मसूर
मसूर की खेती
- भूमिका
- उन्नतशील प्रजातियॉं
- मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
- खेत की तैयारी
- बुआई का समय
- बीजदर
- बीजशोधन/बीजोपचार
- बुआई की विधि
- उर्वरक
- अन्तर्वर्ती खेती
- सिंचाई
- खरपतवार नियंत्रण
- कीट एवं रोग नियंत्रण
- कटाई एवं मड़ाई
- उपज
- भण्डारण
- आइसोपाम सुविधा
- मसूर की बुवाई रबी में अक्टूबर से दिसंबर तक होती है, परंतु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर का समय इसकी बुवाई के लिए काफी उपयुक्त है।
- मसूर की खेती के लिए हल्की दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त रहती है। ...
- मयूर की अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 5.8-7.5 के बीच होना चाहिए।
धरती
मसूर की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है। लवणीय, क्षारीय या जल भराव वाली मिट्टी से बचना चाहिए। मिट्टी भुरभुरी और खरपतवार मुक्त होनी चाहिए ताकि बीज को एक समान गहराई पर रखा जा सके।
उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में
LL 699: जल्दी पकने वाली, छोटी किस्म गहरे हरे पत्तों के साथ। 145 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह फली छेदक के लिए प्रतिरोधी है और जंग और झुलस रोग को सहन कर सकता है। यह औसतन 5 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
LL 931: गहरे हरे पत्तों और गुलाबी फूलों के साथ छोटी किस्म। 146 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह फली छेदक के लिए प्रतिरोधी है। यह 4.8 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
अन्य राज्य किस्म:
बॉम्बे 18 : 130-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 4-4.8 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
डीपीएल 15: 130-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 5.6-6.4 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
डीपीएल 62 : 130-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार। औसतन 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
एल 4632
चना (छोला)(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
के 75:120-125 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 5.6-6.4 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
पूसा 4076: 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 10-11 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।
भूमि की तैयारी
हल्की मिट्टी के मामले में, बीज-बिस्तर तैयार करने के लिए कम जुताई या मिट्टी में हेरफेर की आवश्यकता होती है। भारी मिट्टी होने पर एक गहरी जुताई के बाद 3-4 क्रॉस हैरोइंग करनी चाहिए। भूमि के उचित चूर्णीकरण के लिए 2-3 जुताई पर्याप्त हैं। पानी के उचित वितरण के लिए खेत का समतलीकरण भी किया जाना चाहिए। बीज बोने के समय खेत में उचित नमी होनी चाहिए।
बोवाई
बीज बोने का समय
अक्टूबर के मध्य से नवंबर के पहले सप्ताह में बोना चाहिए।
बीजों को 22 सेंटीमीटर की दूरी
पर पंक्तियों में बोना चाहिए। देर से बुवाई की स्थिति में कतार की दूरी को 20 सेमी तक कम करना चाहिए। बुवाई की गहराई बीज को 3-4 सें.मी. की गहराई पर बोयें। बुवाई की विधि बुवाई के लिए पोरा विधि या बीज सह उर्वरक ड्रिल का प्रयोग करें। बीज को हस्तचालित प्रसारण द्वारा भी बोया जा सकता है।
धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
बीज
बीज दर
12-15 किग्रा/एकड़ की बीज दर इष्टतम है।
बीज उपचार
बीज को बुवाई से पहले कैप्टन या थीरम @ 3 ग्राम / किग्रा बीज से उपचारित करना चाहिए।
कवकनाशी/कीटनाशक का नाम | मात्रा (खुराक प्रति किलो बीज) |
कप्तान | 3 ग्राम |
थिराम | 3 ग्राम |
उर्वरक
उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)
यूरिया | एसएसपी | पोटाश का मूरिएट |
12 | 50 | - |
पोषक तत्वों की आवश्यकता (किलो/एकड़)
नाइट्रोजन | फॉस्फोरस | पोटाश |
5 | 8 | - |
