चने की उन्नतशील खेती

चने की उन्नतशील खेती


चना उत्पादन की उन्नत तकनीक


चना की उन्नत कृषि तकनीक



  1. जी एन जी 1581 (गणगौर) - यह देसी चना की किस्म है। ...

  2. जी एन जी 1488 (संगम) - यह देसी चना की किस्म है। ...

  3. जी एन जी 663 (वरदान) - यह किस्म 145 से 150 दिनों में पककर तैयार होती है और इसकी पैदावार 20 से 24 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है। ...

  4. आर एस जी 888 - ...

  5. बी जी 256 - ...

  6. जलवायु: ...

  7. खाद एवं उर्वरक : ...

  8. उपज एवं भण्डारण :









चने की उन्नतशील खेती





  1. उपज अन्तर

  2. जलवायु

  3. भूमि एवं भूमि की तैयारी

  4. बुआई समय

  5. बीज की मात्रा

  6. बुआई की विधि

  7. अन्तरवतीय फसल प्रणाली

  8. बीजोउपचार

  9. खाद एवं उर्वरक

  10. गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्व

    1. गंधक (सल्फर)

    2. जिंक

    3. बोरॉन



  11. खरपतवार नियंत्रण

  12. सिंचाई

  13. फली छेदक या इल्ली या गिडार

  14. कटुआ

    1. नियंत्रण



  15. उकठा रोग के लक्षण

    1. नियंत्रण



  16. ग्रे-मोल्ड

    1. नियंत्रण



  17. स्क्लेरोटीनिया ब्लाइट

    1. नियंत्रण



  18. एस्कोकाइटा ब्लाइट

    1. नियंत्रण



  19. शीर्ष कलिका तोड़ना/खुटाई (निपिंग)

  20. कटाई एवं मड़ाई

  21. उपज

  22. भण्डारण








भारत विश्व का सबसे बड़ा चना उत्पादक (कुल उत्पादन का 75 प्रतिशत) देश है। क्षेत्रफल एवं उत्पादन दोनों ही दृष्टि में दलहनी फसलों में चने का मुख्य स्थान है। समस्त उत्तर-मध्य व दक्षिण भारतीय राज्यों में चना रबी फसल के रूप में उगाया जाता है। चना उत्पादन की नई उन्नत तकनीक व उन्नतशील प्रजातियों का उपयोग कर किसान चने का उत्पादन बढ़ा सकते हैं तथा उच्चतम एवं वास्तविक उत्पादकता के अन्तर को कम कर सकते हैं।


उपज अन्तर


सामान्यतः यह देखा गया है कि अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन की पैदावार व स्थानी किस्मों की उपज में 25: का अन्तर है। यह अन्तर कम करने के लिये अनुसंधान संस्थानों व कृषि विज्ञान केन्द्र की अनुशंसा के अनुसार उन्नत कृषि तकनीक को अपनाना चाहिए।

जलवायु


चने के खेती प्रायः बारानी फसल के रूप में रबी मौसम की जाती है । चने खेती के लिए 60-90 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते हैं।

भूमि एवं भूमि की तैयारी


हल्की दोमट से मटियार भूमि चने के लिए सर्वोत्तम रहती है किन्तु समुचित जल निकास का प्रबन्ध होने पर भारी भूमियों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। काबुली चने के लिये अधिक उपजाऊ भूमि कि आवश्यता पड़ती है। जड़ ग्रन्थियों के उत्तम विकास हेतु मृदा में पर्याप्त वायु-संचार का होना अति आवश्यक है अतः यह ढेलेदार खेत को पसन्द करता है। रफ सीडबेड तैयार करने हेतु एक जुताई मिट्टी पलट हल से व एक से दो जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से पर्याप्त रहती है।

बुआई समय


उत्तरी भारत – असिंचित : अक्टूबर के द्वितीय पखवाड़े , सिंचित : नवम्बर के प्रथम पखवाड़े (मध्य एवं दक्षिण भारत-अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े)। सिंचित : अक्टूबर के द्वितीय पखवाड़े से नवम्बर के प्रथम पखवाड़ा।

बीज की मात्रा


छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिए 50-60 कि.ग्रा./हे. तथा बड़े दानों वाली प्रजातियों के लिए 100 कि.ग्रा. बीजदर व पछेती बुवाई के लिए 90-100 कि.ग्रा./हे. एवं काबुली किस्मों के लिये 100 से 125 किग्रा./हे. पर्याप्त रहती है।

बुआई की विधि


अधिक उपज लेने हेतु बोआई कतारों में ही 30 से.मी. की दूरी पर व देर से 25 से.मी. की दूरी पर सीड ड्रिल द्वारा या हल के पीछे चोंगा बांधकर 8-10 से.मी. की गहराई पर करें ।

अन्तरवतीय फसल प्रणाली


चने की खेती अन्तरवर्तीय के रूप में निम्न फसलों के साथ करने से अधिक उत्पादन के परिणाम प्राप्त हुए हैं।

6 लाईन चना 4 लाईन गेहूं   ------  6 लाईन चना 2 लाईन सरसों

4 लाईन चना 2 लाईन जौ --------4 लाईन चना 2 लाईन अलसी

प्रयोग द्वारा चना गेहूं फसल प्रणाली सबसे अधिक लाभकारी सिद्ध हुआ है।

बीजोउपचार


रोग नियंत्रण हेतु

उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम + 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज या वीटावेक्स (कार्बोक्सिन) 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।

कीट नियंत्रण हेतु 

थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू. पी. 3 ग्राम/किलो बीज की दर से उपचारित करें।

