अलसी की आधुनिक खेतीV

अलसी की आधुनिक खेतीV

अलसी की आधुनिक खेती




बहुउद्देशीय फसल होने के चलते देश में आजकल अलसी की मांग काफी बढ़ी है | अलसी बहुमूल्य तिलहन फसल है जिसका उपयोग कई उद्योगों के साथ दवाइयां बनाने में भी किया जाता है। अलसी के प्रत्येक भाग का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है । अलसी के बीज से निकलने वाला तेल प्रायः खाने के रूप में उपयोग में नही लिया जाता है बल्कि दवाइयाँ बनाने में होता है। इसके तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। इसका बीज फोड़ों फुन्सी में पुल्टिस बनाकर प्रयोग किया जाता है।

अलसी के तने से उच्च गुणवत्ता वाला रेशा प्राप्त किया जाता है व रेशे से लिनेन तैयार किया जाता है। अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती है तथा खली में विभिन्न पौध पौषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है। अलसी के पौधे का काष्ठीय भाग तथा छोटे-छोटे रेशों का प्रयोग कागज बनाने हेतु किया जाता है। अलसी के अधिक उत्पादन के लिए किसानों को खेती करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:-

  • भूमि का चुनाव एवं तैयारी

  • अलसी की उन्नत एवं विकसित प्रजातियाँ/किस्में

  • बीज बुआई की विधि, समय एवं बीजोपचार

  • खाद एवं उर्वरक का प्रयोग

  • अलसी की खेती में सिंचाई

  • खरपतवार एवं निंदाई-गुड़ाई

  • अलसी की फसल में लगने वाले मुख्य रोग

  • फसल में लगने वाले मुख्य कीट

  • अलसी की कटाई, गहाई एवं भण्डारण


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अलसी की खेती के लिए भूमि का चुनाव एवं तैयारी


फसल के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टियाँ उपयुक्त होती हैं। अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। भूमि में उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए । आधुनिक संकल्पना के अनुसार उचित जल एवं उर्वरक व्यवस्था करने पर किसी भी प्रकार की मिट्टी में अलसी की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। अच्छा अंकुरण प्राप्त करने के लिये खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये । अतः खेत को 2-3 बार हैरो चलाकर पाटा लगाना आवश्यक है जिससे नमी संरक्षित रह सके । अलसी का दाना छोटा एवं महीन होता है, अतः अच्छे अंकुरण हेतु खेत का भुरभुरा होना अतिआवश्यक है ।
भूमि उपचार :

भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बयोपेस्टीसाइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. सड़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से अलसी के बीज / भूमि जनित रोगों के प्रबन्धन में सहायक होता है |

अलसी की उन्नतिशील एवं विकसित प्रजातियाँ/किस्में






































प्रजातियाँ/किस्में


 अलसी की किस्मों/प्रजातियों की विशेषताएं

गरिमा

विमोचन की तिथि – 1985 में

(राज्य –उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है | तेल का 42-43 प्रतिशत होता है, गेरुई / रतुआ अवरोधी तथा उक्ठा सहनशील मैदानी क्षेत्रों हेतु | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से |
श्वेता

विमोचन– 1985 में

(राज्य –उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 15-18 एवं असिंचित क्षेत्रों में 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है | तेल का 43-44 प्रतिशत होता है | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से |
शुभ्रा

विमोचन– 1985 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 20-22 एवं असिंचित 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है | तेल का 43-45  प्रतिशत होता है, गेरुई / रतुआ अवरोधी उक्ठा व कलिका मक्खी अवरोधी | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से |
लक्ष्मी – 27

विमोचन– 1987 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 15-18 एवं असिंचित 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 115-120 दिन होती है | तेल का 43-45  प्रतिशत होता है, बुन्देलखण्ड हेतु संस्तुत / गेरुई / रतुआ   अवरोधी | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से |
पदमिनी