मध्यप्रदेश की सभी मंडियों के आज के भाव(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
5 किलो नाइट्रोजन (12 किलो यूरिया), 8 किलो पी 2 ओ 5 (50 किलो सुपरफॉस्फेट) प्रति एकड़ बुवाई के समय डालना चाहिए जब बीज राइजोबियम संस्कृति के साथ टीका लगाया जाता है। यदि बीज को राइजोबियम से टीका नहीं लगाया जाता है, तो पी 2 ओ 5 की खुराक को दोगुना कर दें ।
खरपतवार नियंत्रण
मसूर में पाए जाने वाले मुख्य खरपतवार हैं चेनोपोडियम एल्बम (बथुआ), विकिया सैटिवा (अंकारी), लैथिरस एसपीपी (चत्रिमात्री) आदि। इन्हें 30 और 60 दिनों के अंतराल पर 2 गुड़ाई द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। उचित फसल खड़े और उपज के लिए 45-60 दिनों की खरपतवार मुक्त अवधि को बनाए रखना चाहिए। स्टम्प 30EC@550 मिली प्रति एकड़ को बुवाई के 50 दिन बाद एक निराई के साथ लगाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण में मदद मिलती है।
सिंचाई
मसूर की खेती मुख्य रूप से बारानी फसल के रूप में की जाती है। जलवायु परिस्थितियों के आधार पर सिंचित परिस्थितियों के मामले में इसे 2-3 सिंचाई की आवश्यकता होती है। एक सिंचाई बुवाई के 4 सप्ताह बाद और दूसरी फूल आने की अवस्था में करनी चाहिए। फली बनना और फूल आना पानी की आवश्यकता के महत्वपूर्ण चरण हैं।
प्लांट का संरक्षण
- कीट और उनका नियंत्रण:
फली छेदक : यह मुख्य रूप से हरे पौधों की पत्तियों, फूलों, फली-अनाजों को खाता है। यह मसूर का एक गंभीर कीट है जो अत्यधिक उपज हानि का कारण बनता है। फूल आने के समय 900 ग्राम हेक्साविन 50WP को 90 लीटर पानी प्रति एकड़ में मिलाकर छिड़काव किया जा सकता है। यदि आवश्यक हो तो 3 सप्ताह के बाद स्प्रे दोहराया जाना चाहिए।
- रोग और उनका नियंत्रण:
जंग: पौधों की तना शाखाओं, फलियों और पत्तियों पर पीले सफेद दाने विकसित होते हैं। वे अकेले या समूहों में प्रकट हो सकते हैं। छोटे फुंसी धीरे-धीरे बड़े आसनों में विकसित हो सकते हैं। गंभीर मामलों में, प्रभावित पौधे सूख सकते हैं और जले हुए रूप दे सकते हैं। सहनशील किस्मों को उगाने से जंग को रोकने में मदद मिल सकती है। नियंत्रण के लिए 400 ग्राम एम-45 @200 लीटर पानी प्रति एकड़ में मिलाकर स्प्रे करें।
झुलस रोग : तने, पत्तियों और फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। ये घाव धीरे-धीरे बढ़ते हैं। कभी-कभी धब्बे संकेंद्रित वलय के रूप में बनते हैं। रोग मुक्त बीज का प्रयोग करें, फसल के बाद रोगग्रस्त पौधे के मलबे को नष्ट कर दें ताकि झुलसा की संभावना को कम किया जा सके। नियंत्रण के लिए 400 ग्राम बाविस्टिन 200 लीटर पानी में प्रति एकड़ स्प्रे करें।
फसल काटने वाले
कटाई उचित समय पर की जानी चाहिए जब पौधा सूख जाए और फलियां पक जाएं। फली के अधिक पकने से बचना चाहिए क्योंकि टूटने के कारण उपज नष्ट हो सकती है। पौधों को डंडों से पीटना चाहिए। थ्रेसिंग के बाद बीज को साफ कर धूप में सुखाया जाता है। भंडारण के समय नमी की मात्रा 12% होनी चाहिए।
भूमिका
उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश व बिहार में मुखय रूप से मसूर की खेती की जाती है। इसके अलावा बिहार के ताल क्षेत्रों में भी मसूर की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। चना तथा मटर की अपेक्षा मसूर कम तापक्रम, सूखा एवं नमी के प्रति अधिक सहनशील है।दलहनी वर्ग में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल है । प्रचलित दालों में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है । मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्रा. रेशा, 68 मिग्रा. कैल्शियम, 7 मिग्रा. लोहा, 0.21 मिग्रा राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा. थाइमिन तथा 4.8 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है । रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्योकि यह अत्यंत पाचक है। दाल के अलावा मसूर का उपयोग विविध नमकीन और मिठाईयाँ बनाने में भी किया जाता है। इसका हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण भूमि में करते है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । अतः फसल चक्र में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है ।इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल के रूप में भी उगाया जाता है।मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परस्थितिओं वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है।
