फ्रेंचबीन

फ्रेंचबीन



फ्रेंचबीन की जैविक खेती से संबंधित कृषि क्रियाएं





  1. भूमि का चयन और इसे तैयार करना

  2. बुआई का समय

  3. बीज दर और बीज की दूरी

  4. बीज उपचार

  5. मृदा प्रबंधन

  6. सिंचाई और जल प्रबंधन

  7. संवर्धन क्रियाएं और खरपतवार प्रबंधन

  8. फसल संरक्षण

  9. कीट प्रबंधन

  10. रोग प्रबंधन

  11. फसल कटाई और भंडारण




इसकी खेती जुलाई-सितंबर और उत्तरी भारत में दिसंबर-फरवरी से भी की जा सकती है. यह मध्यम से हल्की मिट्टी (5-7 पीएच) तक की मिट्टी की एक विस्तृत श्रृंखला में उगाया जा सकता है, लेकिन अच्छी तरह से सूखा हुआ लोम में सर्वोत्तम परिणाम देता है. परिपक्व फ्रेंच बीन के बीज बोने के लिए कठोर और बोल्ड सीड कोट का उपयोग किया जाता है.





भूमि का चयन और इसे तैयार करना


रेतीली से लेकर भारी चिकनी मृदा जिसका पी.एच. रेंज 5.5-6 है और जिसमें जैविक कार्बन एक प्रतिशत से ज्यादा है वह फ्रेंचबीन  की खेती के लिए उपयुक्त है। मृदा में पी.एच. स्तर, जैविक कार्बन, गौण पोषक तत्व (एनपी.के.), सूक्ष्म पोषक तत्व तथा खेत में सूक्ष्म जीवों के प्रभाव की मात्रा की जांच करने के लिए वर्ष में एक बार मृदा परीक्षण जरूरी है। यदि जैविक कार्बन तत्व एक प्रतिशत से कम है तो मुख्य खेत में 25-30 टन/है0 कार्बनिक खाद का उपयोग किया जाए और खाद को अच्छी तरह से मिलाने के लिए खेत में 2-3 बार जुताई की जाए। प्रमाणिक जैविक खेत तथा गैर जैविक खेत के बीच एक सुरक्षा पट्टी जरूरी रखी जाए जो गैर जैविक खेत से लगभग 7 मीटर की दूरी पर होनी चाहिए, ताकि प्रमाणिक जैविक खेत में निशिद्ध सामग्री के प्रवेश को रोका जा सके।

बुआई का समय


निचले पर्वतीय क्षेत्र - फरवरी-मार्च और अगस्त-सितम्बर

मध्य पर्वतीय क्षेत्र - मार्च - जुलाई

ऊचे पर्वतीय क्षेत्र - अप्रैल-जून

अनुमोदित किस्में

(अ) बौनी या झाड़ीदार किस्में - कंटेन्डर, पूसा पार्वती, वी.एल. बोनी-1, प्रीमियर, अर्का कोमल।

(ब) बेलनुमा या ऊंची किस्में - एस.वी.एम.-1, लक्ष्मी (पी-37), केन्टुकी वन्डर

बीज दर और बीज की दूरी


बीज की दर बीज आकार के अनुसार अलग- अलग है - बौनी किस्मों में बीज की मात्रा 75 कि.ग्रा./है. है, जबकि बेल वाली किस्मों में बीज की दर 30 कि.ग्रा./है. है। बौनी किस्मों को आमतौर पर 45 सें.मी. की पंक्ति में बोया जाता है तथा पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 15 सें.मी. रखी जाती है। बेल वाली किस्मों का पंक्ति से पंक्ति 90 सें.मी. का अंतराल होता है, जबकि एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी 15 सें.मी. रखी जाती है।

