जौ
जौ शीतोष्ण जलवायु की फसल है, लेकिन समशीतोष्ण जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापू्र्वक की जा सकती है । जौ की खेती समुद्र तल से 4000 मीटर की ऊंचाई तक की जा सकती है। जौ की खेती के लिये ठंडी और नम जलवायु उपयुक्त रहती है। जौ की फ़सल के लिये न्यूनतम तापमान 35-40°F, उच्चतम तापमान 72-86°F और उपयुक्त तापमान 70°F होता है।
जौ
- खेत की तैयारी
- बोने का समय
- जौ की उन्नतिशील प्रजातियाँ
- बीज की मात्रा
- बुवाई की विधि
- उर्वरक
- असिंचित
- सिंचित समय से बुआई की दशा में
- ऊसर तथा विलम्ब से बुआई की दशा में
- सिंचाई
- फसल सुरक्षा
- (क) प्रमुख कीट
- नियंत्रण के उपाय
- (ख) प्रमुख रोग
- नियंत्रण के उपाय
- 1. बीज उपचार
- 2. भूमि उपचार
- 3. पर्णीय उपचार
- (ग) प्रमुख खरपतवार
- नियंत्रण के उपाय
- (घ) प्रमुख चूहे
- नियंत्रण के उपाय
- कटाई तथा भण्डारण
- मुख्य बिन्दु
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सिंचाई एवं उर्वरक के सीमित साधन एवं असिंचित दशा में जौ की खेती गेहूँ की अपेक्षा अधिक लाभप्रद है। सिंचित, असिंचित, विलम्ब से तथा ऊसरीली भूमि में जौ की खेती से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने हेतु निम्न बिन्दुओं का ध्यान रखना होगा
खेत की तैयारी
देशी हल या डिस्क हैरो से 2-3 जुताइयां करके खेत तैयार कर लेना चाहिए।
बोने का समय |
असिंचित | सभी क्षेत्रों में 20 अक्टूबर से 10 नवम्बर तक। |
सिंचित समय | 25 नवम्बर तक |
विलम्ब से | दिसम्बर के दूसरे पखवारे तक। |
जौ की उन्नतिशील प्रजातियाँ
छिल्कायुक्त छः धारीय प्रजातियाँ मैदानी क्षेत्र
कं.सं. | प्रजातियाँ | अधिसूचना की तिथि | उत्पादकता कु./हेक्टेयर | पकने की अवधि दिनो में | विशेष विवरण |
1 | ज्योति (क.572/10) | 08.10.1974 | 25-28 | 120-125 (विलम्ब से) | सिंचित दशा विलम्ब से बुआई हेतु कण्डुवा एवं स्ट्राइप अवरोधी। मैदानी क्षेत्र हेतु उपयुक्त। |
2 | आजाद (के-125) | 14.01.1982 | 28-32 | 110-115 | असिंचित दशा तथा ऊसरीली भूमि, चारा तथा दाना के लिये उपयुक्त कण्डुआ एवं स्ट्राइप अवरोधी, मैदानी क्षेत्र हेतु। |
3 | के-141 | 29.05.1982 | 30-32 | 120-125 | असिंचित दशा चारा एवं दाना के लिये उपयुक्त नीलाभ कण्डुआ एवं स्ट्राइप अवरोधी। मैदानी क्षेत्र हेतु। |
4 | हरितमा (के-560) | 15.05.1998 | 30-35 | 110-115 | असिंचित दशा के लिये उपयुक्त समस्त रोगों के लिए अवरोधी समस्त उत्तर प्रदेश हेतु। |
5 | प्रीती (के-409) | 02.02.2001 | 40-42 | 105-112 | सिंचित दशा हेतु जौ की प्रमुख बीमारियों के प्रति अवरोधी। समस्त उत्तर प्रदेश हेतु। |
6 | जागृति (के-287) | 42-45 | 125-130 | सिंचित दशा में कण्डुआ एवं स्ट्राइप अवरोधी। उ. प्र. का मैदानी क्षेत्र हेतु। | |
7 | एन.डी.बी. 1445 (नरेन्द्र जौ-7) | 13.01.2013 | 30-35 | 125-128 | सम्पूर्ण उ.प्र. एवं ऊसर भूमि के लिए |
8 | लखन (के.226) | 24.07.1985 | 30-32 | 125-130 | असिंचित दशा के लिए उपयुक्त नीलाभ कण्डुआ एवं स्ट्राइप अवरोधी। मैदानी क्षेत्र हेतु। |
9 | मंजुला (के.329) | 01.05.1997 | 28-30 | 110-115 | पछेती बुआई हेतु नीलाभ कण्डुआ अवरोधी।उ. प्र. का समस्त मैदानी क्षेत्र हेतु। |
10 | आर.एस.-6 | 20.02.1970 | 25-30 सिंचित | 120-125 | सिंचित, असिंचित तथा विलम्ब से बुआई हेतु कण्डुआ |
20-22 असिंचित | 110-115 | तथा स्ट्राइप आंशिक अवरोधी। बुन्देलखण्ड क्षेत्र हेतु। | |||
11 | नरेन्द्र जौ-1 92 (एन.डी.बी.-209) | 92 (ई.) 2.2.01 | 25-30 सिंचित | 110-115 | समस्याग्रस्त ऊसर भामि के लिए उपयुक्त जौ की प्रमुख बीमारियों के लिए अवरोधी। |