उन्नतशील प्रजातियॉं
- छोटे दाने वाली प्रजातियॉं:
पन्त मसूर-4, पूसा वैभव, पन्त मसूर-406, पन्त मसूर-639, डी0पी0एल0-32, पी0एल0-5
- बड़े दाने वाली प्रजातियॉं:
डी0पी0एल0-15 डी0पी0एल0-62 (एक्सटा्र बोल्ड)ए के0-75 (मलका)ए नरेन्द्र मसूर-1 (मीडियम बोल्ड)ए जे0एल0-3, एल0-4076, एल0एच0 84-8, आई0पी0एल0-81
राज्यवार प्रमुख प्रजातियों की अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन के अन्तर्गत पैदावार निम्न तालिका में दर्शायी गयी है-
राज्य | प्रजाति | उपज कि0ग्रा0/है0 | %वृद्धि | ||
उन्नत | लोकल | उन्नत | लोकल | ||
दिल्ली | एल0-4076 शिवालिक एल0-4147 (पूसा वैभव) | लोकल लोकल | 1537 1318 | 995 932 | 54.5 41.4 |
बिहार | पन्त मसूर-406 अरूण | लोकल लोकल | 1720 1683 | 1150 1156 | 49.6 46.3 |
मध्य प्रदेश | जे0एल0एस0-1 आई0एल0-1 | लोकल लोकल | 850 989 | 610 765 | 39.3 29.3 |
मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं
नरेन्द्र मसूर-1 (एनएफएल-92): यह किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होकर 15-20 क्विंटल उपज देती है । रस्ट रोग प्रतिरोधी तथा उकठा रोग सहनशील किस्म है ।
पूसा - 1: यह किस्म जल्दी पकने (100 - 110 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानो का वजन 2.0 ग्राम है। यह जाति सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
पन्त एल-406:यह किस्म लगभग 150 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 30-32क्विंटल प्रति हैक्टर है ।रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म उत्तर, पूर्व एवं पस्चिम के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
टाइप - 36: यह किस्म 130 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 20 से 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानो का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है।
बी. 77: यह किस्म 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसत उपज 18 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है। इसके 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम है। यह किस्म सतपुड़ा क्षेत्र (सिवनी, मण्डला एवं बैतुल) के लिए उपयुक्त है।
एल. 9-12: यह किस्म देर से पकने (135 - 140 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म ग्वालियर, मुरैना तथा भिंड क्षेत्र के लिये उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-1: यह बड़े दानो वाली जाति है तथा 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । औसतन उपज 20 - 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह किस्म सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिले तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-2: यह किस्म 100 दिन मे पककर तैयार होती है एवं औसतन उपज 20 - 22क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दानला बहुत बड़ा है। 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह म. प्र. के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिलों तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
नूरी (आईपीएल-81): यह अर्द्ध फैलने वाली तथा शीघ्र पकने (110 - 120 दिन) वाली किस्म है। इसकी औसत उपज 12 - 15क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम है। यह किस्म छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. - 3: यह 100 - 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है जो 12 - 15क्विंटल औसत उत्पादन देती है। यह बड़े दानो वाली (2.7 ग्रा/100 बीज) एवं उकठा निरोधी जाति है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
