गेहूँ

गेहूँ

गेहूँ (कनक/गेहू)


सामान्य जानकारी





गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में ...

भारत के 13 प्रतिशत फसल क्षेत्र में गेहूँ उगाया जाता है। चावल के बाद, गेहूं भारत का सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न है और लाखों भारतीयों का मुख्य भोजन है, खासकर देश के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भागों में।                                                                                                                    
यह प्रोटीन, विटामिन और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होता है और संतुलित भोजन प्रदान करता है। भारत रूस, अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में गेहूं का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है और दुनिया के कुल गेहूं उत्पादन का 8.7% हिस्सा है। 



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गेहूँ की खेती





  1. प्रमुख प्रजातियाँ

  2. जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता

  3. खेत की तैयारी

  4. बीजदर और बीज शोधन

  5. बुवाई विधि

  6. उर्वरकों का प्रयोग

  7. गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण

  8. गेहूँ की फसल में रोग और उनका नियंत्रण

  9. गेहूँ की फसल में कीट और उनका नियंत्रण

  10. कटाई

  11. भण्डारण

  12. उपज


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भारत में गेहूँ एक मुख्य फसल है। गेहूँ का लगभग 97% क्षेत्र सिंचित है। गेहूँ का प्रयोग मनुष्य अपने जीवनयापन हेतु मुख्यत रोटी के रूप में प्रयोग करते हैं, जिसमे प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। भारत में पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश मुख्य फसल उत्पादक क्षेत्र हैं।

प्रमुख प्रजातियाँ


गेहूँ की प्रजातियों का चुनाव भूमि एवं साधनों की दशा एवं स्थित के अनुसार किया जाता है, मुख्यतः तीन प्रकार की प्रजातिया होती है सिंचित दशा वाली, असिंचित दशा वाली एवं उसरीली भूमि की, आसिंचित दशा वाली प्रजातियाँ निम्न हैं-

असिंचित दशा

इसमें मगहर के 8027, इंद्रा के 8962, गोमती के 9465, के 9644, मन्दाकिनी के 9251, एवं एच डी आर 77 आदि हैं।

सिंचित दशा

सिंचित दशा वाली प्रजातियाँ सिंचित दशा में दो प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती हैं, एक तो समय से बुवाई के लिए-

इसमें देवा के 9107, एच पी 1731, राजश्य लक्ष्मी, नरेन्द्र गेहूँ1012, उजियार के 9006, डी एल 784-3, (वैशाली) भी कहतें हैं, एचयूडब्लू468, एचयूडब्लू510, एच डी2888, एच डी2967, यूपी 2382, पी बी डब्लू443, पी बी डब्लू 343, एच डी 2824 आदि हैं। देर से बुवाई के लिए त्रिवेणी के 8020, सोनाली एच पी 1633 एच डी 2643, गंगा, डी वी डब्लू 14, के 9162, के 9533, एचपी 1744, नरेन्द्र गेहूँ1014, नरेन्द्र गेहूँ 2036, नरेन्द्र गेहूँ1076, यूपी 2425, के 9423, के 9903, एच डब्लू2045,पी बी डब्लू373,पी बी डब्लू 16 आदि हैं।

उसरीली भूमि के लिए-

के आर एल 1-4, के आर एल 19, लोक 1, प्रसाद के 8434, एन डब्लू 1067, आदि हैं, उपर्युक्त प्रजातियाँ अपने खेत एवं दशा को समझकर चयन करना चाहिए।


जलवायु एवं भूमि की आवश्यकता


गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है। साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती



खेत की तैयारी


गेहूँ की बुवाई अधिकतर धान की फसल के बाद ही की जाती है, पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से तथा बाद में डिस्क हैरो या कल्टीवेटर से 2-3 जुताईयां करके खेत को समतल करते हुए भुरभुरा बना लेना चाहिए, डिस्क हैरो से धान के ढूंठे कट कर छोटे छोटे टुकड़ों में हो जाते हैं: इन्हें शीघ्र सड़ाने के लिए 20-25 कि०ग्रा० यूरिया प्रति हैक्टर कि दर से पहली जुताई में अवश्य दे देनी चाहिए। इससे ढूंठे, जड़ें सड़ जाती हैं ट्रैक्टर चालित रोटावेटर से एक ही जुताई द्वारा खेत पूर्ण रूप से तलैयार हो जाता है।


बीजदर और बीज शोधन


गेहूँकि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीजशोधन अवश्य करना चाहिए बीजशोधन के लिए बाविस्टिन, काबेन्डाजिम कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि०ग्रा० कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।


बुवाई विधि


गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें। सयुंक्त प्रजातियों की बुवाई अक्तूबर के प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष तक उपयुक्त नमी में बुवाई करनी चाहिए, अब आता है सिंचित दशा इसमे की चार पानी देने वाली हैं समय से अर्थात 15-25 नवम्बर, सिंचित दशा में ही तीन पानी वाली प्रजातियों के लिए 15 नवंबर से 10 दिसंबर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए और सिंचित दशा में जो देर से बुवाई करने वाली प्रजातियाँ हैं वो 15-25 दिसम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए, उसरीली भूमि में जिन प्रजातियों की बुवाई की जाती है वे 15 अक्टूबर के आस पास उचित नमी में बुवाई अवश्य कर देना चाहिए, अब आता है किस विधि से बुवाई करें गेहूँ की बुवाई देशी हल के पीछे लाइनों में करनी चाहिए या फर्टीसीड्रिल से भूमि में उचित नमी पर करना लाभदायक है, पंतनगर सीड्रिल बीज व खाद सीड्रिल से बुवाई करना अत्यंत लाभदायक है।


उर्वरकों का प्रयोग


किसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नत्रजन की मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय खाद का प्रयोग करना चाहिए, शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए।


गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण


गेहूँ की फसल में रबी के सभी खरपतवार जैसे बथुआ, प्याजी, खरतुआ, हिरनखुरी, चटरी, मटरी, सैंजी, अंकरा, कृष्णनील, गेहुंसा, तथा जंगली जई आदि खरपतवार लगते हैं। इनकी रोकथाम निराई गुड़ाई करके की जा सकती है, लेकिन कुछ रसायनों का प्रयोग करके रोकथाम किया जा सकता है जो की निम्न है जैसे की पेंडामेथेलिन 30 ई सी 3.3 लीटर की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में मिलकर फ़्लैटफैन नोजिल से प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव बुवाई के बाद 1-2 दिन तक करना चाहिए। जिससे की जमाव खरपतवारों का न हो सके, चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद एवं पहली सिंचाई के एक सप्ताह बाद 24डी सोडियम साल्ट 80% डब्लू पी. की मात्रा 625 ग्राम 600-800 लीटर पानी में मिलकर 35-40 दिन बाद बुवाई के फ़्लैटफैन नीजिल से छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद जहाँ पर चौड़ी एवं संकरी पत्ती दोनों ही खरपतवार हों वहां पर सल्फोसल्फ्युरान 75% 32 ऍम. एल. प्रति हैक्टर इसके साथ ही मेटासल्फ्युरान मिथाइल 5 ग्राम डब्लू जी. 40 ग्राम प्रति हैक्टर बुवाई के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए, इससे खरपतवार नहीं उगते हैं या उगते हैं तो नष्ट हो जाते हैं।