12 | नरेन्द्र जौ-2 (एन.डी.बी.-940) | 92 (ई.) 2.2.01 | 40-45 सिंचित समय से | 110-115 | सिंचित समय से बुआई के हेतु जौ की प्रमुख बीमारियों के लिए अवरोधी। |
13 | नरेन्द्र जौ-3 (एन.डी.बी.-1020) | 937 (ई) 4.9.02 | 25-30 | 110-115 | समस्याग्रस्त ऊसर भूमि के लिये उपयुक्त कण्डुआ के लिये अवरोधी। |
14 | आर.डी.-2552 | 03.04.2000 | 30-40 | 120-125 | लवणीय भूमियों के लिये उपयुक्त |
15 | के. 603 | 02.02.2001 | 30-35 | 115-122 | असिंचित दशा के लिये उपयुक्त समस्त रोगों के लिये अवरोधी। |
16 | एन.डी.बी.-1173 | एस.ओ. 12 (ई.) 4.2.05 | 35-45 | 115-120 | सिंचित, असिंचित, समस्याग्रस्त एवं ऊसर क्षेत्रों हेतु उपयुक्त। |
छिंलका रहित प्रजातियॉ
सूरजमुखी(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
मैदानी क्षेत्र |
1 | (के-1149) गीतांजली | 01.05.1997 | 25-27 | 95-100 | असिंचित दशा हेतु, गेरूई, कण्डुआ, स्टाइप, नेट ब्लाच अवरोधी समस्त उ. प्र. हेतु |
2 | नरेन्द्र जौ 5 (एन.डी.बी. 943) (उपासना) | 17-18/2008 एस.ओ. (चतुर्थ) 20.1.2009 | 35-45 | 115-100 | सिंचित समय से बुआई हेतु, पर्णीय झुलसा धारीदार रोग, गेरूई, नेट ब्लाच अवरोधी एवं समस्याग्रस्त मृदा में संतोषजनक एवं अच्छी उपज। |
माल्ट हेतु प्रजातियाँ
कं.सं. | प्रजातियाँ | अधिसूचना की तिथि | उत्पादकता कु./हेक्टेयर | पकने की अवधि दिनों में | विशेष विवरण |
माल्ट हेतु प्रजातियाँ |
1 | प्रगति (के. 508)- छः धारीय | 15.05.1998 | 35-40 | 105-110 | स्ट्राइप, कण्डुआ, पीली गेरूई अवरोधी। |
2 | ऋतम्भरा(के.551) (छः धारीय) | 15.05.1998 | 40-45 | 120-125 | सिंचित दशा में माल्ट व बीयर के लिए। उपयुक्त गेरूई कण्डुआ एवं हेलमेन्थीस्पोरियम बीमारियों के लिए अवरोधी। समस्त उ.प्र. हेतु। |
3 | डी.डब्लू.आर-28 (दो धारीय) | 40-45 | 130-135 | सिंचित क्षेत्रों हेतु। | |
4 | डी.एल.-88 (छः धारीय) | 15.05.1998 | 40-42 | 120-125 | सिंचित पछैती बुआई हेतु। समस्त उ.प्र. हेतु। |
5 | रेखा (बी.सी.यू.73) (दो धारीय) | 01.05.1997 | 40-42 | 120-125 | सिंचित पूर्ण रोग अवरोधी। समस्त उ.प्र. हेतु। |
बीज की मात्रा
असिंचित | 100 किग्रा. प्रति हे0। |
सिंचित | 100 किग्रा. प्रति हे.। |
पछैती बुवाई | 125 किग्रा./हे.। |
बुवाई की विधि
बीज हल के पीछे कूंड़ों में 23 सेमी. की दूरी पर 5-6 सेमी. गहरा बोयें। असिंचित दशा में बुआई 6-8 सेमी. गहराई में करें जिससे जमाव के लिए पर्याप्त नमी मिल सके।
उर्वरक
उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना ही उचित है।
असिंचित
प्रति हेक्टेयर 40 किग्र. नत्रजन, 20 किग्रा. फास्फेट तथा 20 किग्रा. पोटाश को बुआई के समय कूड़ों में बीज के नीचे डालें। चोगें अथवा नाई का प्रयोग अधिक लाभप्रद है
सिंचित समय से बुआई की दशा में
प्रति हेक्टेयर 30 किग्रा. नत्रजन तथा 30 किग्रा. फास्फेट व 20 किग्रा. पोटाश बुआई के समय कूंड़ों में बीज के नीचे डाले तथा बाद में 30 किलोग्राम नत्रजन पहली सिंचाई पर टापड्रेसिंग करें। हल्की भूमि में 20-30 किग्रा./हे. की दर से गंधक का प्रयोग करना चाहिए। अच्छी उपज के लिए 40 कुन्तल प्रति हे. की दर से सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। माल्ट प्रजातियों हेतु 25 प्रतिशत अतिरिक्त नत्रजन का प्रयोग करेंधान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
ऊसर तथा विलम्ब से बुआई की दशा में
प्रति हे. 30 किग्रा. नत्रजन तथा 20 किग्रा. फास्फेट बुआई के समय कूंड़ों में बीज के नीचे डाले और बाद में 30 किग्रा. नत्रजन टापड्रेसिंग के रूप में पहली सिंचाई के बाद प्रयोग करें। ऊसर भूमि में 20-25 किग्रा. प्रति हे. जिंक सल्फेट का प्रयोग करें।