खाद एवं उर्वरक


मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे चोंगा बांधकर या फर्टीसीड ड्लि द्वारा कूड़ में बीज की सतह से 2 से.मी. गहराई व 5 से.मी. साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। चना के लिए सामान्यतयः 15-20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50-60 कि.ग्रा. फास्फोरस, 20 कि.ग्रा. पोटाश एवं 20 कि.ग्रा. गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहाँ 15-20 कि.ग्रा. जिन्क सल्फेट प्रयोग करें।

नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की समस्त भूमियों में आवश्यकता होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मदा पीरक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फास्फोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100-150 किग्रा डाइ अमोनियम फास्फेट का प्रयोग करें।

राज्यवार प्रमुख प्रजातियों का विवरण राज्य











































































राज्य प्रजातियां
देशीकाबुली
आंध्रप्रदेशफूले जी. 95311, आई.सी.सी.वी. 32 क्रांति,एम.एन.के. 1 आई सी.सी.वी. 2,कॉक-2
बिहार के.पी आई.सी.सी.वी. 37 फूले जी. 0517
मध्यप्रदेशजे.जी. 14, जे.जी. 226, जे.जी. 63 जे.जी.के. 3, जे.जी.के1, जेजी. 13, जे.जी. 11 कॉकरराज विजय 202 एवं 201, जे.जी. जे.जी. 130, जे.जी. 322, जे.जी. 218, के2
महाराष्ट्रए.के.जी. 9303-12, जाकी 9218, बी.डी. , उज्जवल डब्लू.सी.जी. 10, जे.जी. 16पी.के.वी. काबुली 4, विराट, एन.जी. 797 (आकाश), दिग्विजय,फूले जी. 0517
पंजाबजी.एन.जी. 1958, जी.एल.के. 28127, पी.बी.जी. 5,पूसा 547, जी.एन.जी. 469, उदय, पूसा 362,राजस।एल. 551, एल. 550
राजस्थानआर.एस.जी. 974, आर.एस.जी. 902  (अरूणा), आर.एस.जी. 896 (अर्पण), आर.एस.जी. 991 (अर्पणा), आर.एस.जी. 807 (आभा), जी.एन.जी. 1488,जी. एन.जी. 421, प्रताप चना 1, आर.एस.जी.902 (अरूणा)एल. 550.कॉक 2
उत्तरप्रदेशजी.एन.जी. 1969, सी.एस.जे. 515, डब्लू.सी.जी. 3 (वल्लभ कलर चना), जी एन.जी. 1581,  बी.डी.जी. 72,पूसा 1003, कॉक 2, के 4,हरियाणाा काबुली चना 2
उत्तराखंडआर.एस.जी. 963 (आधार), सी.एस.जी. 8962, पंत काबुली 1फुले जी 9925-9 (राजस)
झारखंडके.डब्लू.आर. 108, के.पी.जी. 59, पंत जी. 114एच. के. 05-169
छत्तीसगढ़ पूसा 391, पूसा 372, जे.एस.सी. 55,

जे.जी.के. 1, जे.एस.सी. 56, आर.जी. 2918 (वैभव)
फूले जी. 0517
पश्चिम बंगालअनुराधा, गुजरात चना 4, उदय,पूसा 1003
तमिलनाडूएम.एन.के. 1, फुले जी. 95311,जे.जी.11को. 4
स्त्रोत:- सीडनेट, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय , भारत सरकार एवं भा.द.अनु.सं.-भा.कृ.अनु.प., कानपुर।

गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्व


गंधक (सल्फर)


काली एवं दोमट मृदाओं में 20 कि.ग्रा. गंधक (154 कि.ग्रा. जिप्सम/ फॉस्फो-जिप्सम या 22 कि.ग्रा. बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हेक्टर की दर से बुवाई के समय प्रत्येक फसल के लिये देना पर्याप्त होगा। कमी ज्ञात होने पर लाल बलुई मृदाओं हेतु 40 कि.ग्रा. गंधक (300 कि.ग्रा. जिप्सम/फॉस्फो-जिप्सम या 44 कि.ग्रा. बेन्टोनाइट सल्फर) प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

जिंक


जिंक की मात्रा का निर्धारण मृदा के प्रकार एवं उसकी उपल्बधता के अनुसार की जानी चाहिए।

काली मृदा

2.0 कि.ग्रा. जिंक (10 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट हेप्टा हाइड्रेट या 6.0 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट मोनो हाइड्रेट) प्रति हैक्टर की दर से आधार उर्वरक के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

बलुई दोमट मृदा

2.5 कि.ग्रा. जिंक (12.5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट हेप्टा हाइड्रेट या 7.5 कि. ग्रा. जिंक सल्फेट मोनो हाइड्रेट) प्रति हैक्टर की दर से आधार उर्वरक के रूप में प्रयोग करन चाहिए।

लैटेराइटिक,जलोढ़ एवं मध्यम मृदा

2.5 कि.ग्रा. जिंक (12.5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट हेप्टा हाइड्रेट या 7.5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट मोनो हाइड्रेट) के साथ 200 कि.ग्रा. गोबर की खाद का प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

बोरॉन


काली व दोमट मृदाओं में चने की फसल में बुवाई के पूर्व 1 कि.ग्रा. बोरॉन (10 कि.ग्रा. बोरेक्स या 7 कि.ग्रा. डाइसोडियम टेट्राबोरेट पेन्टाहाइड्रेट) प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए। जबकि बलुई दोमट पहाड़ी क्षेत्र की मृदाओं में जिनमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम हो उनमें 1.5 कि.ग्रा. बोरॉन (15 कि.ग्रा. बोरेक्स या 10 कि.ग्रा. डाइसोडियम टेट्राबोरेट पेन्टाहाइड्रेट) प्रति हैक्टर बुवाई के पूर्व मृदा में देना चाहिए।