गेहूँ की फसल में रोग और उनका नियंत्रण


खड़ी फसल में बहुत से रोग लगते हैं,जैसे अल्टरनेरिया, गेरुई या रतुआ एवं ब्लाइट का प्रकोप होता है जिससे भारी नुकसान हो जाता है इसमे निम्न प्रकार के रोग और लगते हैं जैसे काली गेरुई, भूरी गेरुई, पीली गेरुई सेंहू, कण्डुआ, स्टाम्प ब्लाच, करनालबंट इसमें मुख्य रूप से झुलसा रोग लगता है पत्तियों पर कुछ पीले भूरे रंग के लिए हुए धब्बे दिखाई देते हैं, ये बाद में किनारे पर कत्थई भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं: इनकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से या प्रापिकोनाजोल 25 % ई सी. की आधा लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, इसमे गेरुई या रतुआ मुख्य रूप से लगता है,गेरुई भूरे पीले या काले रंग के, काली गेरुई पत्ती तथा तना दोनों में लगती है इसकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० या जिनेब 25% ई सी. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए। यदि झुलसा, रतुआ, कर्नालबंट तीनो रोगों की संका हो तो प्रोपिकोनाजोल का छिड़काव करना अति आवश्यक है।

गेहूँ की फसल में कीट और उनका नियंत्रण


गेहूँ की फसल में शुरू में दीमक कीट बहुत ही नुकसान पहुंचता है इसकी रोकथाम के लिए दीमक प्रकोपित क्षेत्र में नीम की खली १० कुंतल प्रति हैक्टर की दर से खेत की तैयारी के समय प्रयोग करना चाहिए तथा पूर्व में बोई गई फसल के अवशेष को नष्ट करना अति आवश्यक है, इसके साथ ही माहू भी गेहूँ की फसल में लगती है, ये पत्तियों तथा बालियों का रस चूसते हैं, ये पंखहीन तथा पंखयुक्त हरे रंग के होते हैं, सैनिक कीट भी लगता है पूर्ण विकसित सुंडी लगभग 40 मि०मी० लम्बी बादामी रंग की होती है। यह पत्तियों को खाकर हानि पहुंचाती है, इसके साथ साथ गुलाबी तना बेधक कीट लगता है ये अण्डो से निकलने वाली सुंडी भूरे गुलाबी रंग की लगभग 5 मिली मीटर की लम्बी होती है, इसके काटने से फल की वानस्पतिक बढ़वार रुक जाती है, इन सभी कीट की रोकथाम के लिए कीटनाशी जैसे क्यूनालफास 25 ई सी. की 1.5-2.0 लीटर मात्रा 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए, या सैपरमेथ्रिन 750 मी०ली० या फेंवेलेरेट 1 लीटर 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। कीटों के साथ साथ चूहे भी लगते हैं, ये खड़ी फसल में नुकसान पहुँचाते हैं, चूहों के लिए जिंक फास्फाइट या बेरियम कार्बोनेट के बने जहरीले चारे का प्रयोग करना चाहिए, इसमे जहरीला चारा बनाने के लिए 1 भाग दवा 1 भाग सरसों का तेल तथा 48 भाग दाना मिलाकर बनाया जाता है जो कि खेत में रखकर प्रयोग करते हैं।

कटाई


फसल पकते ही बिना प्रतीक्षा किये हुए कटाई करके तुरंत ही मड़ाई कर दाना निकाल लेना चाहिए, और भूसा व दाना यथा स्थान पर रखना चाहिए, अत्यधिक क्षेत्री वाली फसल कि कटाई कम्बाईन से करनी चाहिए इसमे कटाई व मड़ाई एक साथ ही जाती है जब कम्बाईन से कटाई कि जाती है।

भण्डारण


मौसम का बिना इंतजार किये हुए उपज को बखारी या बोरो में भर कर साफ सुथरे स्थान पर सुरक्षित कर सूखी नीम कि पत्ती का बिछावन डालकर करना चहिए या रसायन का भी प्रयोग करना चाहिए।

उपज


असिंचित दशा में 35-40 कुंतल प्रति हैक्टर होती है, सिंचित दशा में समय से बुवाई करने पर 55-60 कुंतल प्रति हैक्टर पैदावार मिलती है, तथा सिंचित देर से बुवाई करने पर 40-45 कुंतल प्रति हैक्टर तथा उसरीली भूमि में 30-40 कुंतल प्रति हैक्टर पैदावार प्राप्त होती है।



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धरती





मिट्टी दोमट या दोमट बनावट, अच्छी संरचना और मध्यम जल धारण क्षमता वाली मिट्टी गेहूं की खेती के लिए आदर्श होती है। अच्छी जल निकासी वाली भारी मिट्टी शुष्क परिस्थितियों में गेहूं की खेती के लिए उपयुक्त होती है।




उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में





PBW 752: पछेती किस्म। यह किस्म सिंचित परिस्थितियों में बुवाई के लिए उपयुक्त है। इसकी औसत उपज 19.2 क्विंटल प्रति एकड़ है।

PBW 1 Zn: इस किस्म का पौधा 103 सेमी की ऊंचाई तक पहुंचता है। फसल 151 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह औसतन 22.5 क्विंटल प्रति एकड़ फसल उपज देता है।

उन्नत PBW 343: सिंचित और समय पर बुवाई वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त। 155 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह रहने, जल भराव की स्थिति के लिए प्रतिरोधी है। यह करनाल बंट के लिए प्रतिरोधी और तुषार के प्रति भी सहिष्णु है। यह 23.2 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

WH 542: यह समय पर बुवाई, सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। 135-145 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह स्ट्राइप रस्ट, लीफ रस्ट और करनाल बंट के लिए प्रतिरोधी है। यह औसतन 20 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

PBW 725: यह बौनी किस्म है, जिसे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा जारी किया गया है। यह समय पर सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह पीले और भूरे रंग के जंग के लिए प्रतिरोधी है। इसके दाने एम्बर, सख्त और मध्यम मोटे होते हैं। यह 155 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। यह औसतन 23 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है। 

PBW 677: 160 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह 22.4 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

एचडी 2851: यह किस्म समय पर बुवाई के लिए उपयुक्त है और सिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है। यह किस्म 126-134 दिनों में पक जाती है और पौधे की ऊंचाई 80-90 सेमी हो जाती है। 

WHD-912: यह एक डबल ड्वार्फ ड्यूरम किस्म है जिसका उपयोग उद्योग में बेकरी के लिए किया जाता है। प्रोटीन सामग्री 12%। प्रतिरोधी पीला और भूरा और जंग के साथ-साथ करनाल बंट। उपज लगभग 21 क्विंटल प्रति एकड़ है।

एचडी 3043: औसतन 17.8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है। इसने स्ट्राइप रस्ट और लीफ रस्ट के खिलाफ उच्च स्तर का प्रतिरोध दिखाया है। इसमें ब्रेड लोफ वॉल्यूम (सीसी), ब्रेड क्वालिटी स्कोर का उच्च मूल्य है।"

WH 1105: पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित। यह एक डबल ड्वार्फ किस्म है जिसकी औसत पौधे की ऊंचाई 97 सेमी है। इसके दाने अम्बर, कठोर, मध्यम मोटे और चमकदार होते हैं। यह पीले जंग और भूरे रंग के जंग के लिए प्रतिरोधी है लेकिन करनाल बंट और लूज स्मट रोगों के लिए अतिसंवेदनशील है। यह लगभग 157 दिनों में पक जाता है और इसकी औसत अनाज उपज 23.1 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

PBW 660: पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित पंजाब राज्य में वर्षा आधारित परिस्थितियों में खेती के लिए जारी किया गया। यह एक बौनी किस्म है जिसकी औसत ऊंचाई 100 सेमी होती है। इसके दाने बहुत अच्छी चपाती गुणवत्ता के साथ एम्बर, कठोर, बोल्ड और चमकदार होते हैं। यह पीले और भूरे रंग के जंग के लिए प्रतिरोधी है लेकिन स्मट रोग को खोने के लिए अतिसंवेदनशील है। यह लगभग 162 दिनों में पक जाता है और इसकी औसत अनाज उपज 17.1 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

PBW-502: पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित। समय पर बोई जाने वाली सिंचित स्थितियों के लिए उपयुक्त। यह लीफ रस्ट और स्ट्राइप रस्ट के लिए प्रतिरोधी है। 