सिंचाई
दो सिंचाई: पहली कल्ले फूटते समय बुआई के 30-35 दिनों बाद व दूसरी दुग्धावस्था में करें। यदि एक ही सिंचाई उपलब्ध हो तो कल्ले फूटते समय करें। माल्ट हेतु जौ की खेती में एक अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। ऊसर भूमि में तीन सिंचाई पहले कल्ले निकलते समय दूसरी गाँठ बनते समय तथा तीसरी दाना पड़ते समय करें।
फसल सुरक्षा
(क) प्रमुख कीट
दीमक | गेहूँ की तरह |
गुजिया वीविल | गेहूँ की तरह |
माहूँ | गेहूँ की तरह अथवा थायोमैथोजाम 30 प्रतिशत एफ.एस. 3.50 मिली० |
नियंत्रण के उपाय
- बुआई से पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरीपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. की 3 मिली अथवा थायोमिथोजाम 30 प्रतिशत एफ.एस. 3 मिली. प्रति किग्रा. बीज के दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
- ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित भूमि जनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
- खड़ी फसल में दीमक/गुजिया के नियंत्रण हेतु क्लोरोपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
- माहूँ कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. के 1.0 ली प्रति हेक्टेयर अथवा थायोमैटान 25 प्रतिशत ई.सी. 1.0 लीटर लगभग 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हेक्टेयर की दर से भी प्रयोग किया जा सकता है।
(ख) प्रमुख रोग
- आवृत कण्डुआ: इस रोग में बालियों के दानों के स्थान पर काला चूर्ण बन जाता है जो मजबूत झिल्ली द्वारा ढका रहता है और मड़ाई के समय फूट कर स्वस्थ बीजों से चिपक जाते है।
- पत्ती का धारीदार रोग: इस रोग में पत्ती की नसों में पीली धारियाँ बन जाती है। जो बादमें गहरें भूरे रंग में बदल जाती है। जिस पर फफूँदी के असंख्य बीजाणु बनते है।
- पत्ती का धब्बेदार रोग: पत्तियों पर अण्डाकार भूरे रंग के धब्बे बनते है जो बाद में पूरी पत्ती पर फैल जाते है।
- अनावृत कण्डुआ: गेहूँ की तरह
- गेरूई रोग: गेहूँ की तरह
नियंत्रण के उपाय
1. बीज उपचार
आवृत कण्डुआ, अनावृत कण्डुआ पती का धारीदार रोग एवं पत्ती का धब्बेदार रोगों के नियंत्रण हेतु कार्बेण्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए।
अनावृत कण्डुआ एवं अन्य बीज जनित रोगों के साथ-साथ प्रारम्भिक भूमि जनित रोगों के नियंत्रण हेतु कार्बाक्सिन 37.5 प्रतिशत + थीरम 37.5 प्रतिशत डी.एस./डब्लू एस. की 3.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए।
2. भूमि उपचार
भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा बिरडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी.अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. सड़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से अनावृत्त कण्डुआ, आवतृत कण्डुआ आदि रोगों के प्रबन्धन में सहायक होता है।
3. पर्णीय उपचार
गेरूई एवं पत्ती धब्बा रोग एवं पत्ती धारी रोग के नियंत्रण हेतु जिरम 80 प्रतिशत डब्लू पी. की 2.0 किग्रा. अथवा मैंकोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा. अथवा जिनेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा. प्रति हे. लगभग 750 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
गेरूई के नियंत्रण हेतु प्रोपीकोनाजोल 25 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली. प्रति हे. पानी लगभग 750 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
