरी बार निराई-गुड़ाई फसल में फूल आने के समय करें। फसल की अन्तिम अवस्था में भी यदि कुछ पौधे रोग - ग्रस्त दिखाई दें तो उन्हें भी उखाड़ दें।

  7. मध्य जुलाई में फसल में तेले का प्रकोप प्रकट होता है। अतः जुलाई-अगस्त में नीम तेल का 2-3 बार छिड़काव करें।

  8. जुलाई के अंत में रोगग्रस्त किस्मों से पौधों की शाखाओं को काट दें व नष्ट करें। इन्हें खेत में न छोड़े।

  9. पौधों की शाखाओं को काटने के बाद और शाखाएं निकलें तो उन्हें भी काट दे।

  10. जैसे ही बारिशें बंद हो जाएं फसल को निकाल लें। आलुओं को अच्छी तरह सुखा लें और सड़े व कटे हुए आलुओं को निकाल दें। वर्गीकरण के पश्चात आलुओं को बाजार में बेचने के लिए बोरियों का इस्तेमाल करें। अगले साल की बिजाई के लिए पर्याप्त मात्रा में बीज का रखाव भली-भांति से करें।

  11. आलुओं को पंचगव्य से उपचारित करें।

  12. खाने वाले आलू के लिए दी गई सिफारिशों को भी पूरी तरह अपनाएं।








आलू की वैज्ञानिक खेती





  1. परिचय

  2. खेत का चयन

  3. खेत की जुताई

  4. खाद एवं उर्वरक

  5. रोपनी का समय

  6. प्रभेदों का चयन

  7. बीज दर

  8. बीजोपचार

  9. रासायनिक बीजोपचार

  10. रोपने की दूरी

  11. रोपनी की विधि

  12. सिंचाई

  13. अंतरकर्षण

  14. मिट्टी चढ़ाना

  15. पौध संरक्षण

  16. देखभाल

  17. लत्तर काटना

  18. खुदाई

  19. उपज






परिचय


आलू एक अर्द्धसडनशील सब्जी वाली फसल है। इसकी खेती रबी मौसम या शरदऋतु में की जाती है। इसकी उपज क्षमता समय के अनुसार सभी फसलों से ज्यादा है इसलिए इसको अकाल नाशक फसल भी कहते हैं। इसका प्रत्येक कंद पोषक तत्वों का भण्डार है, जो बच्चों से लेकर बूढों तक के शरीर का पोषण करता है। अब तो आलू एक उत्तम पोष्टिक आहार के रूप में व्यवहार होने लगा है। बढ़ती आबादी के कुपोषण एवं भुखमरी से बचाने में एक मात्र यही फसल मददगार है।

खेत का चयन


ऊपर वाली भीठ जमीन जो जल जमाव एवं ऊसर से रहित हो तथा जहाँ सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित हो वह खेत आलू की खेती के लिए उपयुक्त है। खरीफ मक्का एवं अगात धान से खाली किए गए खेत में भी इसकी खेती की जाती है।

खेत की जुताई


ट्रैक्टर चालित मिट्टी पलटने वाले डिस्क प्लाउ या एम.बी. प्लाउ से एक जुताई करने के बाद डिस्क हैरो 12 तबा से दो चास (एक बार) करने के बाद कल्टी वेटर यानि नौफारा से दो चास (एक बार) करने के बाद खेत आलू की रोपनी योग्य तैयार हो जाता है। प्रत्येक जुताई में दो दिनों का अंतर रखने से खर-पतवार में कमी आती है तथा मिट्टी पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक जुताई के बाद हेंगा तथा खर-पतवार निकालने की व्यवस्था की जाती है। ऐसा करने से खेत की नमी बनी रहेगी तथा खेत खर-पतवार से मुक्त हो जाएगा।