एचडी 3086 (पूसा गौतम): यह औसतन 23 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है। यह पीले जंग और भूरे रंग के जंग के लिए प्रतिरोधी है। यह बेहतर रोटी बनाने के गुणों के सभी मानदंडों को पूरा करता है।

एचडी 2967: यह डबल ड्वार्फ किस्म है जिसकी औसत ऊंचाई 101 सेमी है। कान मध्यम घने होते हैं। यह पीले और भूरे रंग के जंग के लिए प्रतिरोधी है लेकिन करनाल बंट और लूज स्मट रोगों के लिए अतिसंवेदनशील है। इसे परिपक्व होने में लगभग 157 दिन लगते हैं। उपज 21.5 क्विंटल प्रति एकड़ है।

DBW17: पौधे की ऊंचाई 95 सेमी होती है। अनाज एम्बर कठोर, मध्यम बोल्ड और चमकदार होते हैं। यह पीले रतुआ की नई प्रजातियों के लिए अतिसंवेदनशील और भूरे रंग के रतुआ के लिए मध्यम प्रतिरोधी है। यह 155 दिनों में पक जाती है। औसत उपज 23 क्विंटल प्रति एकड़ है।

PBW 621: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 158 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 100 सेमी है।

UNNAT PBW 550: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 145 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 86 सेमी है। यह औसतन 23 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

TL 2908: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 153 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह ज्यादातर सभी प्रमुख बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 113 सेमी है। 

PBW 175: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 165 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह जंग और करनाल बंट रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 110 सेमी है। 

PBW 527: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 160 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 100 सेमी है। 

WHD 943: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 154 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 93 सेमी है।

PDW 291: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 155 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के जंग, ढीले स्मट और फ्लैग स्मट रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 83 सेमी है।

PDW 233: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 150 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के जंग, लूज स्मट और करनाल बंट रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 98 सेमी है।

PBW 590: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 128 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 80 सेमी है। 

PBW 509: यह उप-पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 130 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। यह पीले और भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 85 सेमी है।

PBW 373: यह पंजाब के सभी क्षेत्रों में उगाया जाता है। यह 140 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह भूरे रंग के रतुआ रोगों के लिए प्रतिरोधी है। इसकी औसत ऊंचाई 90 सेमी है।

अन्य राज्य किस्में:-

RAJ-3765: यह 120-125 दिनों में पक जाती है। गर्मी सहिष्णु और शून्य जुताई के लिए उपयुक्त, भूरे रंग के जंग के लिए अतिसंवेदनशील, धारीदार जंग और करनाल बंट के लिए मध्यम रूप से अतिसंवेदनशील। उपज लगभग 21 क्विंटल प्रति एकड़ है।

UP-2338: यह 125-130 दिनों में पक जाती है। यह पत्ती जंग के लिए अतिसंवेदनशील है और स्ट्राइप रस्ट के लिए मध्यम रूप से अतिसंवेदनशील है। करनाल बंट के प्रति संवेदनशील और तुषार के प्रति सहिष्णु। उपज लगभग 21 क्विंटल प्रति एकड़ है।

UP-2328: यह 130-135 दिनों में पक जाती है। कान के सिर सख्त, सरबती ​​रंग और मध्यम आकार के दाने होते हैं। यह सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। उपज लगभग 20-22 क्विंटल प्रति एकड़ है।

सोनालिका: व्यापक अनुकूलन और आकर्षक एम्बर अनाज के साथ जल्दी परिपक्व एकल बौना गेहूं। यह देर से बुवाई और जंग के लिए प्रतिरोधी के लिए उपयुक्त है।

कल्याणसोना: व्यापक अनुकूलन के साथ एक डबल बौना गेहूं पूरे भारत में खेती के लिए अनुशंसित है। यह किस्म जंग के लिए बहुत संवेदनशील है। इसलिए, इसे केवल जंग मुक्त क्षेत्रों में ही उगाने की सलाह दी जाती है। 

यूपी- (368): पंतनगर द्वारा विकसित उच्च उपज देने वाली किस्म। यह जंग और करनाल बंट के लिए प्रतिरोधी है। 

WL-(711): यह एक बौनी, अधिक उपज देने वाली और मध्यम पकने वाली किस्म है। यह ख़स्ता फफूंदी और करनाल बंट के लिए मध्यम रूप से अतिसंवेदनशील है।

यूपी- (319): यह ट्रिपल ड्वार्फ गेहूं है जिसमें उच्च स्तर का जंग प्रतिरोध होता है। बिखरने से होने वाले नुकसान से बचने के लिए इसकी उचित समय पर कटाई कर लेनी चाहिए।

गेहूँ की विलंबित किस्में - HD-2932, RAJ-3765, PBW-373, UP-2338, WH-306,1025

 




भूमि की तैयारी





पिछली फसल की कटाई के बाद खेत को डिस्क या मोल्ड बोर्ड हल से जोतना चाहिए। खेत को आमतौर पर लोहे के हल से एक गहरी जुताई और उसके बाद दो या तीन बार स्थानीय हल और तख्ती देकर तैयार किया जाता है। शाम के समय जुताई करें और ओस से कुछ नमी सोखने के लिए कुंड को पूरी रात खुला रखें। प्रत्येक जुताई के बाद प्रातःकाल पौधरोपण करना चाहिए।




बोवाई





बुवाई का समय
गेहूं की बुवाई सही समय पर करनी चाहिए। देर से बुवाई करने से गेहूं की उपज में धीरे-धीरे गिरावट आती है। बुवाई का समय 25 अक्टूबर-नवंबर है।

सामान्य बोई गई
फसल के लिए पंक्तियों के बीच 20 - 22.5 सेमी की दूरी की सिफारिश की जाती है। बिजाई में देरी होने पर 15-18 सें.मी. की दूरी रखनी चाहिए।

बुवाई
की गहराई बुवाई की गहराई 4-5 सेमी होनी चाहिए।

बुवाई की विधि
1. सीड ड्रिल
2. प्रसारण विधि
3. जीरो टिलेज ड्रिल
4. रोटावेटर




बीज





बीज दर

बीज दर 45 किलो प्रति एकड़ का प्रयोग करें। बुवाई से पहले बीज को अच्छी तरह से साफ कर लेना चाहिए।

बीज उपचार बीज उपचार
के लिए निम्नलिखित में से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग करें:























कवकनाशी/कीटनाशक का नाम मात्रा (खुराक) प्रति किलो बीज
रक्सिल2 ग्राम
थिराम2 ग्राम
विटावैक्स2 ग्राम
टेबुकोनाज़ोल2 ग्राम

 




उर्वरक





उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)
















यूरियाडीएपी या एसएसपीझाड़ूजस्ता
1105515520-

 

पोषक तत्वों की आवश्यकता (किलो/एकड़)













नाइट्रोजनफॉस्फोरसपोटाश
502512

 




खरपतवार नियंत्रण





रासायनिक खरपतवार नियंत्रण: कम श्रम की आवश्यकता और मैनुअल निराई के दौरान कोई यांत्रिक क्षति नहीं होने के कारण इसे प्राथमिकता दी जाती है। उगने से पहले, पेंडीमेथालिन (स्टॉम्प 30 ईसी) @ 1 लीटर को बुवाई से 0-3 दिन पहले 200 लीटर पानी/एकड़ में डालें। चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिए 150 लीटर पानी में 2, 4-डी @ 250 मिली का प्रयोग करें।




सिंचाई





सिंचाई का अनुशंसित समय तालिका में नीचे दिया गया है:

































सिंचाई की संख्या

बुवाई के बाद अंतराल
(दिनों में)
पहली सिंचाई20-25 दिन
दूसरी सिंचाई40-45 दिन
तीसरी सिंचाई60-65 दिन
चौथी सिंचाई80-85 दिन
5वीं सिंचाई100-105 दिन
छठी सिंचाई115-120 दिन

 