(ग) प्रमुख खरपतवार
सकरी पत्ती - गेहुंसा एवं जंगली जई।
चौड़ी पत्ती - बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा, जंगली-गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि।
नियंत्रण के उपाय
गेहुंसा एवं जंगली जई के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 ली. पानी में घोलकर प्रति हे. बुआई के 20-25 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए। सल्फो सल्फ्यूरान हेतु पानी की मात्रा 300 लीटर होनी चाहिए।
- आइसोप्रोट्यूरान 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 1.25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर।
- सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट) प्रति हेक्टेयर।
- फिनोक्साप्राप-पी-इथाइल 10 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 ली. प्रति हेक्टेयर।
- क्लोडिनाफाप प्रोपैरजिल 15 प्रतिशत डब्लू.पी. की 400 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
चौड़ी पत्ती के खरपतवार बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली-गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600ली. पानी में घोलकर प्रति हे. बुआई के 25-30 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए।
- 2,4 डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत टेक्निकल की 625 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
- 2,4 डी डाई मिथाइल एमाइन साल्ट 58 प्रतिशत डब्लू.एस.सी. की 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर।
- कारफेन्ट्राजॅान इथाइल 40 प्रतिशत डी.एफ. की 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
- मेट सल्फ्यूरान मिथाइल 20 प्रतिशत डब्लू.पी. की 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
सकरी एवं चौड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवारों के एक साथ नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत को लगभग 500-600 ली. पानी में घोलकर प्रति हे. फ्लैटफैन नाजिल से छिड़काव करना चाहिए।
- पेण्डीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 ली. प्रति हेक्टेयर बुआई के 3 दिन के अन्दर।
- सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट) प्रति हेक्टेयर बुआई के 20-25 दिन के बाद।
- मैट्रीब्यूजिन 70 प्रतिशत डब्लू.पी. की 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर बुआई के 20-25 दिन के बाद।
(घ) प्रमुख चूहे
खेत का चूहा (फील्ड रैट), मुलायम बालों वाला खेत का चूहा (साफ्ट फर्ड फील्ड रैट) एवं खेत का चूहा (फील्ड माउस)।
नियंत्रण के उपाय
गेहूँ की तरह करें।
कटाई तथा भण्डारण
कटाई का कार्य सुबह या शाम के समय करें । बालियों के पक जाने पर फसल को तुरन्त काट ले और मड़ाई करके भण्डारण करें। भण्डारण विधि का वर्णन गेहूँ की खेती के अन्तर्गत किया जा चुका है।
मुख्य बिन्दु
- परिस्थिति अनुसार उपयुक्त प्रजातियों का चयन कर शुद्ध एवं प्रमाणित बीज बोये।
- मृदा परीक्षण के आधार पर संस्तुति अनुसार उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें।
- खरपतवारों के नियंत्रण हेतु संस्तुत रसायनों का समय से प्रयोग किया जायें।
- रोग एवं कीड़ों की रोकथाम हेतु गेहूँ में संस्तुति अनुसार रसायनों का प्रयोग किया जाय।
- उपलब्धता अनुसार सिंचाई कल्ले फूटते समय एवं दुग्धावस्था में करें।
सामान्य जानकारी
गेहूं, मक्का और चावल के बाद यह काफी महत्वपूर्ण अनाज है। जौ की खेती गर्मी के मौसम में समशीतोष्ण क्षेत्रों में की जाती है, जबकि इसे शीत ऋतु में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बोया जाता है। भारत में इसे रबी के मौसम में लगाया जाता है। इसमें उत्कृष्ट सूखा प्रतिरोध क्षमता है।