खर-पतवार से मुक्ति के लिए जुताई से एक सप्ताह पूर्व राउंड अप नामक तृणनाशी दवा जिसमें ग्लायफोसेट नामक रसायन (42 प्रतिशत) पाया जाता है उसका प्रति लीटर पानी में 2.5 (अढ़ाई) मिली लीटर दवा का घोल बनाकर छिड़काव करने से फसल लगने के बाद खर-पतवार में काफी कमी हो जाती है।

खाद एवं उर्वरक


आलू बहुत खाद खाने वाली फसल है। यह मिट्टी के ऊपरी सतह से ही भोजन प्राप्त करती है। इसलिए इसे प्रचुर मात्रा में जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होती है।

इसमें सड़े गोबर की खाद 200 क्विंटल तथा 5 क्विंटल खल्ली प्रति हें. की दर से डाला जाता है। खल्ली में अंडी, सरसों, नीम एवं करंज जो भी आसानी से मिल जाय उसका व्यवहार करे। ऐसा करने से मिट्टी की उर्वराशक्ति हमेशा कायम रहती है तथा रासायनिक उर्वरक पौधों को आवश्यकतानुसार सही समय पर मिलता रहता है।

रासायनिक उर्वरकों में 150 किलोग्राम नेत्रजन 330 किलोग्राम यूरिया के रूप में प्रति हें. की दर से डाला जाता है। यूरिया की आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम रोपनी के समय तथा शेष 165 किलोग्राम रोपनी के 30 दिन बाद मिट्टी चढ़ाने के समय डाला जाता है। 90 किलोग्राम स्फुर तथा 100 किलोग्राम पोटाश प्रति हें. की दर से डाला जाता है। स्फुर के लिए डी.ए.पी. या सिंगल सुपर फास्फेट दोनों में से किसी एक ही खाद का प्रयोग करें। डी.ए.पी. की मात्रा 200 किलोग्राम प्रति हें. तथा सिंगल सुपर फास्फेट की मात्रा 560 किलोग्राम प्रति हें. तथा पोटाश के लिए 170 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ़ पोटाश प्रति हें. की दर से व्यवहार करें।

सभी उर्वरकों को एक साथ मिलाकर अंतिम जुलाई के पहले खेत में छिंठ कर जुताई के बाद पाटा देकर मिट्टी में मिला दिया जाता है।

रोपनी के समय आलू की पंक्तियों में खाद डालना अधिक लाभकर है परन्तु ध्यान रहे उर्वरक एवं आलू के कंद में सीधा सम्पर्क न हो नहीं तो कंद सड़ सकता है। इसलिए व्हील हो या लहसूनिया हल से नाला बनाकर उसी में खाद डालें। खाद की नाली से 5 से 10 सेंमी. की दूरी पर दूसरी नाली में आलू का कंद डालें।

यदि पोटेटो प्लांटर उपलब्ध हो तो उसके अनुसार उर्वरक प्रयोग में परिवर्तन किया जा सकता है।

रोपनी का समय


हस्त नक्षत्र के बाद एवं दीपावली के दिन तक आलू रोपनी का उत्तम समय है। वैसे अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से लेकर दिसम्बर के अंतिम सप्ताह तक आलू की रोपनी की जाती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मुख्यकालीन रोप 5 नवम्बर से 20 नवम्बर तक पूरा कर लें।FARMTRAC 45 HP TRACTOR SUPPLY

प्रभेदों का चयन


आवश्यकता एवं इच्छा के अनुसार प्रभेदों का चयन करें। राजेन्द्र आलू -3, कुफ्री ज्योति, कुफ्री बादशाह, कुफ्री पोखराज, कुफ्री सतलज, कुफ्री आनन्द एवं कुफ्री बहार मधय अगात के लिए प्रचलित प्रभेद हैं जो 90 दिन से लेकर 105 दिनों में परिपक्व हो जाता है।

राजेन्द्र आलू -1, कुफ्री सिंदुरी एवं कुफ्री लालिमा आलू के प्रचलित पिछात प्रभेद हैं जो 120 दिन से लेकर 130 दिन तक परिपक्व हो जाते है।

