सांवा

सांवा




















































































सांवा उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी


सांवा की खेती दानों के साथ-साथ अच्छे गुणों बाले चारे के लिये मैदानी के साथ पर्वतीय स्थानों पर की जाती है। भारतवर्ष में सांवा की खेती उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में की जाती है।
भूमि की तैयारीः-
सांवा की खेती मैदानी एवं पर्वतीय स्थानों पर छोटे-छोटे खेतों में की जाती है। हल्की एवं कम उर्वरता वाली भूमि में खेती हेतु एक से दो गहरी जुताई वर्षा पूर्व आवश्यक है।
बीज, बीजदर एवं बोने का उचित समयः-
अधिक उत्पादन हेतु उन्नत किस्मों का चुनाव करें। हल्की व पथरीली भूमि हेतु जल्द पकने वाली तथा मध्यम उर्वरता वाली भूमि हेतु मध्यम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें। कतार में बोआई हेतु बीज दर 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर तथा छिड़काव पद्धति से बोआई के लिये 12 से 15 किलो बीज प्रति हेक्टेयर हेतु आवश्यक है। तमिलनाडु में असिंचित फसल की बोआई सितम्बर-अक्टूबर माह में तथा सिंचित फसल की बोआई फरवरी-मार्च में की जाती है जबकि उत्तराखंड के पर्वतीय स्थानों पर अप्रैल-मई माह बोआई हेतु उत्तम है। मध्यप्रदेश के लिये मानसून प्रारम्भ होने के साथ व 10-12 जुलाई के पूर्व बोनी करने पर सर्वाधिक उपज प्राप्त होती है। बोआई पूर्व फफूंदनाशक दवा कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन का 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार आवश्यक है।
उन्नतषील किस्में
मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिये निम्न उन्नत किस्में विकसित की गयी है।


  • व्ही.एल. 29:- सांवा की यह किस्म 80 से 90 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। पौधे में लम्बी व सघन दाने वाली बालियां लगती है। यह किस्म कण्डवा रोग के लिये प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 172:- सांवा की यह किस्म 90 से 95 दिन में पककर तैयार हो जाती है तथा इसकी उत्पादन क्षमता 21 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। बालियां खुली, सीधी तथा हरे रंग की होती है। कण्डवा रोग के लिये यह किस्म प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 181:- सांवा की इस नयी विकसित किस्म के पकने की अवधि 80-90 दिन तथा औसत उपज क्षमता 16 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। बालियों के सिरे हल्के रंगीन तथा चार एकान्तर दानों की कतारें होती है। कण्डवा रोग के लिये यह किस्म प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 207:-सांवा की नई इस किस्म की बालियां हरे रंग की व दाने भूरे रंग के होते है। पकने की अवधि 85 से 90 दिन व औसत उपज क्षमता 16.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म कण्डवा रोग के लिये सहनषील है।


खाद एवं उर्वरक का प्रयोगः-
बोआई से पूर्व गोवर की खाद का प्रयोग 5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से करें। म.प्र. के लिये रासायनिक उर्वरकों द्वारा 20 किलो नत्रजन व 20 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें। नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई से पूर्व तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा बोआई के 3-4 सप्ताह बाद प्रथम निंदाई के उपरान्त डालें। जैव उर्वरक एग्रोवेक्टीरियम, रेडियोबेक्टर तथा एस्परजिलस अवामूरी से बीजोपचार 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें।
अन्तः सस्य क्रियाएं :-
बोआई के 20 से 30 दिन के अंदर एक बार हाथ से निंदाई अवश्य करें। अधिक घने पौधों को उखाड़ कर जहां पौधे न उगे हो वहा रोपाई कर दें।
पौध संरक्षण
1. रोग-व्याधियाँ:-
सांवा में मुख्यरूप से कण्डवा व पर्णछाद झुलसन रोग का प्रकोप होता है जिनका समय पर निदान आवश्यक है।








(अ) कण्डवाः- सांवा का यह सबसे प्रमुख फफूंदजनित रोग है। रोग के लक्षण बालियाँ निकलने के बाद ही परिलक्षित होते है। कंडवा के संक्रमण से ग्रसित दाने स्वस्थ दानों की अपेक्षा 3-4 गुना बड़े हो जाते है, जिनमें काले-रंग के बीजाणु भरे होते है। बाली के अलावा तना व पत्तियों के कक्ष में भी हरे रंग की गोल या अनियमित आकार की संरचनाएं बन जाती है, जिनमें काले बीजाणु भरे होते है।

रोकथाम


  • जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक बोआई करें। बोआई से पूर्व कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन फफूंदनशक दवा से (2ग्राम प्रति किलो बीज) बीजो को अवश्य उपचारित करें।