विमोचन– 1999 में

(राज्य – मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 15-18 एवं असिंचित क्षेत्रों में 12-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-125 दिन होती है | तेल का 43-45 प्रतिशत होता है, फफूंदी रोग अवरोधी | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से|
शेखर

विमोचन– 2001 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 20-25 एवं असिंचित क्षेत्रों में 14-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है | तेल का 43-43 प्रतिशत होता है, मैदानी क्षेत्रों हेतु उपयुक्त | बीज प्राप्ति के उद्देश्य से |
शारदा

विमोचन– 2006 में

(राज्य – छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा )
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 16-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 105-110 दिन होती है | तेल का 43-45 प्रतिशत होता है, सफ़ेद बुकनी अवरोधी |




















मऊ आजाद

विमोचन- 2008 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्र में 16-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-125 दिन होती है | तेल का 43-45  प्रतिशत होता है, झुलसा अवरोधी |
यूटेरा अलसी (आर.एल.सी. – 153)

विमोचन– 2019 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्र में 12.50-15.00 एवं क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-135 दिन होती है |
रजनी (एल.सी.की. – 1009)

विमोचन– 2019 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्र में 15.28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 133 दिन होती है, अल्टरनेरिया ब्लाइट एवं रस्ट अवरोधी |
जे.एल.एस. – 95

विमोचन– 2018 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 12.50-14.50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है |












उमा (एलके – 1101)

विमोचन– 2017 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित – 8.68, (असिंचित – पौधे की ऊँचाई 67 सेमी.) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 123 दिन होती है, अल्टरनेरिया ब्लाइट एंव विल्ट के प्रति मध्यम अवरोधी, बडफ्लाई कीट के लिए सहिष्णु |
इंदु (एलसीसी – 1108)

विमोचन– 2017 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता (सिंचित – 9.55), (असिंचित – पौधे की ऊँचाई 76 सेमी. ) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 137 दिन होती है, अल्टरनेरिया ब्लाइट पाउडरीमिल्ड्यू एंव रस्ट के प्रति अवरोधी |
























गौरव

विमोचन– 1987 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता (सिंचित – 18-20), (असिंचित – रेशा  12-14) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-150 दिन होती है | तेल का 42-43 प्रतिशत होता है, मैदानी क्षेत्रों हेतु उपयुक्त |
शिखा

विमोचन– 1997 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता (सिंचित – 20-22), (असिंचित – रेशा 13-15) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-150 दिन होती है | तेल का 42-41 प्रतिशत होता है, मैदानी क्षेत्रों हेतु उपयुक्त |
रश्मि

विमोचन की तिथि – 1999 में

(राज्य – बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम, राजस्थान )
उत्पादकता (सिंचित – 20-24), (असिंचित – रेशा 14-15) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है | तेल का 41-42 प्रतिशत होता है, मैदानी क्षेत्रों हेतु उपयुक्त |
पार्वती

विमोचन- 2001 में

(राज्य – असम, बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल)
उत्पादकता (सिंचित – 20-22), (असिंचित – रेशा 13-14) क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-145 दिन होती है | तेल का 41-42 प्रतिशत होता है, बुन्देलखण्ड हेतु संस्तुत उकठा, गेरुई / रतुआ व फफूंदी चूर्ण रोग अवरोधी |
रूचि

विमोचन– 2011 में

(राज्य – उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 22-25 एवं असिंचित में रेशा 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 132-135  दिन होती है | तेल का 40-42 प्रतिशत होता है, समस्त उ.प्र. हेतु संस्तुत उकठा, गेरुई / रतुआ व फफूंदी चूर्ण रोग अवरोधी |




























जवाहर अलसी – 23 (सिंचित) 

विमोचन- 1992 में

(राज्य – मध्य प्रदेश)
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में 15-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-125  दिन होती है, दहिया एवं उकठा रोग के लिए प्रतिरोधी, अंगमारी तथा गेरुआ के प्रति सहनशील |
सुयोग (जे.एल.एस. – 27) (सिंचित)