मलिका (के -75): यह 120 - 125 दिनों मे पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है। बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार (100 बीजों का भार 2.6 ग्राम) के होते है। औसतन 12 - 15क्विंटल /हे. तक पैदावार देती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
सीहोर 74-3: मध्य क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 120-125 दिन में तैयार ह¨कर 10-15क्विंटल उपज देती है । इसका दाना बड़ा ह¨ता है तथा 100 दानों का भार 2.8 ग्राम होता है ।
सपनाः यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 21क्विंटल उपज देती है । उत्तर पश्चिम क्षेत्रों के लिए उपयुक्त पाई गई है । दाने बड़े होते है । रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
पन्त एल-234: यह किस्म 130-150 दिन में तैयार होती है तथा औसतन उपज क्षमता 15-20 क्विंटल प्रति हैक्टर है । उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी पाई गई है ।
बीआर-25: यह किस्म 125-130 दिन में पकती है जिसकी उपज क्षमता 15-20क्विंटल प्रति हैक्टर ह¨ती है । बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
पन्त एल-639: भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त यह किस्म 130-140 दिन में पककर तैयार ह¨ती है । इसकी उपज क्षमता 18-20 क्विंटल प्रति हैक्टर होती है । रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है जिसके दाने कम झड़ते है ।
खेत की तैयारी
एक दो जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें। मृदा नमी संरक्षण एवं भूमि समतलीकरण हेतु प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं। तत्पश्चात एक जुताई हैरो या देशी हल से करें।
बुआई का समय
20 अक्तूबर से 15 नवम्बर
बीजदर
30-45 कि0ग्रा0 प्रति है0 (छोटे दानों वाली प्रजातियों के लिए)
45-60 कि0ग्रा0 प्रति है0 (बड़े दानों वाली प्रजातियों के लिए)
60-80 कि0ग्रा0 प्रति हे0 (ताल क्षेत्र के लिए)
बीजशोधन/बीजोपचार
बीज जनित फफॅूंदी रोगो से बचाव के लिए थीरम़ एवं कार्वेन्डाजिम (2:1) से 3 ग्राम प्रति कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए। तत्पश्चात कीटों से बचाव के लिए बीजों को क्लोरोपाइरीफास 20 ई0सी0, 8 मि0ली0 प्रति कि0ग्रा0 बीज की दर से उपचारित कर लें।
नये क्षेत्रों में बुआई करने पर बीज को राइजोबियम के प्रभावशाली स्ट्रेन से उपचारित करने पर 10 से 15 प्रतिशत की उपज वृद्धि होती है। 10 कि0ग्रा0 मसूर के बीज के लिए राइजोबियम कल्चर का एक पैकेट पर्याप्त होता है। 50 ग्रा0 गुड़ या चीनी को 1/2 ली0 पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 कि0ग्रा0 बीज डाल कर अच्छी प्रकार मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जायें। उपचारित बीजों को छाया में सुखा कर, दूसरे दिन बोया जा सकता है। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें, व बीज उपचार दोपहर के बाद करें। राइजोबियम कल्चर न मिलने की स्थिति में उस खेत से जहॉं पिछले वर्ष मसूर की खेती की गयी हो 100 से 200 किग्रा0 मिट्टी खुरचकर बुआई के पूर्व खेत में मिला देने से राइजोबियम वैक्टिीरिया खेत में प्रवेश कर जाता है और अधिक वातावरणीय नत्रजन का स्थरीकरण होने से उपज में आशातीत वृद्धि होती है।ताल क्षेत्र में राइजोबियम उपचार की आवश्यकता कम रहती है।
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बुआई की विधि