  • बीजोपचार जैव रसायन ट्रइकोडर्मा द्वारा 5 ग्राम प्रति किलो बीज दर से करना भी लाभप्रद होता है।

  • रोग प्रतिरोधक किस्मों जैसे व्ही.एल. 29, व्ही.एल. 172, व्ही.एल. 181 व व्ही.एल. 107 का उपयोग करें।










(ब) पर्णछाद झुलसनः- इस फफूंदजनित रोग का प्रकोप पौधे की सभी अवस्थाओं में होता है। संक्रमित पौधे की पर्णछाद पर अनियमित धब्बे बन जाते है जिनकी परिधि गहरे व मध्य का भाग धूसर रंग का हो जाता है। अनुकूल परिस्थितियों व परिपक्वता पर धब्बों के ऊपर गोल-चपटे स्क्लेरोशिया भी बन जाते है,जिनका रंग प्रारम्भ में सफेद व परिपक्वता पर भूरा हो जाता है।

रोकथाम


  1. बीजों को बोने से पूर्व फफूंदनाशक दवा कार्वेन्डाजिम या वेलिडामाइसिन या हेक्साकोनेजाल (2 मि.ली. प्रति लिटर पानी)से उपचारित करें।

  2. जैव रसायन ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार (5 ग्राम प्रति किलो बीज)+भूमि उपचार (1 किलो प्रति एकड) लाभप्रद होता है।

  3. संतुलित उर्वरक एवं रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।


2. कीट








अ) तना मक्खीः-

तना मक्खी सांवा का प्रमुख कीट है, जिससे उपज में सार्थक हानि होती है। कीट की इल्ली मध्यकलिका में नीचे पहंचकर उसे काट देती है, जिससे मध्यकलिका सूख जाती है एवं उपज प्रभावित होती है।

रोकथाम


  1. तना मक्खी के नियंत्रण के लिये फसल की जल्दी बोआई करीब 10 जुलाई तक अवश्य करें।

  2. बीजो को बोने से पूर्व क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. दवा 25 मि.ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।

  3. बोआई से पूर्व थीमेट 10 जी. दवा का 10-15 कि. ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि उपचार भी प्रभावी होता है।

  4. कीट प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।


आलू की खेती

सांवा उत्पादन की उन्नत कृषि तकनीकी


सांवा की खेती दानों के साथ-साथ अच्छे गुणों बाले चारे के लिये मैदानी के साथ पर्वतीय स्थानों पर की जाती है। भारतवर्ष में सांवा की खेती उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के कुछ क्षेत्रों में की जाती है।

भूमि की तैयारीः-


सांवा की खेती मैदानी एवं पर्वतीय स्थानों पर छोटे-छोटे खेतों में की जाती है। हल्की एवं कम उर्वरता वाली भूमि में खेती हेतु एक से दो गहरी जुताई वर्षा पूर्व आवश्यक है।

बीज, बीजदर एवं बोने का उचित समयः-


अधिक उत्पादन हेतु उन्नत किस्मों का चुनाव करें। हल्की व पथरीली भूमि हेतु जल्द पकने वाली तथा मध्यम उर्वरता वाली भूमि हेतु मध्यम समय में पकने वाली किस्मों का चयन करें। कतार में बोआई हेतु बीज दर 8 से 10 किलो प्रति हेक्टेयर तथा छिड़काव पद्धति से बोआई के लिये 12 से 15 किलो बीज प्रति हेक्टेयर हेतु आवश्यक है। तमिलनाडु में असिंचित फसल की बोआई सितम्बर-अक्टूबर माह में तथा सिंचित फसल की बोआई फरवरी-मार्च में की जाती है जबकि उत्तराखंड के पर्वतीय स्थानों पर अप्रैल-मई माह बोआई हेतु उत्तम है। मध्यप्रदेश के लिये मानसून प्रारम्भ होने के साथ व 10-12 जुलाई के पूर्व बोनी करने पर सर्वाधिक उपज प्राप्त होती है। बोआई पूर्व फफूंदनाशक दवा कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन का 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीजोपचार आवश्यक है।

उन्नतषील किस्में



  • व्ही.एल. 29:- सांवा की यह किस्म 80 से 90 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उत्पादन क्षमता 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। पौधे में लम्बी व सघन दाने वाली बालियां लगती है। यह किस्म कण्डवा रोग के लिये प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 172:- सांवा की यह किस्म 90 से 95 दिन में पककर तैयार हो जाती है तथा इसकी उत्पादन क्षमता 21 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। बालियां खुली, सीधी तथा हरे रंग की होती है। कण्डवा रोग के लिये यह किस्म प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 181:- सांवा की इस नयी विकसित किस्म के पकने की अवधि 80-90 दिन तथा औसत उपज क्षमता 16 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। बालियों के सिरे हल्के रंगीन तथा चार एकान्तर दानों की कतारें होती है। कण्डवा रोग के लिये यह किस्म प्रतिरोधी है।