Mahindra Arjun NOVO 605 DI-i

बीज उपचार


फफूद रोग को नियंत्रित करने के लिए बुआई से पहले 24 घंटे के लिए बीज को ट्राइकोडर्मा से/4 ग्राम/कि0ग्रा0 बीज के साथ उपचारित किया जाए। यदि फसल पहली बार उगाई जा रही है तो बीज का उपचार राईजोबियम संवर्धन/600 ग्राम/है0 से किया जाए। बीजों पर सवर्धन को चिपकाने के लिए चावल के दलिया का इस्तेमाल किया जाए। उपचारित बीजों को बुआई से पहले छाया में 15-30 मिनट तक सुखाया जाए। पहाड़ों में बीजों को पंक्ति में या क्यारी में उगाया जाए। मैदानी क्षेत्र में बीजों को मेड़ों के साईड में उगाया जाए।

मृदा प्रबंधन


फ्रेंचबीन के रोपण से पहले 2 माह तक पूरक फसलें उगाई जाएं। ऊँचबीन से पहले फलीदार फसलों को पूरक सहायक फसल के रूप में उगाने से बचा जाए क्योंकि यह ज्यादातर बीन और संबंधित कीटों तथा रोगों से काफी समीपस्थ होती है। मक्का और दानेदार अनाज की फसलें उत्कृष्ट परिचक्रण फसलें हैं और फसल अवशेष की जुताई हरी खाद के रूप में की जाए। यह लाभकारी है क्योंकि यह नाइट्रोजन को पौधों को उपलब्ध कराती है। अन्यथा वह मृदा में घुल कर बह जाती है। जमीन को खेती के लिए तैयार करते समय इसमें अच्छी तरह सड़ी-गली और प्रचुर कम्पोस्ट/फार्म यार्ड खाद/20 टन/है0 का इस्तेमाल किया जाए। कम्पोस्ट की प्रचुरतः जैव उर्वरक, एजोसपिरोलियम, फास्फोबैक्टीरिया तथा राइजोबियम/1 कि0ग्रा0 प्रत्येक एक टन में गोबर की खाद के साथ प्रयोग किया जाए और इसे ताड़ की भूसी या तेल- ताड़ के पत्तों से 2 सप्ताह तक ढक कर रखा जाए। नियमित रूप से पानी छिड़कें और प्रत्येक 10 दिन में एकत्र करें। दो सप्ताह बाद इस मिश्रण को कम्पोस्ट/एफ.वाई.एम. (19 टन) की संतुलित मात्रा में मिला दें और जमीन तैयार करते समय समस्त 20 टन का इस्तेमाल करें। 250 कि.ग्रा. नीम की खली के साथ 8 प्रतिशत तेल का इस्तेमाल करें।

फास्फोट पोषणता के लिए रौक फास्फेट या अस्थिचूर्ण (दोनों में लगभग 20 प्रतिशत पी) का उपयोग फास्फेट घुलनशील बैक्टीरिया (पी.एस.बी.) के साथ किया जाए। पोटाश पोषक तत्व के लिए लकड़ी के बुरादे या भेड़ अपशिष्ट का प्रयोग किया जा सकता है। बढ़वार को तेज करने के लिए संपूरक पोषक तत्व के रूप में कम से कम 3 बार पंचगव्य का उपयोग किया जाए।

VST shakti 130 DI POWER TILLER

सिंचाई और जल प्रबंधन


बुआई के तुरंत बाद, तीसरे दिन और बाद में सप्ताह में एक बार सिंचाई की जाए। फूल | आने तथा फलियों के विकास के समय सिंचाई करना लाभदायक होता है। पानी की कमी में मृदा में नमी का अभाव या अत्यधिक वाष्पोत्सर्जन से फली की कलियां विरूपित या मज्जा ग्रस्त हो सकती हैं।

संवर्धन क्रियाएं और खरपतवार प्रबंधन


खरपतवार निकालने का काम बुआई के बाद 20-25 दिन और 40-45 दिन में किया जाए। प्रत्येक बार खरपतवार निकालने के बाद खेतों में मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जाए। बेलदार किस्मों के लिए प्रत्येक पौधे के नजदीक 5-6 फीट ऊंची लकड़ी लगाई जाए और बेल को उस पर चढ़ने दें।