आवश्यक सिंचाई की संख्या मिट्टी के प्रकार, पानी की उपलब्धता आदि के आधार पर अलग-अलग होगी। क्राउन रूट की शुरुआत और शीर्ष चरण नमी के तनाव के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। बौनी अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए बुवाई से पहले सिंचाई करें। भारी मिट्टी के लिए चार से छह सिंचाई की आवश्यकता होती है जबकि हल्की मिट्टी के लिए 6-8 सिंचाई की आवश्यकता होती है। सीमित जल आपूर्ति के तहत केवल गंभीर अवस्था में ही सिंचाई करें। जब पानी केवल एक सिंचाई के लिए उपलब्ध हो, तो क्राउन रूट दीक्षा अवस्था में डालें। जब दो सिंचाइयां उपलब्ध हों तो क्राउन रूट दीक्षा और फूल आने की अवस्था में लगाएं। जहां तीन सिंचाई संभव हो, वहां पहली सिंचाई सीआरआई अवस्था में और दूसरी देर से जुताई (बूट) पर और तीसरी सिंचाई दुग्ध अवस्था में करनी चाहिए। सीआरआई चरण सिंचाई के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण है।

पहली सिंचाई बुवाई के 20-25 दिन बाद करनी चाहिए। यह क्राउन रूट की शुरुआत का चरण है और इस स्तर पर नमी की कमी से उपज में कमी आएगी। बुवाई के 40-45 दिनों के भीतर जुताई की अवस्था में दूसरी सिंचाई करें। देर से जुड़ने की अवस्था में 60-65 डीएएस के भीतर तीसरी सिंचाई। फूल आने पर (80-85 दिनों के भीतर) चौथी सिंचाई करें। आटा चरण में पांचवीं सिंचाई (100-105 डीएएस के भीतर)।



प्लांट का संरक्षण




एफिड्स




  • कीट कीट और उनका नियंत्रण


एफिड्स: ये लगभग पारदर्शी, मुलायम शरीर वाले चूसने वाले कीड़े हैं। पर्याप्त संख्या में मौजूद होने पर, एफिड्स पत्तियों के पीलेपन और समय से पहले मौत का कारण बन सकते हैं। इसका संक्रमण आमतौर पर जनवरी के दूसरे पखवाड़े में फसल कटाई तक होता है।

एफिड के प्रबंधन के लिए क्राइसोपरला प्रीडेटर्स 5-8 हजार प्रति एकड़ या 50 मिली प्रति लीटर नीम कॉन्संट्रेट का प्रयोग करें। बादल छाए रहने पर एफिड का प्रकोप होता है। थायमेथोक्सम 80 ग्राम या इमिडाक्लोप्रिड 40-60 मिली प्रति एकड़ को 100 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।






दीमक



दीमक: दीमक फसल पर विभिन्न विकास चरणों में, रोपाई से लेकर परिपक्वता तक हमला करते हैं। गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त पौधों को आसानी से उखाड़ा जा सकता है और वे मुरझाए और सूखे दिख सकते हैं। यदि जड़ें आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, तो पौधे पीले पड़ जाते हैं। प्रसारण को नियंत्रित करने के लिए 1 लीटर क्लोरपाइरीफॉस 20 ईसी मिश्रण को 20 किलो रेत/एकड़ के साथ मिलाकर हल्की सिंचाई करें।






Smut . फ्लैग करें




  • रोग और उनका नियंत्रण


फ्लैग स्मट: यह बीज जनित रोग है। हवा से फैला संक्रमण। यह मेजबान पौधे की फूल अवधि के दौरान ठंडी, आर्द्र परिस्थितियों के अनुकूल है। बीज को फफूंदनाशकों जैसे कार्बोक्सिल (वीटावैक्स 75 डब्ल्यूपी @ 2.5 ग्राम/किलोग्राम), कार्बेन्डाजिम (बेविस्टिन 50 डब्ल्यूपी) @2.5 ग्राम/किलोग्राम), टेबुकोनाजोल (रक्सिल 2 डीएस) @ 1.25 ग्राम/किलोग्राम बीज) से उपचारित करें। बीज में रोग का स्तर अधिक होता है। यदि यह कम से मध्यम है, तो ट्राइकोडर्मा विराइड @ 4 ग्राम / किग्रा बीज और कार्बोक्सिन (विटावक्स 75 डब्ल्यूपी) @ 1.25 ग्राम / किग्रा बीज की आधी अनुशंसित खुराक के संयोजन के साथ बीज का उपचार करें।






पाउडर रूपी फफूंद



ख़स्ता फफूंदी: पत्ती, म्यान, तना और पुष्प भागों पर भूरे सफेद चूर्ण की वृद्धि दिखाई देती है। चूर्णी वृद्धि बाद में काला घाव बन जाती है और पत्तियों और अन्य भागों के सूखने का कारण बनती है। रोग का प्रकोप दिखने पर गीला करने योग्य सल्फर 2 ग्राम प्रति लीटर पानी या कार्बेनडाज़िम 400 ग्राम प्रति एकड़ की स्प्रे करें। अधिक प्रकोप होने पर प्रोपीकोनाजोल 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।






भूरा जंग



भूरा रतुआ: यह गर्म तापमान (15-30 डिग्री सेल्सियस) और आर्द्र परिस्थितियों के अनुकूल होता है। भूरे रंग के रतुआ में लाल-भूरे रंग के बीजाणु होते हैं जो अंडाकार या लम्बी फुंसी में होते हैं। जब मुक्त नमी उपलब्ध होती है और तापमान 20 डिग्री सेल्सियस के करीब होता है तो रोग तेजी से विकसित हो सकता है। यदि परिस्थितियां अनुकूल हों तो हर 10-14 दिनों में यूरेडियोस्पोर्स की लगातार पीढ़ियों का उत्पादन किया जा सकता है।

इस रोग के नियंत्रण के लिए उपयुक्त फसलों के साथ मिश्रित फसल का पालन करें। नाइट्रोजन उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से बचें। ज़िनेब जेड-78@400 ग्राम प्रति एकड़ या प्रोपिकोनाज़ोल 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।






पीला जंग



धारी/पीला रतुआ: पीले रतुआ के लिए आदर्श वृद्धि की स्थिति बीजाणु के अंकुरण और प्रवेश के लिए 8-13 डिग्री सेल्सियस और आगे के विकास के लिए 12-15 डिग्री सेल्सियस और मुफ्त पानी के बीच का तापमान है। उच्च रोग दबाव परिदृश्यों में गेहूं में पीले रतुआ से उपज दंड 5% से लेकर 30% तक हो सकता है। स्ट्राइप रस्ट के छाले, जिनमें पीले से नारंगी-पीले रंग के यूरेडियोस्पोर्स होते हैं, आमतौर पर पत्तियों पर संकरी धारियां बनाते हैं।

इस रोग के नियंत्रण के लिए जंग प्रतिरोधी किस्म का प्रयोग करें। फसल चक्र अपनाएं और मिश्रित फसल पद्धति अपनाएं। नाइट्रोजन के अधिक प्रयोग से बचें। लक्षण दिखने पर सल्फर 5-10 किग्रा/एकड़ की धूल झाड़ें या मैनकोजेब @ 2 ग्राम/लीटर का स्प्रे करें या प्रोपिकोनाजोल (टिल्ट) 25 ईसी @ 2 मिली/लीटर पानी का छिड़काव करें।





करनाल बंटो



करनाल बंट : यह बीज और मिट्टी जनित रोग है। संक्रमण फूल आने की अवस्था में होता है। फसल के दाने भरने की अवस्था में स्पाइक उभरने के दौरान बादल छाए रहने की स्थिति रोग के विकास की ओर ले जाती है। यदि फरवरी के महीने में उत्तर भारतीय मैदानी इलाकों (बीमारी प्रवण क्षेत्रों) में बारिश होती है, तो रोग अधिक गंभीरता के साथ आने की संभावना है।
इस रोग के नियंत्रण के लिए करनाल बंट प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। इस रोग के प्रबंधन के लिए प्रोपिकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी) 2 मि.ली./लीटर पानी की एक स्प्रे कान के सिर के उभरने की अवस्था में लें।