धरती
जौ के पौधों की खेती बड़ी संख्या में मिट्टी जैसे सोडिक, हल्की और लवणीय मिट्टी पर की जाती है। हालांकि, यह मध्यम भारी दोमट से रेतीली मिट्टी में अच्छा परिणाम देता है, जिसमें खारा प्रतिक्रिया के साथ-साथ मध्यम उर्वरता भी होती है। अम्लीय मिट्टी जौ की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।
उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में
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PL 891: यह भूसी रहित किस्म है। सत्तू, गुच्छे। इस किस्म से दलिया, आटा बनाया जा सकता है। यह औसतन 16.8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
Swaraj 963 FE TRACTOR INFORMATION
DWRB 123: यह बीयर उत्पाद बनाने के लिए उपयुक्त है। यह 19.4 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
PL 419: यह किस्म बारानी परिस्थितियों में उपयुक्त होती है। इसकी चौड़ी सीधी पत्तियाँ होती हैं। पौधे की ऊंचाई 80 सेमी. पीले रतुआ और स्मट्स के प्रतिरोधी पतले भूसी वाले मोटे बीज होते हैं। 130 दिनों में परिपक्व। 14 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
पीएल 172: सिंचित स्थिति के तहत पूरे पंजाब राज्य के लिए उपयुक्त। यह छह पंक्ति वाली अर्ध बौनी किस्म है। ठहरने के लिए प्रतिरोधी। यह माल्टिंग के लिए उपयुक्त है। यह 124 दिनों में पक जाती है। यह औसतन 14 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
पीएल 807: मध्यम चौड़ी और सीधी पत्तियां। यह ठहरने के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी है। कान घने और सीधे होते हैं। दाने मध्यम और हल्के पीले रंग के होते हैं। यह भूरे रंग के जंग, पीले जंग और ढीले जंग के लिए प्रतिरोधी है। 137 दिनों में कटाई के लिए तैयार। औसत उपज 17.2 क्विंटल प्रति एकड़ दें।
DWRUB52:इस किस्म में प्रचुर मात्रा में जुताई होती है। पौधे की ऊंचाई लगभग 101 सेमी है। कान घने, सीधे, तीर के आकार के और मध्यम आकार के होते हैं। यह भूरे रंग के रतुआ, पीले रतुआ और ढीले जंग, ढके हुए स्मट और लीफ ब्लाइट रोग के लिए प्रतिरोधी है। औसत उपज 17.3 क्विंटल प्रति एकड़ दें।
वीजेएम 201: संकरी और सीधी पत्तियों वाली दो किस्में। पौधे की ऊंचाई 118 सेमी होती है। इस किस्म में कम रहने की संभावना है। कान घने और नुकीले होते हैं। दाने मोटे और पतले भूसी के साथ सफेद होते हैं। यह भूरे रंग के जंग, पीले जंग और ढीले जंग और पट्टी रोग के लिए प्रतिरोधी है। यह पक उद्योग के लिए उपयुक्त है। 135 दिनों में परिपक्व होती है। यह औसतन 14.8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
बीएच 75 : अर्ध बौना, जल्दी पकने वाली किस्म। यह पीले जंग के लिए प्रतिरोधी देता है। इसका उपयोग माल्टिंग उद्देश्य के लिए किया जाता है।
बीएच 393:पंजाब और हरियाणा राज्य के लिए उपयुक्त। इसकी बुवाई सिंचित और समय पर बुवाई वाले क्षेत्रों में की जाती है।
PL 426: यह अर्ध बौनी किस्म है, जो 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। सिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए उपयुक्त। यह रहने, पीले जंग, ढीले और ढके हुए स्मट्स के लिए प्रतिरोधी देता है। इसके दाने मोटे होते हैं। यह औसतन 14.5 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
अन्य राज्य किस्म
आरडी 2035, बीसीयू 73, डीडब्लूआरयूबी 64, आरडी 2503
पीएल 751, नरेंद्र जौ 2, गेटांजलि (के1149)