बीज दर


आलू का बीज दर इसके कंद के वजन, दो पंक्तियों के बीच की दूरी तथा प्रत्येक पंक्ति में दो पौधों के बीच की दूरी पर निर्भर करता है। प्रति कंद 10 ग्राम से 30 ग्राम तक वजन वाले आलू की रोपनी करने पर प्रति हें. 10 क्विंटल से लेकर 30 क्विंटल तक आलू के कंद की आवश्यकता होती है।

बीजोपचार


शीत-भंडार से आलू निकालने के बाद उसे त्रिपाल या पक्की फर्श पर छायादार एवं हवादार जगह में फैलाकर कम से कम एक सप्ताह तक रखा जाता है। सड़े एवं कटे कंद को प्रतिदिन निकालते रहना चाहिए। जब आलू के कंद में अंकुरण निकलना प्रारंभ हो जाय तब रासायनिक बीजोपचार के बाद रोपनी करनी चाहिए।

रासायनिक बीजोपचार


शीत भंडार से निकाले कंद को फफूंद एवं बैक्टिरिया जनित छुआ-छुत रोगों से सुरक्षा के लिए फफूंदनाशक एवं एन्टीवायोटिक दवा का व्यवहार किया जाता है। इसके लिए ड्राम, बाल्टी, नाद या टिन में नाप कर पानी लिया जाता है। प्रति लीटर पानी में 5 ग्राम इमिशान-6 तथा आधाग्राम यानि 500 मिलीग्राम स्ट्रोप्टोसाइक्लिन एन्टीवायोटिक दवा का पाउडर मिलाकर घोल तैयार किया जाता है। इस घोल में कंद को 15 मिनट तक डुबाकर रखने के बाद घोल से आलू को निकाल कर त्रिपाल या खल्ली बोरा पर छायादार स्थान में फैला कर रखा जाता है ताकि कंद की नमी कम हो जाय। घोल बहुत गंदा हो जाने पर या बहुत कम हो जाने पर उस घोल को फेंक कर फिर से पानी डालकर नया घोल तैयार कर लिया जाता है। फफूंदनाशक दवाओं में घोल तैयार करने वास्ते इमिशान-6 सस्ता पड़ता है। इसके अभाव में इन्डोफिल एम.-45, कैप्टाफ या ब्लाइटाक्स 2.5 ग्राम मात्र प्रति लीटर पानी में घोलकर घोल बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि रासायनिक बीजोपचार आवश्यक है। ऐसा करने से खेत में आलू की सड़न रुक जाती है तथा कंद की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है।

रोपने की दूरी


आलू को शुद्ध फसल के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 40 सें.मी. से लेकर 600 सें.मी. तक रखें परन्तु, मक्का में आलू की अंतरवर्ती खेती के लिए दो पंक्तियों के बीच की दूरी 60 सें.मी. रखें। यदि ईख में आलू की अंतरवर्ती खेती करनी हो तो ईख की दो पंक्तियों के बीच की दूरी के आधार पर ईख को दो पंक्तियों के बीच में 40 सें.मी. से लेकर 50 सें.मी. की दूरी पर आलू की दो पंक्तियाँ रखें। प्रत्येक कतार में दो कंद के बीच की दूरी 15 सें.मी. से लेकर 20 सें.मी. तक रखें। छोटे कंद को 15 सें.मी. की दूरी पर तथा बड़े कंद को 20 सें.मी. की दूरी पर रोपनी करें।

रोपनी की विधि


आलू रोपने के समय ही कुदाली से मिट्टी चढ़ाकर लगभग 15 सें.मी. ऊँचा मेड बना दिया जाता है तथा उसे कुदाली से हल्का थप-थप कर मिट्टी दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी की नमी बनी रहे तथा सिंचाई में भी सुविधा हो।

यदि सुविधा हो तो बड़े खेत में पोटेटो प्लांटर से भी रोपनी की जाती है। इसके द्वारा समय एवं श्रम दोनों की बचत होती है।