विमोचन- 2004 में

(राज्य – छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओरीसा, राजस्थान )
उत्पादकता सिंचित क्षेत्रों में – 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 115-120   दिन होती है, गेरुआ, चूर्णिल आसिता तथा फल मक्खी के लिए मध्यम रोधी |
जवाहर अलसी – 9 (असिंचित)

विमोचन- 1999 में

(राज्य – मध्य प्रदेश)
उत्पादकता असिंचित क्षेत्रों में 11-13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 115-120  दिन होती है, दहिया, उकठा, चूर्णिल आसिता एवं गेरुआ रोग के लिए प्रतिरोधी |
जे.एल.एस. – 66 (असिंचित)

विमोचन- 2010 में

(राज्य – मध्य प्रदेश)
उत्पादकता असिंचित क्षेत्रों में 12-13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 114 दिन होती है, चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरुआ रोगों के लिए रोधी |
जे.एल.एस. – 67 (असिंचित)

विमोचन- 2010 में

(राज्य – मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता असिंचित क्षेत्रों में 11-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 110 दिन होती है, चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरुआ रोगों के लिए रोधी |
जे.एल.एस. – 73 (असिंचित)

विमोचन- 2011 में

(राज्य – गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश)
उत्पादकता असिंचित क्षेत्रों में 10-11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 112 दिन होती है, चूर्णिल आसिता, उकठा, अंगमारी एवं गेरुआ रोगों के लिए रोधी |

बीज बुआई की विधि, समय एवं बीजोपचार


असिंचित क्षेत्रो में अक्टूबर के प्रथम पखवाडे़ में तथा सिचिंत क्षेत्रो में नवम्बर के प्रथम पखवाडे़ में बुवाई करना चाहिये। उतेरा खेती के लिये धान कटने के 7 दिन पूर्व बुवाई की जानी चाहिये। जल्दी बोनी करने पर अलसी की फसल को फली मक्खी एवं पाउडरी मिल्डयू आदि से बचाया जा सकता है ।

  • बीज दर : बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 30 कि.ग्रा./हे. तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 50 किग्रा./हे. |

  • दूरी : बीज उद्देशीय प्रजातियों के लिए 25 सेमी. कूंड से कूंड तथा द्विउद्देशीय प्रजातियों के लिए 20 सेमी. कूंड से कूंड |


बीजशोधन :

अलसी की फसल में झुलसा तथा उकठा आदि का संक्रमण प्रारम्भ में बीज या भूमि अथवा दोनों से होता है, जिनसे बचाव हेतु बीज को 2.5 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचार करके बोना चाहिए |

खाद एवं उर्वरक का प्रयोग


असिंचित क्षेत्र के लिए अच्छी उपज प्राप्त हेतु नत्रजन 50 किग्रा. फास्फोरस 40 किग्रा. एवं 40 किग्रा. पोटाश की दर से तथा सिंचित क्षेत्रों में 100 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस एवं 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से  प्रयोग करें | असिंचित दशा में नत्रजन व फास्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा तथा सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बुआई के समय चोगें द्वारा 2-3 सेमी. नीचे प्रयोग करें सिंचित दशा में नत्रजन की शेष आधी मात्रा आप ड्रेसिंग के रूप में प्रथम सिंचाई के बाद प्रयोग करें | फास्फोरस के लिए सुपर फास्फेट का प्रयोग अधिक लाभप्रद है |

अलसी की खेती में सिंचाई


यह फसल प्रायः असिंचित रूप में बोई जाती है, परन्तु जहाँ सिंचाई का साधन उपलब्ध है वहाँ दो सिंचाई पहली फूल आने पर तथा दूसरी दाना बनते समय करने से उपज में बढोत्तरी होती है |