फसल संरक्षण


फसल परिचक्रण रोग और सूत्रकृमि के प्रकोप को रोकता है और खरपतवार को समाप्त करता है। यह कीट चक्र को तोड़ने में भी मदद करता है।

कीट प्रबंधन

















माईटशिशु व व्यस्क माईट पौधे की कोमल पत्तियों तथा फलों से रस चूसते हैं जिससे उनका हरापन नष्ट हो जाता है। पत्तियों की ऊपरी सतह पर अत्यंत छोटे-छोटे हल्के पीले रंग के चकत्ते बन जाते हैं। प्रकोप अधिक होने पर पौधा सूखकर नष्ट हो जाता है।

रोकथाम

  • फसल बिजाई के समय जमीन में नीम के पत्तों से तैयार की गई खाद (5 क्विंटल/है0) या नीम के बीज से तैयार की गई खाद (1 क्विंटल/है0) का प्रयोग करने से दीमक का प्रकोप कम हो जाता है।

  • चूना और गंधक का मिश्रण जमीन में डालने से भी दीमक के प्रकोप में भारी कमी आती है।

  • लकड़ी से प्राप्त राख को पौधों के तनों के मूल में डालने से दीमक के प्रकोप में कमी आती है।

  • पशु-मूत्र को पानी के साथ 1-6 में मिलाकर बार-बार दीमक के घरों में डालने से इनका प्रसार रोका जा सकता है।

  • विवेरिया या मेटाराइजियम फफूद का कण अवस्था में (6 ग्राम/वर्ग मीटर)प्रयोग करें।


व्हाईट फलाईयह रस चूसकर पौधों को हानि पहुंचाती है।

रोकथाम

• वरटी सीलियम 0.3 प्रतिशत घोल का सप्ताह के अन्तराल पर प्रयोग करें।

 
बीन बगशिशु और प्रौढ़ पत्तों की निचली सतह से रस चूसते हैं। अति प्रभावित भाग हल्के पीले सड़ जाते हैं और पत्ते गिर जाते हैं।

रोकथाम

  • रोपण के बाद 45, 60 तथा 75वें दिन 10 प्रतिशत लहसून- मिर्च- अदरक के सत्त के छिड़काव की सिफारिश भी विकल्प के रूप में की जाती है।

  • 4 प्रतिशत नीम के पाउडर घोल का छिड़काव करें। 4 कि0ग्रा0 नीम बीज का पाउडर लें और 10 लीटर पानी में मिलाकर पूरी रात रखें। अगले दिन सुबह छान लें और 100 लीटर पानी में मिला लें और छिड़काव करें या 3 प्रतिशत नीम के तेल का छिड़काव करें।



रोग प्रबंधन


 































राईजोक्टोनिया जड़ सड़न तथा अंगमारीइस रोग के लक्षण पौधों के तनों पर भूमि के साथ एक विशेष किस्म के लाल - भूरे रंग  के धंसे हुए धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधे कमजोर हो जाते हैं। यदि नमी पर्याप्त हो तो पत्तियों तथा फलियों पर झुलसे के लक्षण दिखाई देते हैं और यदि नमी कम हो तो उन भागों पर भूरे रंग के छोटे- छोटे धब्बे बन जाते हैं। रोगग्रस्त फलियों में पनपने वाले बीज भी इस रोग से प्रभावित होकर छोटे तथा सिकुड़े बन जाते हैं, जिन पर भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। बारिश का मौसम तथा 25° से. तापमान इस रोग की वृद्धि के लिए उपयुक्त है।

रोकथाम

  • बहुवर्षीय फसल चक्र अपनाएं।

  • रोगमुक्त बीज का प्रयोग करें।

  • बीज का बिजाई से पहले ट्राइकोडर्मा तथा राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें।


श्याम वर्ण

 
इस रोग से फलियों पर विशेष प्रकार के गोल गड्ढे विकसित होते हैं, जिनके बीच का भाग हल्के भूरे रंग का तथा किनारे लाल से भूरे रंग के होते हैं। नमी वाले मौसम में यह धब्बे हल्के गुलाबी रंग के फफूद से ढक जाते हैं। बारिश व नमी वाले मौसम इस रोग के संक्रमण तथा वृद्धि के लिए उपयुक्त हैं।