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भूमि की तैयारी
भूमि को खरपतवार मुक्त करने के लिए 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करें। फसल की बुवाई से पहले भूमि को अच्छी तरह से अच्छी तरह से तैयार किया जाना चाहिए, जब तक कि बारीक जुताई न हो जाए। मिट्टी में नमी बनाए रखने के लिए 2-3 बार जुताई के बाद जुताई करनी चाहिए। पिछली फसल के डंठल और जड़ों को हाथ से उठाकर जमीन से बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि यह दीमक को आकर्षित करता है।
बोवाई
बुवाई का समय
इष्टतम उपज के लिए 15 अक्टूबर से 15 नवंबर तक पूरी बुवाई करें। देर से बुवाई करने पर उपज में कमी आएगी।
दूरी
का प्रयोग करें पंक्ति से पंक्ति की दूरी 22.5 सेमी. बुवाई में देरी के मामले में, 18-20 सेमी की दूरी का प्रयोग करें। बुवाई की गहराई सिंचित परिस्थितियों में फसल के लिए 3-5 सेमी की गहराई और बारानी परिस्थितियों के लिए 5-8 सेमी की गहराई का उपयोग करें। बुवाई की विधि बुवाई के लिए प्रसारण और सीड ड्रिल विधि का प्रयोग करें।
बीज
बीज दर
सिंचित दशाओं में 35 किग्रा0/एकड़ की दर से बीज दर का प्रयोग करें तथा बारानी परिस्थितियों के लिये 45 किग्रा0/एकड़ बीज दर का प्रयोग करें।
बीज उपचार
उपज वृद्धि को बढ़ाने के लिए बीजों को स्मट रोग से बचाने के लिए बाविस्टिन 2 ग्राम प्रति किग्रा से उपचारित करना चाहिए। ढके हुए स्मट रोग से बचाव के लिए इसे 2.5 ग्राम/किलोग्राम की दर से विटावक्स से उपचारित किया जा सकता है। दीमक को मुक्त करने के लिए इसे 250 मिली फॉर्मोथियोन को 5.3 लीटर पानी में मिलाकर उपचारित करना चाहिए।
उर्वरक
उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)
यूरिया | एसएसपी | पोटाश का मूरिएट |
55 | 75 | 10 |
पोषक तत्वों की आवश्यकता (किलो/एकड़)
नाइट्रोजन | फॉस्फोरस | पोटाश |
25 | 12 | 6 |
यूरिया 55 किलो प्रति एकड़, एसएसपी 75 किलो प्रति एकड़ और एमओपी 10 किलो प्रति एकड़ की दर से खाद डालें।
फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय बेसल आवेदन के रूप में डालें जबकि नाइट्रोजन की खुराक बुवाई से पहले सिंचाई करने से पहले दें।
खरपतवार नियंत्रण
फसल की प्रारंभिक अवस्था में अच्छी उपज के साथ अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है। जौ में चौड़ी और संकरी पत्तियां दो प्रमुख खरपतवार हैं। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए बिजाई के 30-35 दिन बाद 2,4-डी 250 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी प्रति एकड़ में डालें।
संकरी पत्तियों वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए एक एकड़ में आइसोप्रोटूरॉन 75% WP@500 ग्राम/100 लीटर पानी या पेंडीमेथालिन 30% ईसी@1.4 लीटर/100 लीटर पानी का प्रयोग करें।
सिंचाई
जौ के लिए, उसके जीवन चक्र के दौरान दो या तीन सिंचाई की आवश्यकता होती है। जॉइनिंग, बूटिंग और हेडिंग स्टेज के दौरान पानी के तनाव से बचें। इस स्तर पर नमी के दबाव से उपज में कमी आएगी। उपज का अनुकूलन करने के लिए, मिट्टी की नमी का स्तर सक्रिय जड़ क्षेत्र में बुवाई से नरम आटा चरण तक उपलब्ध नमी के 50% से ऊपर रहना चाहिए।
पहली सिंचाई क्राउन रूट दीक्षा पर यानि बुवाई के 25 से 30 दिन बाद करें। पुष्पगुच्छ निकलने की अवस्था में दूसरी सिंचाई करें।
प्लांट का संरक्षण

- कीट और उनका नियंत्रण:
आर्मी वर्म: युवा लार्वा हल्के हरे रंग के होते हैं, बाद की अवस्था में ये पीले रंग के हो जाते हैं। उन्होंने किनारों से या कभी-कभी पूरी तरह से पत्तियों का सेवन किया। अंडे के गुच्छे पत्तों पर मौजूद होते हैं जो एक सूती या फजी के रूप में दिखाई देते हैं। वे 3 से 4 पीढ़ी को दर्शाने वाले प्रकृति में चक्रीय हैं।