यदि आलू में मक्का लगाना चाहते है तो आलू की मेड के ठीक नीचे सटाकर आलू रोपनी के पाँच दिन के अंदर खुरपी से 30 सें.मी. की दूरी पर मक्का बीज की बुआई कर दें। ऐसा करने से आलू के साथ सिंचाई में भी बाधा न होगी। मक्का-आलू साथ लगाने पर मक्का के लिए पूरी खाद की मात्रा तथा आलू के लिए आधी खाद की मात्रा का प्रयोग करें। मक्का-आलू साथ लगाने पर एक ही खेत से एक ही सीजन में कम लागत में दोनों फसल की प्राप्ति हो जाती है तथा आलू का क्षेत्रफल भी बढ़ सकता है। बचे हुए खेत में दूसरी फसल लगायी जा सकती है।

सिंचाई


कहावत है – आलू एवं मक्का पानी चाटता है – पीता नही है। इसलिए इसमें एक बार में थोड़ा पानी कम अंतराल पर देना अधिक उपज के लिए लाभदायक है। चूँकि खाद की मात्रा ज्यादा रखी जाती है इसलिए रोपनी के 10 दिन बाद परन्तु 20 दिन के अंदर ही प्रथम सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। ऐसा करने से अकुरण शीघ्र होगा तथा प्रति पौधा कंद की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उपज में दो गुणी वृद्धि हो जाती है। प्रथम सिंचाई समय पर करने से खेत में डाले गए खाद का उपयोग फसलों द्वारा प्रारंभ से ही आवश्यकतानुसार होने लगता है। दो सिंचाई के बीज का समय खेत की मिट्टी की दशा एवं अनुभव के आधार पर घटाया बढ़ाया जा सकता है। फिर भी दो सिंचाई के बीच 20 दिन से ज्यादा अंतर न रखें। खुदाई के 10 दिन पूर्व सिंचाई बंद कर दें। ऐसा करने से खुदाई के समय कंद स्वच्छ निकलेंगे। ध्यान रखें प्रत्येक सिंचाई में आधी नाली तक ही पानी दें ताकि शेष भाग रिसाब द्वारा जम हो जाय।

अंतरकर्षण


प्रथम सिंचाई के बाद यानि रोपनी के 25 दिन बाद खुरपी से खर-पतवार निकाल दिया जाता है। पूरी फसल अवधि में दो बार निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है।

मिट्टी चढ़ाना


रोपनी के 30 दिन बाद दो पंक्तियों के बीच में यूरिया का शेष आधी मात्रा यानि 165 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालकर कुदाली से मिट्टी बनाकर प्रत्येक पंक्ति में मिट्टी चढ़ा दिया जाता है तथा कुदाली से हल्का थप-थपाकर दबा दिया जाता है ताकि मिट्टी में पकड़ बनी रहें।

पौध संरक्षण


भूमिगत कीटों से सुरक्षा हेतु रोपनी के समय ही फोरेट-10 जी या डर्सभान 10 जी. जिसमें क्लोरोपायरिफास नामक कीट नाशी दवा रहता है उसका 10 किलोग्राम प्रति हें. की दर से उर्वरकों के साथ ही मिलाकर रोपनी पूर्व व्यवहार किया जाता है। ऐसा करने से धड़ छेदक कीटों से जी मिट्टी में ही दबे रहते हैं उसे सुरक्षा मिल जाती है।

पिछात झुलसा रोग से बचाव के लिए 20 दिसम्बर से लेकर 20 जनवरी तक 10 से 15 दिन के अंतराल पर फफूंदनाशक दवा का छिड़काव करें। प्रथम छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में इन्ड़ोफिल एम-45, दूसरे छिड़काव में ब्लाइटॉक्स एवं तीसरे छिड़काव में आवश्यकतानुसार रीडोमील फफूंदनाशक दवा का 2.5 ग्राम/लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। प्रति हेक्टेयर 2.5 किलोग्राम दवा एवं 1000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लगभग 60 टिन पानी प्रति हें. लग जाता है। ऐसा करने से फसल सुरक्षा बढ़ जाती है।