मॉलिब्डेनम

0.5 कि.ग्रा. सोडियम मॉलिब्डेट प्रति हैक्टर की दर से आधार उर्वरक के रूप में या 0.1: सोडियम मॉलिब्डेट के घोल का दो बार पीय छिड़काव करना चाहिए अथवा मॉलिब्डेनम के घोल में बीज शोषित करें। ध्यान रहे कि अमोनियम मॉलिब्डेनम का प्रयोग तभी किया जाना चाहिए जब मृदा में मॉलिब्डेनम तत्व की कमी हो।

खरपतवार नियंत्रण


पेन्डीमिथालीन 30 ई.सी. दवा 2.5-3 ली. (0.75-1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व) / हेक्टेयर की दर से 400-500 ली. पानी में घोलकर बुवाई के 48 घन्टे के अंदर छिड़काव करना चाहिए। बोआई के 25-30 दिन बाद एक निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियन्त्रण के साथ मृदा में वायुसंचार भी बढ़ता है।

सिंचाई


भारी व चिकनी भूमि को छोड़कर अन्य भूमियों में दो सिंचाई, प्रथम सिंचाई शाखाएँ बनते समय व द्वितीय फलियों में दाना बनते समय करें। किसी भी दशा में सिंचाई बुआई चार सप्ताह तक नहीं करनी चाहिए (सिंचाई फूल आने के समय ना करें)।

कीट नियन्त्रण

कटुआ और फलीबेधक चने के मुख्य शत्रु हैं।

फली छेदक या इल्ली या गिडार


यह पौधे को फली रहित कर (हरित अवस्था में) देता है। तथा दाना बनते समय फली में छेद कर विकसित दाने को पूरी तरह खा जाता है। पौधों में पूर्ण वानस्पतिक वृद्धि होने पर पौधों की शाखा, पत्ती की डण्ठल, पत्तियों तथा फूलों पर भूरे रंग के निर्जीव धब्बे दिखाई देते है। शाखाएँ तथा तना भी प्रभावित होता है तथा अंत मे दाना टूट जाता है।



नियंत्रण

एन.पी.व्ही. का 250 गिडार समतुल्य 400-500 लीटर पानी में घोल बनाकर का प्रयोग करें अथवा इण्डोक्साकार्ब 1 मि.ली/लीटर या इमामेकटन बेन्जोएट 5 एस.जी. 0.2 ग्राम/ली या प्रोफेनोफॉस 2 मि.ली. / लीटर पानी के घोल की दर से छिड़काव करें।

कटुआ


दिन में ढेलों के बीच छुपा रहता है। रात को पौधे को जमीन के स्तर से काटकर नुकसान पहुंचाता है। खाता कम बिगाड़ता ज्यादा है।


नियंत्रण


एकीकृत नियन्त्रण हेतु ग्रीष्मकालीन जुताई, फसल चक व फिर भी आवश्यकता होने पर डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 750 मि.ली./हेक्ट. या क्विनालफॉस 25 ई.सी. 1 ली./हेक्ट. की दर से छिड़काव करना चाहिए। इसके नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी बुवाई पूर्व 10 कि.ग्रा./हे. की दर से मिट्टी में मिलायें।

रोग नियन्त्रण

उकठा रोग, ग्रे-मोल्ड एवं झुलसा (एसकोकाइटा ब्लाइट), स्क्लेरोटीनिया ब्लाइट प्रमुख बीमारियाँ हैं । एकीकृत ब्याधि नियन्त्रण विधि इस प्रकार है।

उकठा रोग के लक्षण


रोगी पौधों की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं, तने के लम्बवत चिरान में तंबाकू के रंग की धाराएं दिखाई पड़ती हैं। जड़ें काली पड़ जाती हैं व बााद मे पौधे सूख जाते हैं।


नियंत्रण


देर से बोनी करें, गहरी बुवाई (8-10 से.मी.) व अधिक प्रभावित क्षेत्रों में 3-4 वर्षीय फसल चक्र का प्रयोग करें व उकटा अवरोधी प्रजातियाँ जैसे अवरोधी, विजय (फूले.जी. 81-1), प्रगति (के- 3256), भारती, वरदान (जी.एन.जी. 663), कांति, स्वेता, पूसा-372, विराट, वैभव (आर.जी.-2918), जे.जी.-315 का प्रयोग करने से बचा जा सकता है। बुवाई से पूर्व बीज को फफूंदनाशी दवा थायरम 2 ग्रा एव 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम से प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचार करके बोना चाहिए या जैविक फफूंदनाशी ट्राईकोडर्मा विरिडी 4 ग्राम/किलो बीज के हिसाब से उपचार करें।

ग्रे-मोल्ड


इस रोग का कवक मृदा मे उत्तरजीविता के रूप मे रहता है। उत्तर प्रदेश एवं उत्तरान्चल के तराई क्षेत्रों में नम मौसम से तीव्र गति से फैलती हैं। पौधे के धूसर फफूंद जैसी वृद्धि प्रमुख लक्षण हैं।

नियंत्रण


उपचार हेतु देर से बोआई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में करना चहिए तथा फसल पर कैप्टान या डाइथेन एम.-45 का 0.3 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।

स्क्लेरोटीनिया ब्लाइट


इसका प्रभाव पौधो के तने पर पड़ता है। रोगी पौधा पहले पीला और फिर भूरा होकर मर जाता है ।

नियंत्रण


देर से बुआई करना, 3-4 वर्ष का फसल चक को अपनाना खरीफ मे धान को उगाना इसे रोकने में सहायक होता है। बीज बोने से पूर्व बीज को काइँडाजिम 50 डब्लू.पी. 1 ग्राम + थायरम 75 डब्लू.पी. 2 ग्राम प्रति किलो ग्राम की दर से उपचारित करना चाहिए।