नियंत्रण: आर्मीवर्म को नियंत्रित करने का प्राकृतिक तरीका उन प्राकृतिक जीवों को अनुमति देना है जो फसलों को नष्ट करने वाले लार्वा को परजीवी बना सकते हैं। इसके लिए बैसिलस थुरिंजिएन्सिस का प्रयोग भी लाभकारी होता है।
लक्षण दिखने पर मैलाथियान 5% @10 किग्रा/एकड़ या क्विनालफॉस1.5% @250 मिली/एकड़ की डस्टिंग लें। कटाई के बाद खरपतवार और पराली को हटा दें।

स्टिंकबग: बग आकार में ढाल है और पीले या लाल रंग के निशान वाले हरे या भूरे रंग के होते हैं। ये कीड़े अपने मुंह में ले जाने वाले रोगजनक जीव लाते हैं और पौधे को गंभीर संक्रमण का कारण बनते हैं। अंडे पत्तियों पर क्लस्टर रूप में रखे जाते हैं।
नियंत्रणः बदबूदार कीट को प्राकृतिक रूप से खत्म करना फसलों के चारों ओर खरपतवार को खत्म करना है। पर्मेथ्रिन और बिफेंथ्रिन दो कीटनाशक हैं जिनका उपयोग कीटों को सावधानी से मारने के लिए किया जाता है।

एफिड्स: ये लगभग पारदर्शी, मुलायम शरीर वाले चूसने वाले कीड़े हैं। पर्याप्त संख्या में मौजूद होने पर, एफिड्स पत्तियों के पीलेपन और समय से पहले मौत का कारण बन सकते हैं। इसका संक्रमण आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े में फसल तक होता है।
नियंत्रण: एफिड के लिए क्राइसोपरला परभक्षी का प्रयोग करें। 5-7 हजार प्रति एकड़ या 50 ग्राम प्रति लीटर नीम का उपयोग करें। बादल छाए रहने पर एफिड का प्रकोप होता है। थियामेथोक्सम या इमिडाक्लोप्रिड 60 मिली/एकड़ को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

वायरवर्म: ये हल्के भूरे रंग के होते हैं और इनकी लार्वा अवस्था 1-4 साल में पूरी हो जाती है। यह अंकुर को नुकसान पहुंचाता है और तने को मोड़ देता है और मुकुट सफेद रंग का हो जाता है।
नियंत्रण: वायरवर्म नियंत्रण के लिए पोस्ट-आकस्मिक कीटनाशक उपलब्ध नहीं है। लेकिन बीज को पूर्व-उभरते क्रूजर मैक्सएक्स का इलाज किया जा सकता है जिसमें थियामेथोक्सम @ 325 एमएल / 100 किलोग्राम बीज होता है।

- रोग और उनका नियंत्रण:
ख़स्ता फफूंदी: पत्ती, म्यान, तना और पुष्प भागों पर भूरे सफेद चूर्ण की वृद्धि दिखाई देती है। चूर्णी वृद्धि बाद में काला घाव बन जाती है और पत्तियों और अन्य भागों के सूखने का कारण बनती है। उच्च आर्द्रता और ठंडे से मध्यम तापमान की अवधि के दौरान यह रोग पौधों को संक्रमित करता है। कम रोशनी की तीव्रता, जो शुष्क मौसम के साथ होती है और घनी फसल की छतरी इस रोग के पक्ष में है।
रोग का प्रकोप दिखने पर गीला करने योग्य सल्फर 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेन्डाजिम 200 ग्राम प्रति एकड़ की स्प्रे करें। अधिक प्रकोप होने पर प्रोपिकोनाजोल @ 1 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें
कपास(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

धारी/पीला रतुआ: पीले रतुआ के लिए आदर्श वृद्धि की स्थिति बीजाणु अंकुरण और प्रवेश के लिए 8-13 डिग्री सेल्सियस और आगे के विकास के लिए 12-15 डिग्री सेल्सियस और मुफ्त पानी के बीच का तापमान है। उच्च रोग दबाव परिदृश्यों में पीले रतुआ से उपज दंड 5% से लेकर 30% तक हो सकता है। स्ट्राइप रस्ट के छाले, जिनमें पीले से नारंगी-पीले रंग के यूरेडियोस्पोर्स होते हैं, आमतौर पर पत्तियों पर संकरी धारियां बनाते हैं।