14 जनवरी के आस-पास लाही गिरने का समय हो जाता है। यदि लाही का प्रकोप हो तो मेटासिस्टोक्स नामक कीटनाशी दवा का प्रति लीटर पानी में एक मिली. दवा डालकर स्प्रे किया जाता है। दवा नापने के लिए प्लास्टिक सिरीज का व्यवहार करें। लाही नियंत्रण से आलू में कुकरी रोग यानि लीफ रोल नाम विषाणु रोग का खतरा कम हो जाता है।

देखभाल


आलू रोपनी के 60 दिन बाद प्रत्येक पंक्ति में घूमकर फसल को देखा करें। यदि आलू का कंद दिखलाई पड़े तो उसे मिट्टी से ढँक दें नहीं तो उसका रंग हरा जो जायगा। तथा कंदों का बढ़ना रुक जायगा। चूहा द्वारा क्षति का भी अंदाज लग जायगा। चूहा के आक्रमण पर प्रत्येक बिल में 10 ग्राम थीमेट नामक कीटनाशी दवा डालकर छेद को बंद कर दें। ऐसा करने से चूहा बिल में ही मर जायगा या नहीं तो खेत छोड़कर भाग जायगा।

लत्तर काटना


यदि आलू को बीज के लिए या अधिक दिनों तक रखना हो तो परिपक्वता अवधि पूरी होने पर लत्तर काट दें। लत्तर काटने के 10 दिन बाद खुदाई करें। ऐसा करने से कंद का छिलका मुटाता है। जिससे आलू की भंडारण क्षमता बढ़ती है तथा सडन में कमी आती है।

खुदाई


बाजार भाव एवं आवश्यकता को देखते हुए रोपनी के 60 दिन बाद आलू का खुदाई की जाती है। यदि भंडारण के लिए आलू रखना हो तो कंद की परिपक्वता की जाँच के बाद ही खुदाई करें। परिपक्वता की जाँच के लिए कंद को हाथ में रखकर अंगूठा से दवाकर फिसलाया जाता है यदि ऐसा करने पर कंद का छिलका अगल नहीं होता है तो समझा जाता है कि कंद परिपक्व हो गया है। ऐसे कंद की खुदाई करने से भंडारण के कंद सड़ता नहीं है। खुदाई दिन के 12.00 बजे तक पूरा कर लेनी चाहिए। खुदे कंद को खुले धूप में न रखकर छायादार जगह में रखा जाता है। धूप में रखने पर भंडारण क्षमता घट जाती है। 15 मार्च तक आलू के सभी प्रभेदों की खुदाई अवश्य पूरी कर लेनी चाहिए। खुरपी या पोटेटो डीगर से खुदाई की जाती है। खुरपी से खुदाई करने पर ध्यान रहे आलू कटने न पावें। कहावत है – आलू नहीं कटती हैं, तकदीर कट जाती है।

यदि आलू को शीत भंडार भेजना है तो कटे एवं सड़े आलू की छाँटकर खुदाई के एक सप्ताह बाद बोरा में बंद कर भेज दें। प्रत्येक बोरा के अंदर प्रभेद का नाम लिख दें तथा बोरा के ऊपर भी अपना पता लिख दें।

उपज


परिपक्वता अवधि एवं अनुशंसित फसल प्रणाली को अपनाने पर रोपनी के 60 दिन बाद 100 क्विंटल, 75 दिन बाद 200 क्विंटल, 90 दिन बाद, 300 क्विंटल तथा 105 दिन बाद प्रभेद के अनुसार 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जाती है। परन्तु यदि प्रथम सिंचाई रोपनी के 10 दिन बाद तथा 20 दिन के अंदर न हुआ तो उपज आधी हो जायगी।

खेत गहरा न जोता जाए तो बहुत बार जोतने से भी क्या लाभ होगा? इसलिए गहराई से जोतना जरूरी है। अच्छी फसल के लिए खेती की हेंगाई मतलब खेती की मिट्टी फोड़ना बहुत जरूरी है।


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