एस्कोकाइटा ब्लाइट


जड़ को छोड़कर सम्पूर्ण पौधा प्रभावित होता है। प्रारम्भिक अवस्था में जनवरी फरवरी माह में रोगी पौधो के तने, पत्तियों तथा फलों पर छोटे कत्थई रंग के धब्बे उभर आते हैं जो बाद मे पीले रंग के हो जाते है। इनके कारण पौधे धीरे-धीरे सूख जाते हैं।

नियंत्रण


एकीकृत प्रबन्धन हेतु स्वस्थ बीज का चुनाव एवं पूर्व बतायी विधि से बीज शोधन तथा 3-4 वर्ष में फसल चक अपनाना चाहिए । रोग रहित क्षेत्रों से प्राप्त बीज का प्रयोग करना चाहिए। रोग प्रतिरोधी प्रजातियां जैसे-सी.-235, गौरव आदि का चुनाव करना चाहिए।

शीर्ष कलिका तोड़ना/खुटाई (निपिंग)


शीर्ष शाखायें तोड़ने की प्रक्रिया उस समय की जानी चाहिए जब पौधा 15-20 सेमी. की उँचाई के हो जाए। इस प्रक्रिया में पौधे की शीर्ष शाखायें तोड़ देने से पोधे की वानस्पतिक वृद्धि रुक जाती है तथा शाखायें अधिक फूटती हैं। अतः प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या बढ़ जाती हैं।

कटाई एवं मड़ाई


जब 70-80 प्रतिशत फलियां पक जाएं, फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है । सुखाने के पश्चात बैलों की दांय चलाकर या थ्रेसर द्वारा भूसा से दाना अलग कर लेते हैं।

उपज


उन्नत विधि अपनाते हुए एवं अच्छी प्रजाति का चुनाव करके प्रति हेक्टेयर 15-20 क्विं. तक उपज प्राप्त की जा सकती है।

भण्डारण


भण्डारण के समय दानों में नमी का प्रतिशत 10 से अधिक नहीं होना चाहिए । भण्डार गृह में 2 गोली एल्युमिनियम फास्फाइड/टन रखने से भण्डार कीटों से सुरक्षा मिलती है। भण्डारण के दौरान चने को अधिक नमी से बचाना चाहिए ।


 



चने की खेती की जानकारी 


दलहनी फसलों में चना एक महत्वपूर्ण फसल है | चना विश्व की महत्वपूर्ण दलहनी फसलों में से एक है | चना सर्वप्रथम मध्य-पूर्वी एशियाई देशों में उगाया गया | वृहद स्तर पर इसकी खेती भारत, मध्यपूर्वी इथोपिया, मक्सिको, अर्जेंटीना, चिली, पेरू व आस्ट्रेलिया में की जाती है | इसकी उपयोगिता दाल, बेस, सत्तू सब्जी तथा अन्य कार्यों के लिए होता है | भारत में चने की खेती सिंचित के साथ-साथ असिंचित क्षत्रों में की जाती है | रबी मौसम की खेती होने के कारण इसकी खेती शुष्क एवं ठंडे जलवायु फसल में किया जाता है जहाँ पर 60 से 90 से.मी. वर्षा होती है |

भारत में दलहन उत्पदान को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा इसके लिए भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान दलहनी फसलों पर शोध संस्थान स्थापित किया गया है । चना भारत के अधिकांश भागों में सिंचित व असिंचित क्षेत्रों में रबी ऋतू में मुख्य दलहनी फसल के रूप में होता है, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं गुजार देश के मुख्य उत्पादक राज्य है | अधिक पैदावार प्राप्त करने हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है :

  • खेती के लिए भूमि का चुनाव एवं तैयारी

  • चने की उन्नत प्रजातियाँ/ किस्में

  • बुआई हेतु बीज दर, बीज शोधन एवं बीजोपचार

  • खाद या उर्वरक का प्रयोग

  • चने की फसल में सिंचाई

  • शाखाएं तोडना

  • फसल में लगने वाले मुख्य कीट

  • चने की फसल में लगने वाले मुख्य रोग

  • फसल में खरपतवार नियंत्रण के उपाय

  • कटाई एवं भण्डारण


भूमि का चुनाव एवं भूमि की तैयारी


चना की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं जैसे बलुई, दोमट से गहरी दोमट में सफलतापुर्वक की जा सकती है | उचित जल निकास तथा माध्यम उर्वरता वाली पी.एच. मान 6–7.5 हो | चने की अच्छी फसल लेने के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है | अधिक उपजाऊ भूमि में चना के पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है व फसल में फुल व फल कम लगते हैं |

असिंचित व बारानी क्षेत्रों में चना की खेती के लिए चिकनी दोमट भूमि उपयुक्त है | रबी ऋतू की फसल होने के कारण इसे मानसून से संरक्षित नमी में बारानी क्षेत्रों में उगाया जाता है | हल्की ढलान वाले खेतों में चना की फसल अच्छी होती है | ढेलेदार मिट्टी में देशी चने की भरपूर फसल ली जा सकती है |
भूमि की तैयारी

चना की फसल मृदा वातन के लिए एक अत्यधिक संवेदनशील फसल है | भूमि या खेत की सख्त या कोठार होने पर अंकुर प्रभावित होता है एवं पौधे की वृद्धि कम होती है | इसलिए, मृदा वायु संचारण को बनाए रखने के लिए जुताई की आवश्यकता होती है | मिट्टी की एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के उपरान्त एक जुताई विपरीत दिशा में हैरो या कल्टीवेटर द्वारा करके पाटा लगाना पर्याप्त है | जल निकास का उचित प्रबंधन भी अति आवश्यक है |