फसल काटने वाले





अधिक उपज देने वाली बौनी किस्म की कटाई तब की जाती है जब पत्तियाँ और तना पीला हो जाता है और काफी सूख जाता है। उपज में नुकसान से बचने के लिए फसल को पकने से पहले ही काट लेना चाहिए। इष्टतम गुणवत्ता और उपभोक्ता स्वीकृति के लिए समय पर कटाई की आवश्यकता है। कटाई का सही चरण तब होता है जब अनाज में नमी 25-30% तक पहुंच जाती है। मैनुअल कटाई के लिए सेरेट एज सिकल का उपयोग करें। कंबाइन हार्वेस्टर भी उपलब्ध हैं जो एक ही ऑपरेशन में गेहूं की फसल की कटाई, थ्रेसिंग और विनोइंग कर सकते हैं।




फसल कटाई के बाद





मैनुअल कटाई के बाद, तीन से चार दिनों के लिए फसल को थ्रेसिंग फ्लोर पर सुखाया जाता है ताकि अनाज की नमी 10-12% तक कम हो जाए और फिर बैलों को रौंदकर या बैलों से जुड़े थ्रेशर से थ्रेसिंग की जाती है। सीधे धूप में सुखाने और अत्यधिक सुखाने से बचा जाना चाहिए और नुकसान को कम करने के लिए अनाज को अच्छी साफ बोरियों में पैक किया जाना चाहिए। हापुड़ टेकका एक बेलनाकार रबरयुक्त कपड़ा संरचना है जो धातु ट्यूब बेस पर बांस के खंभे द्वारा समर्थित है, और इसके नीचे एक छोटा सा छेद होता है जिसके माध्यम से अनाज को हटाया जा सकता है। बड़े पैमाने पर अनाज का भंडारण सीएपी (कवर और प्लिंथ) और साइलो में किया जाता है। भंडारण के दौरान कई कीट और बीमारियों को दूर रखने के लिए, बोरियों को कीटाणुरहित करने के लिए 1% मैलाथियान घोल का उपयोग करें। भण्डार गृह को ठीक से साफ करें, दरारों को हटा दें और चूहे के बिल को सीमेंट से भर दें। अनाज के भंडारण से पहले भंडारण घर को सफेद रंग से धो लें और मैलाथियान 50 ईसी @ 3 लीटर/100 वर्ग फुट का स्प्रे करें। मीटर। बैगों के ढेर को दीवार से 50 सेमी दूर रखें और ढेर के बीच में कुछ गैप दें। साथ ही छत और बैग के बीच गैप होना चाहिए।




संदर्भ





1.पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना

2.कृषि विभाग

3.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

4.भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान

5.कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय





गेहूँ








































































































































मध्य प्रदेश कम लागत से अधिक उत्पादन लेने हेतु नवीनतम  गेहूँ उत्पादन तकनीक
राष्ट्रीय तथा प्रादेशिक परिदृश्य-



























क्षेत्रफल (मि.हे.)उत्पादन (मि.टन)उत्पादकता (क्विं/हे.)
भारत29.793.531.5
मध्य प्रदेश5.313.35.3
प्रदेश की भागीदार18%14%18%

प्रदेश में गेहूँ  उत्पादकता से सम्बन्धित समस्याये
(अ) असिंचित / सीमित सिंचाई क्षेत्रों से सम्बन्धित-

  • विगत सात वर्षों का तापक्रम औसत विवरण निम्न हैं।
    निम्न तापक्रम में वृद्धि 2 - 30 सें
    उच्च तापक्रम में वृद्धि 3 - 50 सें

  • नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक तापक्रम में अधिक उतार - चढ़ाव

  • वास्तविक उच्च ताप प्रतिरोधि किस्मों का अभाव जो बदलते परिवेश में सामंजस्य कर सके

  • अंकुरण के समय नमी का क्षरण तथा दाना भरते समय उच्च तापक्रम

  • असिंचित क्षेत्रों में रूट राट (Root Rot) (जड़ सड़न) की समस्या

  • सोयाबीन - गेहूँ फसल प्रणाली में असिंचित/अर्धसिंचित गेहूँ  की देरी से बोवाई (प्रचलित किस्में लम्बी अवधि की है)

  • प्रचलित किस्मों की कम ‘‘जल उपयोग‘‘ तथा ‘‘पोषक तत्व उपयोग‘‘ क्षमता


(ब.) सिंचित क्षेत्रों से सम्बन्धित

  • रबी मौसम में ठण्ड की अवधि कम Short winter

  • अनिश्चित मौसम

  • कल्ले निकलने के समय तथा परागण के समय तापक्रम में वृद्धि जिससे समय से पूर्व फसल में परिपक्वता आती है

  • परिणाम स्वरूप दानों का भराव कम

  • उच्च तापक्रम के कारण भूमि से वाष्पन अधिक जिससे सिंचाई की संख्या तथा सिंचाई के पानी की मात्रा में वृद्धि

  • कमाण्ड क्षेत्रों में भी समय पर सिंचाई के लिए पानी की अनुपलब्धता

  • सिंचित क्षेत्रों में Seepage  तथा जल भराव की समस्या

  • बहु फसल प्रणाली के कारण देरी से बुवाई का अधिक रकबा


प्रदेश में गेहूँ की काश्त का बदलता स्वरूप
(अ)  पूर्व के वर्षों में असिंचित रकबा अधिक

  • अब पूर्ण रूप से असिंचित रकबे में उल्लेखनीय कमी

  • संचित नमी (Conserved Moisture)  में खेती लगभग समाप्त

  • स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धति ने इस परिदृष्य को बदला

  • लगभग पूरे प्रदेशमें कम से कम एक सिंचाई का उपयोग अतः पूर्णतः असिंचित रकबा लगभग समाप्त


(ब) सिंचित गेहूँ क्षेत्र में वास्तविक परिदृष्टि में सीमित सिंचाई उपलब्धता

  •  सिंचित शब्द से आभास होता है कि 5 -6 सिंचाई की उपलब्धता है

  •  वास्तविक रूप में पूरे प्रदेश में 5 - 6 सिंचाई अनुपलब्धता

  •  यहाँ तक कि समय से बोये गये गेहूँ में भी अधिकांश क्षेत्रों में मात्र 3 सिंचाई उपलब्धता

  •  देरी से बुवाई की स्थिति में मात्र दो सिंचाई उपलब्धता


उत्पादन तकनीक
खेत की तैयारी

  • ग्रीष्मकालीन जुताई

  • तीन वर्षों में एक बार गहरी जुताई

  • काली भारी मिट्टी को भुरभुरा (Fine Tilth) बनाना कठिन

  • रोटावेटर का प्रयोग उपयुक्त डिस्क हैरो का भी प्रयोग उपयुक्त बुवाई का उचित समय

  • असिंचित: मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक

  • अर्धसिंचित: नवम्बर माह का प्रथम पखवाड़ा

  • सिंचित (समय से): नवम्बर माह का द्वितीय पखवाड़ा

  • सिंचित (देरी से): दिसंबर माह का द्वितीय सप्ताह से


उपयुक्त किस्मों का चयन
(अ) मालवा अंचल: रतलाम, मन्दसौर,इन्दौर,उज्जैन,शाजापुर,राजगढ़,सीहोर,धार,देवास तथा गुना का दक्षिणी भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: भारी काली मिट्टी













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1500,
एच.आई. 1531,
एच.डी. 4672 (कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 322,
जे.डब्ल्यू. 273,
एच.आई. 1544,
एच.आई. 8498 (कठिया),
एम.पी.ओ. 1215
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864,
एच.आई. 1454