बुआई देशी हल/सीड डि्रल से पंक्तियों में करें। सामान्य दशा में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से0मी0 व देर से बुआई की स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20 से0मी0 ही रखें। उतेरा विधि से बोआई करने हेतु कटाई से पूर्व ही धान की खड़ी फसल में अन्तिम सिंचाई के बाद बीज छिटक कर बुआई कर देते है। इस विधि में खेत तैयार करने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु अच्छी उपज लेने के लिए सामान्य बुआई की अपेक्षा 1.5 गुना अधिक बीज दर का प्रयोग करना चाहिए। ताल क्षेत्र में वर्षा का पानी हटने के बाद, सीधे हल से बीज नाली बना कर बुआई की जा सकती है। गीली मिट्टी वाले क्षेत्रों में जहॉं हल चलाना संभव न हो बीज छींट कर बुआई कर सकते हैं। मसूर की बुआई हल के पीछे पंक्तियों में ही करना चाहिए।
उर्वरक
मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीज की सतह से 2 से0मी0 गहराई व 5 से0मी0 साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। सामान्यतयः मसूर की फसल को प्रति हैक्टेयर 15-20 कि0ग्रा0 नाइट्रोजन, 50 कि0ग्रा0 फास्फोरस, 20 कि0ग्रा0 पोटाश एवं 20 कि0ग्रा0 गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहॉं पर प्रति हैक्टर 15-20 कि0ग्रा0 जिन्क सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन एवं फासफोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 डाइ अमोनियम फासफेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 कि0ग्रा0 जिप्सम प्रति हे0 का प्रयोग करने पर उत्तम परिणाम प्राप्त होते हैं।सरसों(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)
अन्तर्वर्ती खेती
सरसों की 6 पंक्तियों के साथ मसूर की दो पंक्तियॉं व अलसी की 2 पंक्तियों के साथ मसूर की
एक पंक्ति बोने पर विशेष लाभ कमाया जा सकता है।
सिंचाई
ताल क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में वर्षा न होने पर अधिक उपज लेने के लिए बुआई के 40-45 दिन बाद व फली में दाना पड़ते समय सिंचाई करना लाभप्रद रहता है।
खरपतवार नियंत्रण
बुआई के तुरन्त बाद खरपतवारनाशी रसायन पेन्डीमेथलीन 30 ई0सी0 का 3-4 ली0 प्रति हे0 की दर से छिड़काव किया जाना चाहिए। किन्तु यदि पूर्व में खेत में गम्भीर समस्या नहीं रही हो तो बुआई से
25-30 दिन बाद एक निकाई करना पर्याप्त रहता है।
कीट एवं रोग नियंत्रण
- कटुआ
इस कीट का आक्रमण होने पर प्रभावित क्षेत्रों में क्लोरोपाइरीफास 1.5 प्रतिशत 20-25 कि0ग्रा0/हे0
धूल मिट्टी में मिला दें ताकि गिडार नद्गट हो जाए।
- माहू (एफिड)
इस कीट से बचाव के लिए प्रकोप आरम्भ होते हैं। 0.04 प्रतिशत मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करें।
- रतुआ (रस्ट)
मसूर फसल को इस रोग से अत्यधिक नुकसान होता है पछेती फसल में इसका प्रकोप ज्यादा होता है।
- समय से बुआई करें।
- रोगरोधी प्रजातियॉं जैसे पन्त मसूर-4, पन्त मसूर-639 आदि का चुनाव करें।
- बचाव के लिए फसल पर मैंकोजेब 45 डबलू0पी0 कवकनाशी का 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर 10-12 दिन के अन्तर पर दो बार छिड़काव करें
- Swaraj 963 FE TRACTOR INFORMATION
कटाई एवं मड़ाई
जब 70-80 प्रतिशत फलियॉं पक जाएं, हंसिया से कटाई आरम्भ कर देना चाहिए। तत्पश्चात
वण्डल बनाकर फसल को खलिहान में ले आते हैं। 3-4 दिन सुखाने के पश्चात बैलों की दायें चलाकर या थ्रेसर द्वारा भूसा से दाना अलग कर लेते हैं।
Swaraj 963 FE TRACTOR INFORMATION
उपज
उन्नत सस्य विधियों एवं नवीन प्रजातियों की सहायता से प्रति हैक्टेयर 15-20 कुन्तल तक उपज प्राप्त की जा सकती है।
भण्डारण
भण्डारण के समय दानों में नमी का प्रतिशत 10 से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डार गृह में 2 गोली अल्युमिनियम फास्फाइड/टन रखने से भण्डार कीटों से सुरक्षा मिलती है। भण्डारण के दौरान मसूर को अधिक नमी से बचाना चाहिए।
मसूर उत्पादन तकनीक | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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उन्नतषील प्रजातियाँ | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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जलवायु | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर एक दीर्घ दीप्तिकाली पौधा है इसकी खेती उपोष्ण जलवायु के क्षेत्रों में जाडे के मौसम में की जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