एक फसलीय क्षेत्रों में वर्षा ऋतू में खेतों में गहरी जुताई संस्तुत की जाती है जिससे भूमि में रबी फसल के लिए पर्याप्त जल संचय हो सके | चना के लिए खेत की मिटटी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी नहीं होनी चाहिए तथा न ही बहुत ज्यादा दबी हुई |अच्छी खेती के लिए भूमि की साथ ढीली और ढेलेदार होनी चाहिए | बड़े ढेलों को तोड़ने तथा खेत को समतल बनाने एवं नमी संरक्षक के लिए पाटा लगाना चाहिए | बारानी भूमि में मृदा नमी संरक्षण के उचित प्रबंधन भी अपनाने चाहिए |

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चने की उन्नत प्रजातियाँ/ किस्मों का चयन


किसान समाधान आपके लिए नीचे समय से बुआई, देरी से बुआई एवं काबुली चने की उन्नत विकसित किस्मों की जानकारी लेकर आया है | किसान भाई अपने यहाँ की जलवायु, मिट्टी एवं सिंचाई के साधनों के अनुसार उपयुक्त किस्मों का चयन करें | किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुकूल किस्मों की जानकारी अपने जिले के कृषि विभाग या कृषि पर्यवेक्षक अधिकारीयों से ले सकते हैं | किसान भाई अधिक उत्पदान एवं कीट-रोग से बचाव के लिए प्रमाणित बीज का प्रयोग ही करें |


गेहूं की जैविक खेती से संबंधित कृषि क्रियाएं

देशी प्रजातियाँ: समय से बुआई





































प्रजातियाँ/मुख्य किस्में



चने की किस्मों की मुख्य विशेषताएं


गुजरात चना–4

जारी वर्ष – 2000
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-130 दिन होती है,  पौधा मध्यम बड़ा उकठा अवरोधी सिंचित एवं असिंचित दशा के लिए उपयुक्त होता है |
अवरोधी

जारी वर्ष–1987
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है,  पौधे मध्यम ऊँचाई (सेमी इरेक्ट) भूरें रंग के दाने व उकठा अवरोधी होता है |
पूसा – 256

जारी वर्ष–1985
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है,  पौधे की ऊँचाई मध्यम, पत्ती चौड़ी, दाने का रंग भूरा एवं एस्कोकाइटा ब्लाइट बीमारियों के प्रति सहिष्णु होता है |
के.डब्लू.आर.–108

जारी वर्ष – 1996
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है, दाने का रंग भूरा, पौधे मध्यम ऊँचाई, उकठा अवरोधी होता है |
राधे

जारी वर्ष – 1968
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-150 दिन होती है,  इसका दाना बड़ा होता है |
जे.जी. – 16

जारी वर्ष – 2000
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है,  उकठा अवरोधी बुन्देलखण्ड हेतु |
के. – 850

जारी वर्ष – 1978
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है, इसका दाना बड़ा, उकठा ग्रसित होता है |




































डी.सी.पी. – 92-3

जारी वर्ष – 1998
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है,  उकठा अवरोधी, छोटा पीला दाना होता है |
आधार (आर.एस.जी. – 963)

जारी वर्ष – 2005
उत्पादकता 19-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है,  उकठा, अवरोधी होता है |
डब्लू.सी.जी. – 1

जारी वर्ष – 1996
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है, इसका दाना बड़ा होता है |
डब्लू.सी.जी. – 2

जारी वर्ष – 1999
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है, इसके छोटे दाने वाली उकठा प्रतिरोधी होते है |
के.जी.डी. -1168 (आलोक)

जारी वर्ष – 1997
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 150-155 दिन होती है,  यह उकठा अवरोधी होता है |
जी.एन.जी. – 1958 (मरुधर)

जारी वर्ष – 2013
उत्पादकता 26-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-145 दिन होती है, उकठा, जड सडन, ग्रीवा गलन अवरोधी होता है |
जे.जी. – 14

जारी वर्ष – 2009
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 110-115 दिन होती है, उकठा, सूख गलन, फली बेधक अवरोधी |
जी.एन.जी. – 1581 (गणगौर)

जारी वर्ष – 2008
उत्पादकता 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 127-177 दिन होती है, लाँजिंग अवरोधी |




































बी.जी. – 3043

जारी वर्ष – 2018
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है,  देशी प्रजाति, मध्यम आकार होता है |
जी.एन.जी. – 2171

जारी वर्ष – 2017
उत्पादकता 20.14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 163 दिन होती है, देशी प्रजाति, पीला दाना, फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु |
पन्त ग्राम – 5

जारी वर्ष – 2017
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है,  भूरा दाना, फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु |
सी.एस.जे. – 515 (अमन)

जारी वर्ष – 2016
उत्पादकता 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135 दिन होती है, (उ.प्र. मैदानी क्षेत्र के लिए) छोटा भूरा दाना, सूखा जड सडन, विल्ट, कालर राँट मध्यम अवरोधी, एस्कोचाइटा ब्लाइट एवं बी.जी.एम. सहिष्णु |
पूसा – 3022 (बी.जी.3022)

जारी वर्ष – 2015
उत्पादकता 16-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है, बड़े एवं आकर्षक दाना, काबुली प्रजाति |
वल्लभ काबुली चना – 1

जारी वर्ष – 2015
उत्पादकता 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 147 दिन होती है,  स्लेटी कलरयुक्त बड़ा दाना, फ्यूजेरियम विल्ट मध्यम अवरोधी |
जी.एन.जी. – 1969 (के.)