रोकथाम

  • दो से तीन साल फसल चक्र अपनाएं।

  • स्वस्थ बीज का चयन करें।

  • बीज का बिजाई से पहले ट्राइकोडर्मा, राइजोबियम कल्चर तथा बीजामृत से उपचारित करें।


 
पत्तों का कोणदार धब्बा

 
इस रोग से पत्तियों पर 3-5 कोण वाले भूरे रंग से लाल रंग के धब्बे बनते हैं, जो कि अनुकूल वातावरण में आपस में मिल जाते हैं तथा रोगग्रस्त पत्तियां समय से पूर्व पीली पड़कर जमीन पर गिर जाती हैं। फलियों की सतह पर गहरे - भूरे रंग के गोलाकर धब्बे बनते हैं, जो बाद में फली का आकार बढ़ने पर लंबाई तथा चौड़ाई में बढ़ जाते हैं। इन धब्बों पर मखमली रंग की फफूद की परत बन जाती है। रोगग्रस्त फलिया में बन रहे बीजों पर भी पीले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। ज्यादा तापमान तथा नमी वाला मौसम इस रोग के पनपने में सहायता करता है।

रोकथाम

  • रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।

  • 2-3 वर्ष का फसल चक्र चलाएं।

  • स्वस्थ बीज का चयन करें।

  • बिजाई से पहले बीज का उपचार ट्राइकोडर्मा, राइजोबियम कल्चर और बीजामृत से करें।

  • वर्षा ऋतु में पानी की निकासी पर पूरा ध्यान दें।


फ्लावरी लीफ स्पॉट

 
इस रोग के लक्षण केवल पत्तों पर ही पाए जाते हैं। पत्तों की निचली सतह पर छोटे - छोटे आटे के रंग के चूर्णिल धब्बे पड़ जाते हैं। इन्हीं धब्बों की ऊपरी सतह पर पीले रंग के धब्बे बन जाते हैं। बाद में यह धब्बे पत्तों की दोनों सतह पर आकार में बढ़ जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पत्तियां समय से पहले पीली पड़ जाती हैं और जमीन पर गिर जाती हैं, जिससे पौधा कमजोर पड़ जाता है। वर्षा व नमी वाला मौसम इस रोग के फैलने में सहायता करता है।

रोकथाम -

 

क्राऊन सड़न

 
इस रोग के प्रकोप से पौधों के तनों पर जमीन के साथ भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। रोगग्रस्त तने के चारों तरफ कावक का कपासीय कवक जाल भी देखा जा सकता है। कवक जाल की वृद्धि के साथ पत्तियां पीली होकर समय से पूर्व जमीन पर गिरने लगती हैं। रोगग्रस्त पौधों की जड़ों का विगलन हो जाता है। कवक जाल पर अनेक गोलाकार गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। अधिक तापमान तथा अधिक नमी इस रोग के फैलने में सहायता करती है।

रोकथाम

• बहुवर्षीय फसल चक्र चलाएं।

• रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें।
जीवाणु अंगामरी

 
इस रोग के मुख्य लक्षणों में छोटे जलसिक्त धब्बों का बनना तथा पत्तों पर शिराओं के मध्य भाग का पीला होना है। तनों पर लाल रंग की धारियां तथा गहरे धब्बे बनते हैं। फलियों पर छोटे जलसिक्त धब्बे बनते हैं जो कि स्पष्ट लाल, भूरे अथवा गहरे भूरे रंग के पतले भागों द्वारा घिरे होते हैं। बीजों का विशेष रूप से हाइलम क्षेत्र का रंग बदल जाता है। 24° सै. तापमान तथा 50 प्रतिशत से अधिक नमी इस रोग की वृद्धि के लिए उपयुक्त है।सोयाबीन(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