इस रोग के नियंत्रण के लिए जंग प्रतिरोधी किस्म का प्रयोग करें। फसल चक्र अपनाएं और मिश्रित फसल पद्धति अपनाएं। नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग से बचें। लक्षण दिखाई देने पर सल्फर 12-15 किग्रा प्रति एकड़ की धूल झाड़ें या मैनकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर की स्प्रे करें या प्रोपिकोनाजोल (टिल्ट) 25 ईसी 1 मिली प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

फ्लैग स्मट: यह बीज जनित रोग है। हवा से फैला संक्रमण। यह मेजबान पौधे की फूल अवधि के दौरान ठंडी, आर्द्र परिस्थितियों के अनुकूल है।
गेहूँ(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
यदि बीज में रोग का स्तर अधिक है तो बीज को कार्बोक्सिन 75 डब्लयू पी 2.5 ग्राम प्रति किग्रा, कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम प्रति किग्रा बीज, टेबुकोनाजोल 1.25 ग्राम प्रति किग्रा बीज से उपचारित करें। यदि यह कम से मध्यम है, तो ट्राइकोडर्मा विराइड @ 4 ग्राम / किग्रा बीज के संयोजन के साथ बीज का उपचार करें और कार्बोक्सिन (विटावक्स 75 डब्ल्यूपी) @ 1.25 ग्राम / किग्रा बीज की आधी अनुशंसित खुराक के साथ इलाज करें।
ईयर हेड बग : वयस्क फसल पर दूधिया अवस्था पर हमला करते हैं। वे उभरते हुए गुच्छों पर भोजन करते हैं और रेशमी जाले के साथ भुरभुरा अनाज पैदा करते हैं। अंडे चमकीले सफेद रंग के होते हैं और नारंगी बालों के साथ गुच्छों में पाए जाते हैं। कैटरपिलर पीले रंग की पट्टी और छोटे बालों के साथ भूरे रंग के होते हैं। वयस्क भूरे रंग के होते हैं जिनमें रेशेदार अग्रभाग और पीले रंग के हिंद पंख होते हैं।
नियंत्रण: वयस्क कीट को आकर्षित करने के लिए दिन के समय प्रकाश जाल लगाएं। फेरोमोन ट्रैप 5 प्रति एकड़ में फूल आने की अवस्था में पुष्पगुच्छ आने तक रखें। अधिक प्रकोप होने पर मैलाथियान या कार्बेरिल 1 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

थ्रिप्स: ज्यादातर शुष्क मौसम में मनाया जाता है।
थ्रिप्स की गंभीरता को नियंत्रित करने के लिए नीले स्टिकी ट्रैप 6-8 प्रति एकड़ में रखें। इसके अलावा घटना को कम करने के लिए वर्टिसिलियम लेकानी @ 5 ग्राम / लीटर पानी का छिड़काव करें।
2) यदि थ्रिप्स अधिक हों तो इमिडाक्लोप्रिड 17.8 SL या फिप्रोनिल 2.5 मिली प्रति लीटर पानी या ऐसीफेट 75% WP@2 ग्राम प्रति लीटर की स्प्रे करें या थायमेथोक्सम 25% WG@1 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

ग्रास हॉपर : निम्फ और वयस्क पत्तियों को खाते हैं। अप्सराएं सफेद रंग की रेखाओं वाली होती हैं जबकि वयस्क हरे-भूरे रंग के होते हैं और शरीर पर रेखाएं होती हैं।
नियंत्रण: कटाई के बाद सभी पौधों के अवशेषों को हटा दें और खेत में उचित स्वच्छता, सफाई का पालन करें। कटाई के बाद गर्मियों में भी जुताई करें ताकि मिट्टी में मौजूद अंडा धूप के संपर्क में आ जाए और नष्ट हो जाए। यदि इसका हमला दिखे तो कार्बेरिल 50 डब्लयू पी 900 ग्राम को प्रति एकड़ में स्प्रे करें।
फसल काटने वाले
किस्म के उपयोग के आधार पर फसल मार्च या अप्रैल के अंत में पक जाती है। अधिक पकने से बचने के लिए कटाई में देरी से बचें। कटाई का सही चरण तब होता है जब अनाज में नमी 25-30% तक पहुंच जाती है। मैनुअल कटाई के लिए सेरेट एज सिकल का उपयोग करें। कटाई के बाद सूखी जगह पर स्टोर करें।
फसल कटाई के बाद
माल्टिंग उद्देश्य के लिए उपयोग करें।
संदर्भ
1.पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना
2.कृषि विभाग
3.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली
4.भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान
5.कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय
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