जारी वर्ष – 2013
उत्पादकता 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 146 दिन होती है, क्रीमी बैगनी रंग का दाना |
जी.एल.के. – 28127

जारी वर्ष – 2013
उत्पादकता 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 149 दिन होती है,  हल्का पीला एवं क्रीम रंग का बड़ा दाना होता है |












जाकी – 9218

जारी वर्ष – 2008
उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 93-125 दिन होती है, विल्ट, रूट राँट एवं कालर राँट अवरोधी होता है |
शुब्रा (आई.पी.सी.के. – 2004–29)

जारी वर्ष – 2009
उत्पादकता 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 104–108 दिन होती है, विल्ट मध्यम अवरोधी तथा सुखा एवं उच्च ताप सहनशील होता है |

देर से बुआई के लिए उपयुक्त किस्में





































पूसा – 372

जारी वर्ष – 1993
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है,  उकठा, ब्लाइट एवं जड गलन के प्रति सहिष्णु होता है |
उदय

जारी वर्ष – 1992
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है, दाने का रंग भूरा, मध्यम ऊँचाई होता है |
पन्त जी. – 186

जारी वर्ष – 1996
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-130 दिन होती है,  पौधे मध्यम ऊँचाई, उकठा सहिष्णु होता है |
आई.सी.पी

जारी वर्ष – 2006 – 77
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है,  उकठा रोग रोधी, दाना मध्यम आकार का होता है |
जी.एन.जी. – 2207 (अवध)

जारी वर्ष – 2018
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है,
जी.एन.जी. – 2144  (तीज)

जारी वर्ष – 2016
उत्पादकता 22.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 133 दिन होती है, देशी प्रजाति, मध्यम आकार एवं फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु |
राज विजय चना – 202 (आर.वी.जी.–202)

जारी वर्ष – 2015
उत्पादकता 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 102 दिन होती है, काबुली प्रजाति, ड्राई रुट राँट एवं कालर राट मध्यम अवरोधी |
राज विजय चना – 203 (आर.वी.जी.–203)

जारी वर्ष – 2012
उत्पादकता 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 100 दिन होती है,  विल्ट एवं ड्राई रूट राँट अवरोधी |

कबूली चने की उन्नत विकसित किस्में









जे.जी. – 14

जारी वर्ष – 2009
उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 113 दिन होती है,  विल्ट, ड्राई रूट राँट एवं पांड बोरर मध्यम अवरोधी |
































पूसा – 1003

जारी वर्ष – 1999
उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है,  दाना मध्यम बड़ा उकठा सहिष्णु होता है |
एच.के. – 94–134

जारी वर्ष – 2005
उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-145 दिन होती है,  दाना बड़ा उकठा, सहिष्णु होता है |
चमत्कार (वी.जी.–1053)

जारी वर्ष – 2000
उत्पादकता 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है,  दाना बड़ा होता है |
जे.जी.के. – 1उत्पादकता 17-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 110-115 दिन होती है,  बड़ा दाना उकठा सहिष्णु होता है |
शुभ्रा

जारी वर्ष – 2009
उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125 दिन होती है, उकठा अवरोधी होता है |
उज्ज्वल

जारी वर्ष – 2009
उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125 दिन होती है,   उकठा अवरोधी होता है |
जी.एन.जी.–1985

जारी वर्ष – 2013
पकने की अवधि 26.8 दिन होती है, (सिंचित दशा में क्षेत्र के लिए)  विल्ट, राँट, स्टट एवं मौलर राँट के प्रति अवरोधी |

चने की अन्य राज्यवार विकसित किस्मों कम सिंचाई में अधिक पैदावार के लिए किसान करें कठिया Durum गेहूं की खेतीकी जानकारी के लिए क्लिक करें


 

चने की बुआई हेतु बीज दर, बीज शोधन एवं बीजोपचार


बीज दर :

छोटे दाने का 75-80 किग्रा. प्रति हेक्टर तथा बड़े दाने की प्रजाति का 90-100 किग्रा./हेक्टर | बोने से पूर्व बीजो की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगो दें। पानी से निकालकर गीले तौलिये या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तामान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरितक बीजों की संख्या गिन लें। 90 से अधिक बीज अंकुरित हुय है तो अकुरण प्रतिषत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करें या बीज की मात्रा बढ़ा दें।

बीज शोधन :

बीज जनित रोग से बचाव के लिए थीरम 2.5 ग्राम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा अथवा थीरम 2.5 ग्राम + कार्बोंड़ाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को बोने से पूर्व शोधित करना चाहिए | बीजशोधन कल्चर द्वारा उपचारित करने के पूर्व करना चाहिए |

बीजोपचार :
राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार :

अलग-अलग दलहनी फसलों का अलग-अलग राइजोबियम कल्चर होता है चेन हेतु मीजोराइजोबियम साइसेरी कल्चर का प्रयोग होता है | एक पैकेट 200 ग्राम कल्चर 10 किग्रा. बीज उपचार के लिए पर्याप्त होता है | बाल्टी में 10 किग्रा. बीज डालकर अच्छी प्रकार मिला दिया जाता है ताकि सभी बीजों पर कल्चर लग जायें | इस प्रकार राइजोबियम कल्चर से सने हुए बीजों को कुछ देर बाद छाया में सुखा लेना चाहिए | पी.एस.बी. कल्चर का प्रयोग अवश्य करें |

सावधानी :

राइजोबियम कल्चर से बीज को उपचारित करने से बाद धुप में नहीं सुखाना चाहिए ओंर जहाँ तक सम्भव हो सके, बीज उपचार दोपहर के बाद करना चाहिए ताकि बीज शाम को ही अथवा दुसरे दिन प्रातः बोया जा सकें |

चने की बुआई इस तरह करें :