अलसी में खतपतवार नियंत्रण


चने की उन्नतशील खेती

मुख्यतः अलसी में बथुआ, सेंजी, कुष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि तरह के खरपतवार देखे गए हैं इन खरपतवारों के नियंत्रण के लिए किसान यह उपाय करें |
नियंत्रण के उपचार :

प्रबंधन के लिये वुवाई के 20 से 25 दिन पश्चात पहली निदाई-गुड़ाई एवं 40-45 दिन पश्चात दूसरी निदाई-गुड़ाई करनी चाहिये। अलसी की फसल में रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन हेतु पेंडीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर प्रति हेक्टेयर 800-1000 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नाजिल से बुआई के 2-3 दिन के अन्दर समान रूप से छिडकाव करें |

अलसी की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग :


गेरुआ (रस्ट) रोग

यह रोग मेलेम्पसोरा लाइनाई नामक फफूंद से होता है। रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के स्फोट पत्तियों के दोनों ओर बनते हैं, धीरे धीरे यह पौधे के सभी भागों में फैल जाते हैँ । रोग नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में लगाना चाहिए । रसायनिक दवा के रुप में टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत 1 ली. प्रति हेक्टे. की दर से या ;केप्टाऩ हेक्साकोनाजालद्ध का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
उकठा (विल्ट) रोग

यह अलसी का प्रमुख हांनिकारक मृदा जनित रोग है इस रोग का प्रकोप अंकुरण से लेकर परिपक्वता तक कभी भी हो सकता है। रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं। इस रोग का प्रसार प्रक्षेत्र में पडे़ फसल अवशेषों द्वारा होता है। इसके रोगजनक मृदा में उपस्थित फसल अवशेषों तथा मृदा में उपस्थित रहते हैँ तथा अनुकूल वातावरण में पौधो पर संक्रमण करते हैं। उन्नत प्रजातियों को लगावें। उकठा रोग के नियंत्रण हेतु ट्राईकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत / ट्राईकोडरमा हरजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 4.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए |
चूर्णिल आसिता (भभूतिया रोग)

इस रोग के संक्रमण की दशा में पत्तियों पर सफेद चूर्ण सा जम जाता है। रोग की तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैँ । देर से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की दशा में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता है। उन्नत जातियों को बायें। कवकनाशी के रुप मे थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. 300 ग्राम प्रति हेक्टे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।
अंगमारी (आल्टरनेरिया)

इस रोग से अलसी के पौधे का समस्त वायुवीय भाग प्रभावित होता है परंतु सर्वाधिक संक्रमण पुष्प एवं पत्तियों पर दिखाई देता है। फूलों की पंखुडियों के निचले हिस्सों में गहरे भूरे रंग के लम्बवत धब्बे दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में धब्बे बढ़कर फूल के अन्दर तक पहुँच जाते हैँ जिसके कारण फूल निकलने से पहले ही सूख जाते हैं। इस प्रकार रोगी फूलों में दाने नहीं बनते हैँ । उन्नत जातियों की बुआई  करें। अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू.एस. 2.5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए | अल्टरनेरिया पत्ती धब्बा एंव गेरुई रोग के नियंत्रण हेतु मैकोजेब 75 डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 600-750 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए |
बुकनी रोग

इस रोग में पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देते है, जिससे बाद में पत्तियां सुख जाती है | बुकनी रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 80 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.50 किग्रा. प्रति हेक्टेयर लगभग 600-750 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए |

अलसी की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट


फली मक्खी (बड फ्लाई)

यह प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती है। जिनके पंख पारदर्शी होते हैं। इसकी इल्ली ही फसलों को हांनि पहुँचाती है। इल्ली अण्डाशय को खाती है जिससे कैप्सूल एवं बीज नहीं बनते हैं। मादा कीट 1 से 10 तक अण्डे पंखुडि़यों के निचले हिस्से में रखती है। जिससे इल्ली निकल कर फली के अंदर जनन अंगो विशेषकर अण्डाशयों को खा जाती है। जिससे फली पुष्प के रूप में विकसित नहीं होती है तथा कैप्सूल एवं बीज का निर्माण नहीं होता है। यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने वाला कीट है जिसके कारण उपज में 60-85 प्रतिशत तक क्षति होती है। नियंत्रण के लियें ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 100 मिली./ हेक्ट. की दर से 500-600 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करें।
अलसी की इल्ली प्रौढ़ कीट