(ब) निमाड अंचल: खण्डवा, खरगोन, धार एवं झाबुआ का भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 500 से 1000 मि.मी.
मिट्टी: हल्की काली मिट्टी













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3020,
जे.डब्ल्यू. 3173,
एच.आई. 1500,
जे.डब्ल्यू. 3269
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.आई. 1418
इस क्षेत्र में देरी से बुआई से बचें समय से बुआई को प्राथमिकता क्योंकि पकने के समय पानी की कमी।
किस्में: जे.डब्ल्यू. 1202,
एच.आई. 1454

(स) विन्ध्य पठार: रायसेन, विदिशा, सागर, गुना का भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: मध्य से भारी काली जमीन













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
एच.आई. 8627(कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
एच.आई. 1544,
जी.डब्ल्यू. 273,
जे.डब्ल्यू. 1106 (कठिया),
एच.आई. 8498 (कठिया),
एम.पी.ओ. 1215 (कठिया),
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864,
डी.एल. 788- 2

(द) नर्मदा घाटी: जबलपुर, नरसिंहपुर, होषंगाबाद, हरदा
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1500 मि.मी.
मिट्टी: भारी काली एवं जलोढ मिट्टी













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
जे.डब्ल्यू. 3211,
एच.डी. 4672 (कठिया)
जे.डब्ल्यू. 1142,
जी.डब्ल्यू. 322, जे.डब्ल्यू. 1201, एच.आई. 1544, जे.डब्ल्यू. 1106, एच.आई. 8498, जे.डब्ल्यू. 1215
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2932,

(य) बैनगंगा घाटी:  बालाघाट एवं सिवनी
क्षेत्र की औसत वर्षा:  1250मि.मी.
मिट्टी:  जलोढ मिट्टी













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1544,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.आई. 1544,
राज 3067
जे.डब्ल्यू. 1202,
एच.डी. 2932,
डी.एल. 788- 2

(र) हवेली क्षेत्र: रीवा, जबलपुर का भाग, नरसिंहपुर का भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1375 मि.मी.
मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी
वर्षा के पानी को बंधान के द्वारा खेत में रोका जाता है।













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3020,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3269,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1500,
जे.डब्ल्यू. 1142,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1106,
जी.डब्ल्यू. 322,
एच.आई. 1544,
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एच.डी. 2864,
एच.डी. 2932,

ल. सतपुड़ा पठार: छिंदवाड़ा एवं बैतूल
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1000 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: हल्की कंकड़युक्त मिट्टी













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 17,
जे.डब्ल्यू. 3173,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 3288,
एच.आई. 1531,
एच.आई. 1418,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1215,
जी.डब्ल्यू. 366,
एच.डी. 2864,
एम.पी. 4010,
जे.डब्ल्यू. 1202,
जे.डब्ल्यू. 1203,

(व) गिर्द क्षेत्र: ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना एवं दतिया का भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 750 से 1000 मि.मी.
मिट्टी: जलोढ़ एवं हल्की संरचना वाली जमीनें













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3288,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1531,
जे.डब्ल्यू. 3269,
एच.डी. 4672
एच.आई. 1544,
जी.डब्ल्यू. 273,
जी.डब्ल्यू. 322,
जे.डब्ल्यू. 1201,
जे.डब्ल्यू. 1106,
जे.डब्ल्यू. 1215,
एच.आई. 8498
एम.पी. 4010,
जे.डब्ल्यू. 1203,
एच.डी. 2932,
एच.डी. 2864

(ह) बुन्देलखण्ड क्षेत्र: दतिया, शिवपुरी, गुना का भाग टीकमगढ़,छतरपुर एवं पन्ना का भाग
क्षेत्र की औसत वर्षा: 1120 से 1250 मि.मी.
मिट्टी: लाल एवं काली मिश्रित जमीन













असिंचित/अर्धसिंचितसिंचित(समय से)सिंचित(देरी से)
जे.डब्ल्यू. 3288,
जे.डब्ल्यू. 3211,
जे.डब्ल्यू. 17,
एच.आई. 1500,
एच.आई. 153
जे.डब्ल्यू. 1201,
जी.डब्ल्यू. 366,
राज 3067,
एम.पी.ओ. 1215,
एच.आई. 8498
एम.पी. 4010,
एच.डी. 2864

विशेष : सभी क्षेत्रों में अत्यन्त देरी से बुवाई की स्थिति में किस्में: एच.डी. 2404, एम.पी. 1202




















जी डब्लू 173लोक 1एम पी 4010
एम पी 1202एम पी 1203एच डी 2864
मध्य प्रदेश  राज्य वर्ष 2003 से कठिया गेहूँ कृषि निर्यात जोन चिन्हित किया गया है।
प्रदेश के गेहू उत्पादन में कठिया किस्मों का 8 से 10 प्रतिशत  योगदान है।

स्टेकिंग विधि से खेती के लिए सरकार से मिलेेगी 1.25 लाख रुपए की मदद(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

उन्नत कठिया किस्म
एच डी 8713 (पूसा मंगल) ,एच आई 8381 (मालवश्री) ,एच आई 8498 (मालवशक्ति) ,एच आई 8663 (पोषण),एम पी ओ 1106 (सुधा),एम पी ओ 1215, एच डी 4672(मालवरत्न) ,एच आई 8627 (मालवर्कीति)







जे डब्लू 3211जे डब्लू 3173

बीज की मात्रा


  • औसत रूप में 100 कि.ग्रा./हे. (हजार दाने का वजन 40 ग्राम तक है)

  • हजार दाने का वजन 1 ग्राम बढ़ने पर (40 ग्राम के उपर), 2.5 कि.ग्रा. प्रति/हे. बढ़ाते जायें

  • असिंचित / अर्धसिंचित दशा में कतार से कतार की दूरी 25 से.मी.

  • सिंचित (समय से) बुवाई की स्थिति में 23 से.मी.

  • बीज को उर्वरक के साथ न मिलाये

  • मिलाने पर 32 प्रतिशत  अंकुरण की कमी (5 वर्षो के अनुसंधान आँकड़े)

  • क्योंक गेहूँ  की फसल में अनुकूल मौसम होने पर प्रत्येक अवस्था में क्षतिपूर्ति रखने की क्षमता है।

  • अतः बीज कम फर्टिलाइजर ड्रिल का प्रयोग करें।

  • Gehun ki Top-5 Unnat kismen(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)


बीजोपचार 


  • बुवाई से पूर्व बीजों को उपचारित कर ही बोयें, बीजोपचार के लिये कार्बाक्सिन 75%, wp/कार्बनडाजिम 50% wp 2.5-3.0 ग्राम दवा/किलो बीज के लिए पर्याप्त होती है।

  • टेबूकोनोजाल 1 ग्राम/किलो बीज से उरापचारित करने पर कण्डवा रोग से बचाव होता है।

  • पी एस बी कल्चर 5 ग्राम/किलो बीज से उपचारित करने पर फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है।


पोषक तत्वों का प्रयोग 


  • मिट्टी परीक्षण अवश्य करायें

  • परीक्षण के आधार पर नत्रजन, फास्फेट एवं पोटाश की मात्रा का निर्धारण अनुशंसा -

  • प्रदेश में लगभग सभी जिलों में सूक्ष्म तत्वों की कमी

  • 25 कि.ग्रा./हे. की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग

  • जिंक सल्फेट का प्रयोग 3 फसल के उपरांत (न की प्रत्येक वर्ष)



































नत्रजनफास्फोरस पोटाष
असिंचित40200 कि.ग्रा./हे.
अर्धसिंचित603015 कि.ग्रा./हे.
सिंचित1206030 कि.ग्रा./हे.
देरी से804020 कि.ग्रा./हे.