असिंचित दशा में चने की बुआई अक्टूबर के द्वितीय अथवा तृतीय सप्ताह तक आवश्यक कर देनी चाहिए | सिंचित दशा में बुआई नवम्बर के द्वितीय साप्ताह तक तथा पछैती बुआई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है | बुआई हल के पीछें कूंडो में 6-8 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए | कूंड से कूंड की दुरी असिंचित तथा पछैती दशा में बुआई में 30 सेमी. तथा सिंचित एवं काबर या मार भूमि में 45 सेमी. रखनी चाहिए |

खाद या उर्वरक का प्रयोग


सभी प्रजातियों के लिए 20 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश एवं 20 किग्रा. गंधक का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से कूंडो में करना चाहिए | संस्तुति के आधार पर उर्वरक प्रयोग अधिक लाभकारी पाया गया है | असिंचित अथवा देर से बुआई की दशा में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का फूल आने के समय छिडकाव करें |

चने की फसल में सिंचाई :



  • पहली सिंचाई शाखायें बनते समय (बुवाई के 45 – 60 दिन बाद) तथा दूसरी सिंचाई फली बनते समय देने से अधिक लाभ मिलता है |

  • चना में फुल बनने की सक्रिय अवस्था में सिंचाई नहीं करनी चाहिए | इस समय सिंचाई करने पर फुल झड सकते हैं एवं अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि हो सकती है | रबी दलहन में हल्की सिंचाई (4 – 5 से.मी.) करनी चाहिए क्योंकि अधिक पानी देने से अनावश्यक वानस्पतिक वृद्धि होती है एवं दाने की उपज में कमी आती है |

  • प्राय: चने की खेती असिंचित दशा में की जाती है | यदि पानी की सुविधा हो तो फली बनते समय एक सिंचाई अवश्य करें | चने की फसल में स्प्रिंकलर (बौछारी विधि) से सिंचाई करें |


शीर्ष शाखायें तोडना (खुटाई)


खेत में चना के पौधे जब लगभग 20 – 25 से.मी. के हों तब शाखाओं के ऊपरी भाग को आवश्यक तोड़ दें | एसा करने से पौधों में शाखाये अधिक निकलती हैं और चने में उपज अधिक प्राप्त होती अहि | चना की खटाई बुवाई के 30–40 दिनों के भीतर पूर्ण करें तथा 40 दिन बाद नहीं करनी चाहिए |

चने की फसल में लगने वाले मुख्य कीट


कटुआ कीट

इस कीट की भूरे रंग की सूडियां रात में निकल कर नये पौधों की जमीन की सतह से काट कर गिरा देती है | कटुआ कीट वानस्पतिक अवस्था में एक सुंडी प्रति मीटर तक आर्थिक क्षति पहुँचता है |
अर्द्धकुण्डलीकार कीट (सेमीलूपर)

इस कीट की सुड़ियाँ हरे रंग की होती है जो लूप बनाकर चलती है | सुड़ियाँ पत्तियों, कोमल टहनियों, कलियों, फूलों एवं फलियों को खाकर क्षति पहुँचती है | अर्द्धकुंडलीकार कीट फूल एवं फलियाँ बनते समय 2 सूडी प्रति 10 पौधें आर्थिक क्षति पहुँचाता है |
फली बेधक कीट :

इस कीट की सुड़ियाँ हरे अथवा भूरे रंग की होती है | सामान्यतयः पीठ पर लम्बी धारी तथा किनारे दोनों तरफ पतली लम्बी धारियाँ पायी जाती है | नवजात सुड़ियाँ प्रारम्भ में कोमल पत्तियों को खुरच कर खाती है तथा बाद में बड़ी होने पर फलियों में छेद बनाकर सिंर को अन्दर कर दोनों को खाती रहती है | एक सूडी अपने जीवन काल में 30-40 फलियों को प्रभावित कर सकती है | तीव्र प्रकोप की दशा में फलियां खोखली हो जाती है तथा उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित होता है | फलीबेधक कीट फूल एवं फलियां बनते समय 2 छोटी अथवा 1 बड़ी सूडी प्रति 10 पौधा अथवा 4-5 नर पतंगे प्रति गंधपाश लगातार 2-3 दिन तक मिलने पर आर्थिक क्षति पहुँचाता है |

नियंत्रण के उपाए :



  • गर्मी में (मई-जून) गहरी जुताई करनी चाहिए | समय से बुआई करनी चाहिए |

  • खेत में जगह-जगह सुखी घास के छोटे-छोटे ढेर को रख देने से दिन में कटुआ कीट की सुड़ियाँ छिप जाती है जिसे प्रातः काल इकटठा कर नष्ट कर देना चाहिए |

  • चने के साथ अलसी, सरसों, धनियाँ की सहफसली खेती करने से फली बेधक कीट से होने वाली क्षति कम हो जाती है |

  • खेत के चारों ओर गेंदे के फूल को ट्रैप क्राप के रूप में प्रयोग करना चाहिए |

  • एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में 50-60 बर्ड पर्चर लगाना चाहिए, जिस पर चिड़ियाँ बैठकर सुडियों को खा सके |

  • फसल की निगरानी करते रहना चाहिए | फूल एवं फलियां बनते समय फली बेधक कीट के लिए 5 गंधपाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाना चाहिए |

  • यदि कीट का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर पार कर गया हो तो निम्नलिखित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए |


रासायनिक नियंत्रण



  • कटुआ कीट के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर बुआई से पूर्व मिट्टी में मिलाना चाहिए |

  • चने में फलीबेधक कीट के नियंत्रण हेतु एन.पी.वी. (एच) 250 एल. ई. प्रति हेक्टेयर लगभग 250-300 लीटर पानी में घोलकर सांयकाल छिडकाव करें |

  • फलीबेधक कीट एवं अर्द्धकुण्डलीकार कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित जैविक / रासायनिक कीटनाशकों में से किसी एक रसायन का बुरकाव अथवा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करना चाहिए |

  • बेसिलस थूरिन्जिएन्सिस (बी.टी) (कस्र्त्की) प्रजाति 1.0 किलोग्राम |

  • एजाडिरैक्टिन 0.03 प्रतिशत डब्लू.एस.पी. 2.5-3.00 किलोग्राम |

  • एन.पी.वी. आफ हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा 2 प्रतिशत ए.एस. 250-300 मिली.