रोकथाम

  • संक्रमित पौधों के अवशेषों तथा खरपतवारों को नष्ट कर दें।

  • बहुवर्षीय फसल चक्र अपनाएं।

  • स्वस्थ बीज का चयन करें।

  • बीज को बिजाई से पहले ट्राइकोडर्मा तथा बीजामृत से उपचारित करें।

  • रोग के लक्षण दिखाई देते ही पंचगव्य का छिड़काव करें।


सामान्य मौजेक

 
यह बिजाणु बीन में सामान्य मौजेक तथा सड़न करता है, जिसके लक्षणों में पत्तों का मुड़ना या छाले पड़ना, हल्के और गहरे हरे धब्बों का बनना, शिराओं का पीला होकर मुड़ना तथा वृद्धि में रूकावट आना इत्यादि हैं। अंतरवाही संक्रमित पौधों में छोटी व कम फलियां लगती हैं तथा कई बार गहरे हरे धब्बों से ढक जाती हैं और स्वस्थ फलियों की अपेक्षा देर से पकती हैं।

रोकथाम

  • खेतों के चारों तरफ से धतूरा तथा मुकोह आदि खरपतवारों को निकालकर जला दें।

  • रोग व कीट नियंत्रण के लिए नीम तेल का छिड़काव 10-12 दिन के अंतराल पर करें।

  • स्वस्थ बीज का उपयोग करें तथा बिजाई से पहले बीज का उपचार ट्राइकोडर्मा तथा बीजामृत से करें।



फसल कटाई और भंडारण


पुष्पण समय पूरा होने के बाद 2 से 3 सप्ताह की अवधि में तुड़ाई के लिए फली तैयार हो जाती है। झाडी वाली फलियों के मामले में रोपण के बाद 50-60 दिन में फली तैयार होती है, जबकि पोल- बीन के मामले में 70-80 दिन बाद यह तोड़ने लायक हो जाती है। उत्पाद को हवादार कमरे में छाया में रखें।

पैदावार

फ्रेंचबीन  की औसत पैदावार 90-100 दिन में 8-10 टन/हैक्टेयर हरी फली है।


फ्रेंचबीन (फ्रांसबीन)


बीन्स की हरी पौध सब्जी के रूप में खायी जाती है तथा सुखा कर इसे राजमा, लोबियाधान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है) इत्यादि के रूप में खाया जाता है। हरी बीन्स या सामान्य भाषा में फ्रेंच बीन्स में मुख्यत: पानी, प्रोटीन, कुछ मात्रा में वसा तथा कैल्सियम, फास्फोरस, आयरन, कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन, नियासीन, विटामिन सी आदि तरह के मिनरल और विटामिन मौजूद होते हैं। बीन्स विटामिन बी२ का मुख्य स्रोत होते हैं। बीन्स सोल्युबल फाईबर का अच्छा स्रोत होते हैं और इस कारण ह्रदय रोगियों के लिए बहुत ही फ़ायदेमंद हैं। ऐसा माना जाता है कि एक कप पका हुआ बीन्स रोज़ खाने से रक्त में कोलेस्टेरोल की मात्रा ६ हफ्ते में १० प्रतिशत कम हो सकती है और इससे ह्रदयाघात का खतरा भी ४० प्रतिशत तक कम हो सकता है। बीन्स में सोडियम की मात्रा कम तथा पोटेशियम, कैल्सियम व मेग्नीशियम की मात्रा अधिक होती है और लवणों का इस प्रकार का समन्वय सेहत के लिए लाभदायक है। इससे रक्तचाप नहीं बढ़ता तथा ह्रदयाघात का खतरा टल सकता है।

फूलगोभी(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

किस्मे


झाड़ीदार किस्में : जाइंट स्ट्रींगलेस, कंटेंडर, पेसा पार्वती, अका्र कोमल, पंत अनुपमा तथा प्रीमियर, वी.एल. बोनाी-1

बेलदार किस्में : केंटुकी वंडर, पूसा हिमलता व एक.वी0एन.-1

जलवायु : फ्रांसबीन के लिए हल्की गर्म जलवायु की आवश्यकता है। इसके लिए 18-24 उिग्री से. तापमान की आवश्यकता है। अधिक ठंड तथा गर्मी दोनों, इसके लिए हानिकारण हैं। इसकी सफल खेती के लिए लगातार 3 महीने अनुमूल मौसम चाहिए।