सिंचाई -

  • जहाँ तक सम्भव हो स्प्रिंकलर का उपयोग करें

  • विश्वविद्यालय  से विकसित नयी किस्मों में 5 - 6 सिंचाई की आवश्यकता  नहीं

  • 3 - 4 सिंचाई पर्याप्त (55 - 60क्विंटल उपज)

  • एक सिंचाई: 40 - 45 दिनों बाद

  • दो सिंचाई: किरीट अवस्था, फूल निकलने के बाद

  • तीन सिंचाई: किरीट अवस्था, पूरे कल्ले निकलने पर, दाना बनने के समय

  • चार सिंचाई: किरीट अवस्था, पूरे कल्ले निकलने पर, फूल आने पर, दूधिया अवस्था


लागत में कमी (नयी तकनीक)

मेड़ - नाली पद्धति


  • बीज एवं उर्वरक में महंगे आदान इन्हें कम करने के लिये मेड़ - नाली पद्धति (FIRB)अपनाये बीज दर 30 - 35 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है

  • उर्वरक की खपत में कमी

  • नींदा नियंत्रण आसान

  • सिंचाई में पानी की कम मात्रा


अधिक गेहूँ  उत्पादन के विभिन्न तकनीकें
जीरो टिलेज तकनीक:-
धान की पछेती फसल की कटाई के उपरांत खेत में समय पर गेहूँ की बोनी के लिय समय नहीं बचता और खेत ,खाली छोड़ने के अलावा किसान के पास विकल्प नहीं बचता ऐसी दशा में एक विशेष प्रकार से बनायी गयी बीज एवं खाद ड्रिल मशीन से गेहूँ  की बुवाई की जा सकती है।
जिसमें खेत में जुताई की आवश्यकता नहीं पड़ती धान की कटाई के उपरांत बिना जुताई किए मशीन द्वारा गेहूँ  की सीधी बुवाई करने की विधि को जीरो टिलेज कहा जाता है। इस विधि को अपनाकर गेहूँ  की बुवाई देर से होने पर होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है एवं खेत को तैयारी पर होने वाले खर्च को भी कम किया जा सकता है।
इस तकनीक को चिकनी मिट्टी के अलावा सभी प्रकार की भूमियों में किया जा सकता है। जीरो टिलेज मशीन साधारण ड्रिल की तरह ही है इसमें  टाइन चाकू की तरह है यह टाइन्स मिट्टी में नाली जैसी आकार की दरार बनाता है जिससे खाद एवं बीज उचित मात्रा एवं गहराई पर पहुँचता है। इस विधि के निम्न लाभ है।:-

जीरो टिलेज तकनीक के लाभ :-

  • इस मशीन द्वारा बुवाई करने से 85-90 प्रतिशत इंधन, उर्जा एवं समय की बचत की जा सकती है।

  • इस विधि को अपनाने से खरपतवारों का जमाव कम होता है।

  • इस मशीन के द्वारा 1-1.5 एकड़ भूमि की बुवाई 1 घंटे में की जा सकती हैं यह कम उर्जा की खपत तकनीक है अतः समय से बुवाई की दशा में इससे खेत तैयार करने की लागत 2000-2500 रू. प्रति हेक्टर की बचत होती है।

  • समय से बुवाई एवं 10-15 दिन खेत की तैयारी के समय को बचा कर बुवाई करने से अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।

  • बुवाई शुरू करने से पहले मशीन का अंशशोधन कर ले जिससे खाद एवं बीज की उचित मात्रा डाली जा सके।

  • इस मशीन में सिर्फ दानेदार खाद का ही प्रयोग करें जिससे पाइपों में अवरोध उत्पन्न न हो।

  • मशीन के पीछे पाटा कभी न लगाएँ।


फरो इरीगेशन रेज्ड बेड (फर्व) मेड़ पर बुवाई तकनीक:-

  • मेड़ पर बुवाई तकनीक किसानों में प्रचलित कतार में बोनी या छिड़ककर बोनी से सर्वथा भिन्न है इस तकनीक में गेहूँ को ट्रेक्टर चलित रोजर कम ड्रिल से मेड़ों पर दो या तीन कतारों में बीज बोते है। इस तकनीक से खाद एवं बीज की बचत होती है। एवं उत्पादन भी प्रभावित नहीं होता है। इस तकनीक से उच्च गुणवत्ता वाला अधिक बीज उत्पादन किया जा सकता है।


मेड़ पर (फर्व) फसल लेने से लाभ

  • बीज, खाद एवं पानी की मात्रा में कमी एवं बचत, मेडों में संरक्षित नमी लम्बे समय तक फसल को उपलब्ध रहती है एवं पौधों का विकास अच्छा होता है।

  • गेहूँ उत्पादन लागत में कमी।

  • गेहूँ की खेती नालियों एवं मेड़ पर की जाती इससे फसल गिरने की समस्या नहीं होती। मेड पर फसल होने से जड़ों की वृद्धि अच्छी होती है एवं जड़ें गहराई से नमी एवं पोषक तत्व अवशोषित करते हैं।

  • इस विधि से गेहूँ उत्पादन में नालियो का प्रयोग सिंचाई के लिये किया जाता है यही नालियाँ अतिरिक्त पानी की निकासी में भी सहायक होती हैं।

  • दलहनी एवं तिलहनी फसलों की उत्पादकता में वृद्धि होती है।

  • मशीनो द्वारा निंदाई गुड़ाई भी की जा सकती है।

  • अवांछित पौधों को निकालने में आसानी रहती है।


वैष्विक उष्णता


  • एक शताब्दी के मौसम आँकड़ों से स्पष्ट है कि 2009 - 10 में तापमान (निम्न) 10 सें. अधिक तथा उच्च तापमान 20 सें. अधिक रहा

  • जवाहरलाल नेहरू कृषि  विश्वविद्यालय द्वारा जे.डब्ल्यू. 1142, जे.डव्ल्यू. 1201, जे.डब्ल्यू. 3211 एवं जे.डब्ल्यू. 3288 किस्में विकसित की गई उच्च ताप पर भी अधिक उत्पादन देने की क्षमता है।


जल तथा पोषक तत्व उपयोग क्षमता


  • निरंतर सिंचाई जल का भूमि में क्षरण तथा सिंचाई जल की कमी से फसल प्रभावित

  • अधिक ‘‘जल उपयोग क्षमता‘‘ एवं ‘‘पोषक तत्व उपयोग क्षमता‘‘ वाली किस्मों का विकास किया गया












































किस्मअवस्था (उपज क्विंटल /हे.)
असिंचितएक सिंचाईदो सिंचाई
जे.डब्ल्यू. 1718-2030-32-
जे.डब्ल्यू. 302018-2032-3440-42
जे.डब्ल्यू. 317318-2034-3640-42
जे.डब्ल्यू. 321118-2037-3943-45
जे.डब्ल्यू. 326918-2037-3943-45

 
काले गेरूआ के नये प्रभेद का प्रकोप (UG 99)


  • मध्य प्रदेश काला गेरूआ के प्रकोप के लिये सबसे अनुकूल

  • गेरूआरोधी किस्मों के विकास के कारण नियंत्रण


जवाहरलाल नेहरू कृषि  विश्वविद्यालय द्वारा एम पी ओ 1215, एम पी 3336, एम पी 4010 किस्में विकसित की इन किस्मों को ‘‘कीनिया‘‘में परीक्षण किया गया। सभी किस्में भन्ह 99 के प्रतिरोधी एवं अधिक उत्पादन देने की क्षमता है।








गुणों का संकलन (Value addition)


  • म.प्र. का गेहूँ देश में गुणवत्ता में सर्वश्रेष्ठ दानों की चमक तथा दानों का वजन अधिक

  • दूसरे राज्यों की तुलना में प्रोटीन की मात्रा 1 प्रतिशत  अधिक

  • अभी तक प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने का प्रयास किया गया

  • वर्तमान में विकसित किस्में सूक्ष्म तत्वों से भरपूर है।

  • विश्वविद्यालय से विकसित किस्में जे.डब्ल्यू. 1202 एवं जे.डब्ल्यू. 1203 में, देश में विकसित अन्य किस्मों की अपेक्षा सबसे अधिक प्रोटीन