यह मध्यम आकार के गहरे भूरे रंग या धूसर रंग का होता है, जिसके अगले पंख गहरे धूसर रंग के पीले धब्बे युक्त होते हैँ । पिछले पंख सफेद, चमकीले, अर्धपारदर्शक तथा बाहरी सतह धूसर रंग की होती है। इल्ली लम्बी भूरे रंग की होती है। जो तने के उपरी भाग में पत्तियों से चिपककर पत्तियों के बाहरी भाग को खाती है। इस कीट से ग्रसित पौधों की बढ़वार रूक जाती है।
अर्ध कुण्डलक इल्ली

इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे होते हैं। इल्ली हरे रंग की होती है जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा फलियों के विकास होने पर फलियों को खाकर नुकसान पहुँचाती है।
चने की इल्ली

इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता है जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार के काले धब्बे होते हैँ । इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती है जैसे यह पीले, हरे, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। शरीर के पार्श्व हिस्सों पर हल्की एवं गहरी धारिया होती है। छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती है बड़ी इल्ली फूलों एवं फलियों को नुकसान पहुँचाती है।
बालदार सुंडी :

सुंडी काले रंग की होती है तथा पूरा शारीर बालों से ढका रहता है | सुडीयां प्रारम्भ में झुण्ड में रह कर पत्तियों को खाती है तथा बाद में पुरे खेत में फैल कर पत्तियों को खाती है | तीव्र प्रकोप की दशा में पूरा पौधा पत्ती विहीन हो जाता है | बालदार सूडी के नियंत्रण के लिए मैलाथियान 5 प्रतिशत डी.पी. की 20-25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बुरकाव अथवा मैलाथियान 50 प्रतिशत ई.सी. की 1.50 लीटर अथवा डाईक्लोरोवास 76 प्रतिशत ई.सी. की 500 मिली. मात्रा अथवा  क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से लगभग 600-750 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए |
गालमिज :

इस कीट का मैगट फसल की खिलती कलियों के अन्दर पुंकेसर को खाकर नुकसान पहुँचाता है जिससे फलियों में दाने नहीं बनते है | गालमिज के नियंत्रण हेतु आँक्सीडेमेटान-मिथाइल 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.00 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 प्रतिशत एस.एल. की 600-750 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. छिडकाव करना चाहिए |

अलसी की कटाई गहाई एवं भण्डारण


जब फसल की पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है।

चने की उन्नत किस्म
सूखे तने से रेशा प्राप्त करने की विधि

हाथ से रेशा निकालने की विधि अच्छी तरह सूखे सड़े तने की लकड़ी की मुंगरी से पीटिए-कूटिए । इस प्रकार तने की लकड़ी टूटकर भूसा हो जावेगी जिसे झाड़कर व साफ कर रेशा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
यांत्रिकी विधि (मशीन से रेशा निकालने की विधि)


  1. सूखे सडे़ तने के छोटे-छोटे बण्डल मशीन के ग्राही सतह पर रख कर मशीन चलाते हैँ इस प्रकार मशीन से दबे/पिसे तने मशीन के दूसरी तरफ से बाहर लेते रहते हैं।

  2. मशीन से बाहर हुये दबे/पिसे तने को हिलाकर एवं साफ कर रेशा प्राप्त कर लेते हैं।

  3. यदि तने की पिसी लकड़ी एक बार में पूरी तरह रेशे से अलग न हो तो पुनः उसे मशीन में लगाकर तने की लकड़ी को पूरी तरह से अलग कर लें।


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