भूमि : बलुई बुमट व बुमट मिट॒टी अच्छी पाई गई है। इसकी खेती के लिए भारी व अम्लीय भूमि वाली मिट॒टी उपयुक्त नहीं है।

बीजदर :

झाड़ीदार किस्म      :     80-90 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर

बेलदार किस्म       :     35-30 कि.ग्रा. बीज/हेक्टेयर

बुवाई का समय : उत्तर भारत में जहाँ पर सर्दी अधिक होती है। इसकी बुवाई दो बार अक्टूबर व फरवरी में की जा सकती है। हल्की ठंड वाले स्थानों पर नवम्बर के पहले सप्ताह में बुर्वा उपयुक्त है। पहाड़ी क्षेत्रों में फरवरी, मार्च व जून माह में बुवाई की जा सकती है।

बुवाई की दूरी : बीज की बुवाई पंक्ति से पंक्ति 45-60  सें.मी. तथा बीज से बीज की दूरी 10 सें.मी. पर होती है। लेकिन बेलदार किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति 100 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए तथा पौधों को सहारा देने का प्रबंध आवश्यक है। बीज अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी का होना भी आवश्यक है।

उर्वरण व खाद : बुवाई से पहले बीज का राइजोबियम नामक जीवाणु से उपचार कर लें। नत्रजन 20 कि.ग्रा. फास्फोरस 80 कि.ग्रा.  व पोटाश 50 कि.ग्रा.  की मात्रा/हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी में अन्तिम जुलाई पर मिलाएँ तथा 20 कि.ग्रा. नत्रजन/हेक्टेयर की दर से फसल में फूल आने पर प्रयोग करें। 20-25 टन गोबर या कम्पोस्ट खाद को खेत की तैयारी के समय मिट॒टी में अच्छी तरह मिला दें।

सिंचाई : बुआई के समय बीज अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी की आवश्यकता है। इसके बाद 1 सप्ताह से 10 दिन के अंतराल पर फसल की आवश्यकता अनुसार सिंचाई करें।

खरपतवार  नियंत्रण : दो से तीन बार निराई व गुड़ाई खरपतवार नियंत्रण के लिए काफी है। एक बार पौधों को सहारा देने के लिए मिट॒टी चछ़ाना आवश्यक है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए 3 लिटर स्टाम्प का प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के बाद दो दिन के अंदर घोलकर छिड़काव करें।

तुड़ाई : तुड़ाई फूल आने के 2-3 सप्ताह बाद आरंभ हो जाती है। तुड़ाई नियमित रुप से जब फलियाँ नर्म व कच्ची अवस्था में हो, तभी करें।

मध्यप्रदेश के लिए अनुशंसित 5 प्रमुख सोयाबीन की किस्में(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

उपज : हरी फली उपज 75-100 क्विंटल/हेक्टेयर की दर से प्राप्त होती है। यह प्रजाति के प्रकार पर भी निर्भर करती है।

बीजोत्पादन : किस्म की मांग के आधार पर बीज उत्पादन करें। आधार बीज के लिए 10 मीटर तथा प्रमाणित बीज के लिए 5 मीटर की पृथक्करण दूरी पर्याप्त है। प्रजाति की शुद्धता बनाए रखने के लिए दो बार अवांछित पौधों को बीज फसल से निकाल दें। पहली बार फूल आने की अवस्था में तथा दूसरी बार फली के पूर्ण विकसित होने की अवस्था में जिससे बीज फसल की द्यशुद्धता बनी रहे। लगभग 90 प्रतिशत फलियों के पकने पर फसल की कटाई करें। फसल मड़ाई, बीज की सफाई के बाद उसे सुखाएँ व बीज उपचार के बाद बीज का भण्डारण करें।

बीज उपज : 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्रजाति के अनुसार

2 Comments

Post a Comment

Previous Post Next Post