खेत की निगरानी करते रहे | आवश्यकतानुसार ही दूसरा बुरकाव / छिडकाव 15 दिन के अन्तराल पर करें | एक कीटनाशी को दो बार प्रयोग न करें |

चने की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग :


जड़ सडन :

बुआई के 15-20 दिन बाद पौधा सूखने लगता है | पौधे को उखाड़ कर देखने पर तने पर रुई के समान फफूंदी लिपटी हुई दिखाई देती है | इसे अगेती जड़ सडन करते है | इस रोग का प्रकोप अक्टूबर से नवम्बर तक होता है | पछेती जड़ सडन में पौधे का तना काला होकर सड़ जाता है तथा तोड़ने पर आसानी से टूट जाता है | इस रोग का प्रकोप फरवरी एवं मार्च में अधिक होता है |
उकठा :

इस रोग में पौधे धीरे-धीरे मुरझाकर सुख जाते है | पौधे को उखाड़ कर देखने पर उसकी मुख्य जड़ एवं उसकी शाखायें सही सलामत होती है | छिलका भूरा रंग का हो जाता है तथा जड़ को चीर कर देखें तो उसके अन्दर भूरे रंग की धारियां दिखाई देती है | उकठा का प्रकोप पौधे के किसी भी अवस्था में हो सकता है |
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग :

इस रोग में पत्तियों एवं फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है | अनुकूल परिस्थिति में धब्बे आपस में मिल जाते है जिससे पूरी पत्ती झुलस जाती है |

रोग नियंत्रण के उपाय :


शस्य क्रियायें

  • गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है |

  • जिस खेत में प्रायः उकठा लगता हो तो यथा सम्भव उस खेत में 3-4 वर्ष तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए |

  • अगेती जड़ सडन से बचाव हेतु नवम्बर के द्वितीय सप्ताह में बुआई करनी चाहिए |

  • उकठा से बचाव हेतु अवरोधी प्रजाति की बुआई करना चाहिए |


बीज उपचार :

बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत + कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2:1) 3.0 ग्राम अथवा ट्राइकोडरमा 4.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधित कर बुआई करना चाहिए |
 भूमि उपचार :

भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैवकवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा, सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से चना के बीज / भूमि जनित रोगों का नियंत्रण हो जाता है |
पर्णीय उपचार :

एस्कोकाइटा पत्ती धब्बे रोग के नियंत्रण हेतु मैकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.0 किग्रा. अथवा कापर अक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी की 3.0 किग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी घोलकर छिडकाव करना चाहिए |

चने की फसल में प्रमुख खरपतवार :


बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि |

नियंत्रण के उपाय :


खरपतवारनाशी रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने हेतु फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त पहले मिट्टी में मिलान चाहिए | अथवा पेंडीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई.सी. की 4.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर उरोक्तानुसार पानी में घोलकर फ्लैट फैन / नाजिल से बुआई के 2-3 दिन के अन्दर समान रूप से छिडकाव करें | क्यूजालोफोप-इथाइल 5 प्रतिशत ई.सी. की 2.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के 20-30 दिनों बाद करने पर सकरी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रण कर सकते है | अतः बुआई से 2-3 दिनों के अन्दर पेंडीमेथलीन एवं 20-30 दिनों बाद क्यूजालोफोप-इथाइल का प्रयोग कर सभी प्रकार के खरपतवारों को नियंत्रित कर सकते है | यदि खरपतवारनाशी रसायन का प्रयोग न किया गया हो तो खुरपी से निराई कर खरपतवारों का नियंत्रण करना चाहिए |

कटाईमड़ाई एवं भण्डारण


चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है।

  • व फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार हैं

  • व चना के पौधों की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी हो जाती है, या झड़ जाती है तब फसल की कआई करना चाहिये।

  • व फसल के अधिक पककर सूख जाने से कटाई के समय फलियाँ टूटकर खेत में गिरने लगती है, जिससे काफी नुकसान होता है। समय से पहले कटाई करने से अधिक आर्द्रता की स्थिति में अंकुरण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है।

  • व मड़ाई थ्रेसर से या फिर बैलों या ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है।


टूटे-फूटे, सिकुडत्रे दाने वाले रोग ग्रसित बीज व खरपतवार भूसे और दानें का पंखों या प्राकृतिक हवा से अलग कर बोरों में भर कर रखे । भण्डारण से पूर्व बीजों को फैलाकर सुखाना चाहिये। भण्डारण के लिए चना के दानों में लगभग 10-12 प्रतिशत नमीं होनी घुन से चना को काफी क्षति पहुंचती है, अतः बन्द गोदामों या कुठलों आदि में चना का भण्डारण करना चाहिए। साबुतदानों की अपेक्षा दाल बनाकर भण्डारण करने पर घुन से क्षति कम होती है। साफ सुथरें नमी रहित भण्डारण ग्रह में जूट की बोरियाँ या लोहे की टंकियों में भरकर रखना चाहिये।


गेहूं की उन्नत खेती

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