  • व्ही.एल. 207:- सांवा की नई इस किस्म की बालियां हरे रंग की व दाने भूरे रंग के होते है। पकने की अवधि 85 से 90 दिन व औसत उपज क्षमता 16.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म कण्डवा रोग के लिये सहनषील है।


खाद एवं उर्वरक का प्रयोगः-


बोआई से पूर्व गोवर की खाद का प्रयोग 5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से करें। म.प्र. के लिये रासायनिक उर्वरकों द्वारा 20 किलो नत्रजन व 20 किलो फास्फोरस प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डालें। नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस की पूरी मात्रा बोआई से पूर्व तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा बोआई के 3-4 सप्ताह बाद प्रथम निंदाई के उपरान्त डालें। जैव उर्वरक एग्रोवेक्टीरियम, रेडियोबेक्टर तथा एस्परजिलस अवामूरी से बीजोपचार 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें।

अन्तः सस्य क्रियाएं :-


बोआई के 20 से 30 दिन के अंदर एक बार हाथ से निंदाई अवश्य करें। अधिक घने पौधों को उखाड़ कर जहां पौधे न उगे हो वहा रोपाई कर दें।

पौध संरक्षण












1. रोग-व्याधियाँ:-


सांवा में मुख्यरूप से कण्डवा व पर्णछाद झुलसन रोग का प्रकोप होता है जिनका समय पर निदान आवश्यक है।


  • कण्डवाः-सांवा का यह सबसे प्रमुख फफूंदजनित रोग है। रोग के लक्षण बालियाँ निकलने के बाद ही परिलक्षित होते है। कंडवा के संक्रमण से ग्रसित दाने स्वस्थ दानों की अपेक्षा 3-4 गुना बड़े हो जाते है, जिनमें काले-रंग के बीजाणु भरे होते है। बाली के अलावा तना व पत्तियों के कक्ष में भी हरे रंग की गोल या अनियमित आकार की संरचनाएं बन जाती है, जिनमें काले बीजाणु भरे होते है।


रोकथाम



  • जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक बोआई करें। बोआई से पूर्व कार्वेन्डाजिम या कार्वोक्सिन फफूंदनशक दवा से (2ग्राम प्रति किलो बीज) बीजो को अवश्य  उपचारित करें।

  • बीजोपचार जैव रसायन ट्रइकोडर्मा द्वारा 5 ग्राम प्रति किलो बीज दर से करना भी लाभप्रद होता है।

  • रोग प्रतिरोधक किस्मों जैसे व्ही.एल. 29, व्ही.एल. 172, व्ही.एल. 181 व व्ही.एल. 107 का उपयोग करें।


(ब) पर्णछाद झुलसनः- इस फफूंदजनित रोग का प्रकोप पौधे की सभी अवस्थाओं में होता है। संक्रमित पौधे की पर्णछाद पर अनियमित धब्बे बन जाते है जिनकी परिधि गहरे व मध्य का भाग धूसर रंग का हो जाता है। अनुकूल परिस्थितियों व परिपक्वता पर धब्बों के ऊपर गोल-चपटे स्क्लेरोशिया भी बन जाते है,जिनका रंग प्रारम्भ में सफेद व परिपक्वता पर भूरा हो जाता है।

रोकथाम



  1. बीजों को बोने से पूर्व फफूंदनाशक दवा कार्वेन्डाजिम या वेलिडामाइसिन या हेक्साकोनेजाल (2 मि.ली. प्रति लिटर पानी)से उपचारित करें।

  2. जैव रसायन ट्राइकोडर्मा से बीजोपचार (5 ग्राम प्रति किलो बीज)+भूमि उपचार (1 किलो प्रति एकड) लाभप्रद होता है।

  3. संतुलित उर्वरक एवं रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।


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कीट


अ) तना मक्खीः

तना मक्खी सांवा का प्रमुख कीट है, जिससे उपज में सार्थक हानि होती है। कीट की इल्ली मध्यकलिका में नीचे पहंचकर उसे काट देती है, जिससे मध्यकलिका सूख जाती है एवं उपज प्रभावित होती है।
रोकथाम


  1. तना मक्खी के नियंत्रण के लिये फसल की जल्दी बोआई करीब 10 जुलाई तक अवश्य करें।

  2. बीजो को बोने से पूर्व क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. दवा 25 मि.ली. प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।

  3. बोआई से पूर्व थीमेट 10 जी. दवा का 10-15 कि. ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि उपचार भी प्रभावी होता है।

  4. कीट प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें।


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रबी की फसलें

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