  • वर्तमान में  विश्वविद्यालय विकसित किस्मों में सबसे अधिक ‘‘विटामिन ए‘‘

  • सबसे अधिक लोहा, जिंक तथा मैगनीज


ज.ने.कृ.वि.वि. द्वारा विकसित किस्मों में गुणवत्ता का समादेश















































































ट्रेंटकिस्म
जे.डब्ल्यू1201जे.डब्ल्यू1203जी.डब्ल्यू. 173डी.एल. 788-2 एम.पी.4010
प्रोटीन प्रतिशत12.6413.5012.2012.412.43
सेडीमेंटशन वेल्यू4338384041
एक्सटेªक्षन रेट70.670.970.469.569.9
ग्लूटेन इंडेक्स6352515648
बी - केरोटीन3.103.772.192.612.81
लोहा (पी.पी.एम.)42.233.937.037.140.5
जिंक (पी.पी.एम.)41.935.333.933.634.4
मैंग्नीज (पी.पी.एम.)51.949.741.350.843.5

म.प्र. का सकारात्मक पक्ष

गेंहू की संपूर्ण जानकारी A To Z(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)


  • असिंचित क्षेत्र में कमी

  • सिंचाई की सुविधाऐं बढ़ी

  • स्प्रिंकलर पद्धति का उपयोग

  • उर्वरक की खपत बढ़ी

  • सूक्ष्म तत्वों का भी उपयोग बढ़ा

  • नये किस्मों के विकास की गति एवं उपलब्धता संतोषजनक

  • अच्छी गुणवत्ता के बीजों की उपलब्धता

  • उदाहरण के रूप में  विश्वविद्यालय ‘‘बीज उत्पादन‘‘ में देश  में प्रथम

  • कठिया गेहूँ में ‘‘करनाल बन्ट, यलोबेरी, कालाधब्बा‘‘ आदि के प्रकोप से मुक्त

  • अतः निर्यात की सम्भावना बढ़ी


खरपतवार नियंत्राण
खरपतवारों द्वारा 25-35 प्रतिशत  तक उपज में कमी आने की संभावना बनी रहती है। यह कमी फसल में खरपतवारों की सघनता पर निर्भर करती है उत्पादन में कमी के अलावा फसल को दिये गये पोषक तत्व, जल, प्रकाश एवं स्थान आदि का उपयोग खरपतवार के पौधों के स्वयं के द्वारा करने के कारण होती है गेहूँ  में नीदाँ नियंत्रण उपायों को मुख्यतः तीन विधियों से किया जा सकता है।
गेहूँ की फसल में होने वाले खरपतवार मुख्यतः दो भागों में बांटे जाते है।

  • चौड़ी पत्ती - बथुआ, सेंजी, दूधी, कासनी, जंगली पालक अकरी, जंगली मटर, कृष्णनील, सत्यानाषी हिरनखुरी आदि।

  • सकरी पत्ती - मोथा, कांस, जंगली जई, चिरैया बाजरा एवं अन्य घासें।

  • धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)


रासायनिक विधि:-
रासायनिक विधि से नींदा तक को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि इससे समय की बचत होती है। रूप से भी लाभप्रद रहता है। इस विधि से नींदा नियंत्रण निम्न प्रकार करते हैं -नींदनाशक रसायनों की मात्रा एवं प्रयोग समय:-













































नींदानाशकखरपतवारदर/हे.प्रयोग का समय
पेण्डीमिथेलीन संकरी एवं चौड़ी1.0 किग्रा.बुवाई के तुरन्त बाद
सल्फोसल्फूरान संकरी एवं चौड़ी33.5 ग्रा.बुवाई के 35 दिन तक
मेट्रीब्यूजिन संकरी एवं चौड़ी250 ग्रा.बुवाई के 35 दिन तक
2, 4 - डी चौड़ी पत्तिया0.4 - 0.5 किग्रा.बुवाई के 35 दिन तक
आइसोप्रोपयूरानसंकर पत्तिया750 ग्रा.बुवाई के 20 दिन तक
आइसोप्रोपयूरान +2, 4 - डीचौड़ी पत्तिया एवं संकरी पत्तिया750 ग्रा +750 ग्रा.बुवाई के 35 दिन तक

गेहूँ के विपुल उत्पादन के लिए मुख्य आवश्यक बातें:-


  • मिट्टी की जांच के बाद उर्वरकों को प्रयोग करें। संतुलित मात्रा में समय पर उर्वरक दें। उर्वरकों का सही प्लेसमेंट उत्पादन बढ़ाने में एवं उर्वरक उपयोग क्षमता बढ़ाने में योगदान देता है। उर्वरको को बीज से 2-3 सेमी नीचे डाले। कार्बनिक एवं जैविक स्रोतों का भरपूर उपयोग करे जिससे मृदा स्वास्थ्य एवं उत्पादकता बढ़ती है।

  • बीजदर अनुशंसित मात्रा में उपयोग करे। क्षेत्र विशेष के अनुसार शुद्ध, स्वस्थ्य, कीट एवं रोग रोधी किस्मों का चयन करें। समय पर बोनी करे। बीज एवं खाद एक साथ मिलाकर बोनी न करें। देर से बुवाई की अवस्था में संसाधन प्रबंधन तकनीक जैसे, जीरो टिलेज का प्रयोग करें। यथासंभव बुवाई लाइनों में करें क्रासिंग न करें। पौध संख्या अनुशंसा से ज्यादा न करें।

  • खरपतवार नियंत्रक उपाय समय पर करें। खरपतवारनाशी दवाओं का इस्तेमाल करते समय ध्यान दे कि फसल में नीदाओं की सघनता एवं नीदाओं के प्रकार के हिसाब से रसायन का चयन करें। खरपतवार नाशी दवा का उपयोग मृदा में पर्याप्त नमी होने की दशा में सही मात्रा एवं घोल का इस्तेमाल करें।

  • गेहूँ  में सिंचाई मिट्टी का प्रकार सिंचाई साधन, सिंचाई उपकरण को ध्यान में रखकर क्रान्तिक अवस्थाओं पर सिंचाई देवे।

  • कीट एवं रोग नियंत्रक उपाय समय पर करें।

  • गेहूँ फसल की कटाई उपरांत नरवई खेतों में न जलायें, नरवई जलाने से खेतों की मृदा में उपलब्ध लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं का ह्रास होता हैं नरवई की आग से लोगों के घरों में भी आग लगती है। एवं जन व पशुधन हानि की भी संभावना रहती है। गेहूँ  की फसल कटाई उपरांत खेतों में समुचित नमी की दशा में रोटावेटर चलाने से नरवई कटकर मिट्टी में मिल जाती है जो कि मृदा के लिए लाभदायक भी है।

  • आज के समय में रसायनों के असंयमित प्रयोग से खेती की उत्पादन लागत बढ़ रही है। आवश्यकता है कि इस उत्पादन लागत को कम किया जाये। उत्पादन लागत को कम करने का सस्ता एवं प्रभावी तरीका है समन्वित प्रबंधन उपायों को अपनाना।

  • मौसम के परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग के कारण धरती के बढ़ते तापमान एवं अनिश्चितता के कारण दिन प्रतिदिन कीड़े एवं बीमारियों की समस्या फसलों में बढ़ रही है। इनके प्रभावी प्रबंधन हेतु समन्वित उपायों को अपनाना नितांत आवश्यक है।

  • खेती में उत्पादन प्राप्त करने के लिये समय पर कुशल प्रबंधन एवं सही निर्णय आवश्यक है कई बार किसान भाई खरपतवार नियंत्रक उपायों को देर से अपनाते हैं जिसके कारण खरपतवार फसल की क्रांतिक अवस्था निकल जाती है एवं खरपतवार के पौधे मजबूत हो जाते हैं फिर उनका नियंत्रण रसायनों से भी मुश्किल होता है।






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