1.भूमि एवं खेत की तैयारीः- | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बीज एवं बुआईः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बीजोपचार: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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बुआई का समय: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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पौषक तत्व प्रबंधनः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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निंदाई-गुडाई: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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पौध सुरक्षाः | ||||||||||||||||||||||||||||||||
(अ) रोग इस रोग का प्रकोप होने पर फसल की जडें गहरे भूरे रंग की हो जाती है तथा पत्तियाँ नीचे से ऊपर की ओर पीली पडने लगती है। तथा बाद में सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। किसी किसी पौधें की जड़े शिरा सडने से छोटी रह जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कालर राट या पद गलन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
यह रोग पौघे पर प्रारंभिक अवस्था में होता है। पौधे का तना भूमि सतह के पास सड जाता है। जिससे पौधा खिचने पर बडी आसानी से निकल आता है। सडे हुये भाग पर सफेद फफुंद उग आती है जो सरसों की राई के समान भूरे दाने वाले फफूद के स्कलेरोषिया है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
जड़ सडन: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
यह रोग मसूर के पौधो पर देरी से प्रकट होता है, रोग ग्रसित पौधे खेत में जगह जगह टुकडों में दिखाई देते है व पत्ते पीले पड जाते है तथा पौधे सूख जाते है। जड़े काली पड़कर सड़ जाती है। तथा उखाडने पर अधिक्तर पौधे टूट जाते है व जडें भूमि में ही रह जाती है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
(ब) रोग प्रबंधन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
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गेरूई रोग | ||||||||||||||||||||||||||||||||
इस रोग का प्रकोप जनवरी माह से प्रभावित होता है तथा संवेदनषील किस्मों में इससे अधिक क्षति होती है। इस रोग का प्रकोप होने पर सर्वप्रथम पत्तियों तथा तनों पर भूरे अथवा गुलावी रंग के फफोले दिखाई देते है जो बाद में काले पढ जाते है रोग का भीषण प्रकोप होने पर सम्पूर्ण पौधा सूख जाता है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
रोग का प्रबंधन | ||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रभावित फसल में 0.3% मेन्कोजेब एम-45 का 15 दिन के अन्तर पर दो बार अथवा हेक्जाकोनाजोल 0.1% की दर से छिडकाव करना चाहिये। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कीट नियंत्रण | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल में मुख्य रूप से माहु तथा फलीछेदक कीट का प्रकोप होता है। माहू का नियंत्रण इमिडाक्लोरपिड 150 मिलीलीटर / हें. एवं फली छेदक हेतु इमामेक्टीन बेजोइट 100 ग्रा. प्रति हें. की दर से छिडकाव करना चाहिये। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
कटाई: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल के पककर पीली पडने पर कटाई करनी चाहियें। पौधें के पककर सूख जाने पर दानों एवं फलियों के टूटकर झडने से उपज में कमी आ जाती है। फसल को अच्छी प्रकार सुखाकर बैलों के दायँ चलोर मडाई करते है तथा औसाई करके दाने को भूसे से अलग कर लेते है। | ||||||||||||||||||||||||||||||||
उपज: | ||||||||||||||||||||||||||||||||
मसूर की फसल से 20.25 कु./ हें. दाना एवं 30.40 कु./हें. भूसे की उपज प्राप्त होती है। |
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