मटर की खेती

मटर की खेती



मटर की जैविक खेती से संबंधित कृषि क्रियाएं





  1. भूमिका

  2. भूमि का चयन व तैयारी

  3. बुआई का समय

  4. अनुमोदित किस्में

  5. बीज का उपचार

  6. बीज दर व अंतराल

  7. मृदा उर्वरक प्रबंधन

  8. सिंचाई व पानी प्रबंधन

  9. खरपतवार प्रबंधन

  10. पौध संरक्षण

  11. तुड़ाई व उपज

  12. भण्डारण



मटर की बुवाई का सही समय / भूमि व जलवायु व बुवाई का समय

इसकी खेती के लिए अक्टूबर-नवंबर माह का समय उपयुक्त होता है। इस खेती में बीज अंकुरण के लिए औसत 22 डिग्री सेल्सियस की जरूरत होती है, वहीं अच्छे विकास के लिए 10 से 18 डिग्री सेल्सियस तापमान बेहतर होता है।





भूमिका


हरा मटर हिमाचल प्रदेश की एक प्रमुख बेमौसमी सब्जी है। व्यावसायिक रूप से इसे सर्दियों में मध्यवर्ती व निचले क्षेत्रों में और गर्मियों में ऊंचे पर्वतीय व आर्द्र शीतोष्ण वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है। गर्मियों में पर्वतीय क्षेत्रों का वातावरण मटर की फसल के लिए अनुकूल होने के कारण इस क्षेत्र के किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि होती है। मैदानी क्षेत्रों में अधिक गर्मी होने के कारण इसका उत्पादन नहीं हो पाता। पर्वतीय क्षेत्रों के मटर अपनी विशेष सुगन्ध, मिठास व ताजगी के लिए सभी को आकर्षित करते हैं। प्रदेश में लगभग 18,930 हैक्टेयर क्षेत्र से 2,02,521 मट्रिक टन उत्पादन होता है।

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भूमि का चयन व तैयारी


जिस मृदा में पीएच रेंज 6.5 से 7.5 और जहां एक प्रतिशत जैविक कार्बन हो, वह मटर की खेती के लिए उपयुक्त भूमि होती है। यह भी जरूरी है कि मृदा के पीएच स्तर, जैविक कार्बन, गौण पोषक तत्व (एनपी.के.) तथा खेत में सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा की जांच के लिए वर्ष में एक बार मृदा परीक्षण किया जाए। जैविक कार्बन की मात्रा । प्रतिशत से कम होने पर 25 से 30 टन गोबर की खाद प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग में लाना चाहिए और खाद को अच्छी तरह मिलाने के लिए दो से तीन बार जुताई करनी चाहिए।

बुआई का समय

























क्षेत्रअगेती किस्में

 
मध्य ऋतु की किस्में (मुख्य फसल)

 
निचले पर्वतीय क्षेत्रसितम्बर - अक्तूबरनवम्बर
मध्य पर्वतीय क्षेत्रसितम्बर (पहला पखवाड़ा)नवम्बर
ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रमार्च - जूनअक्तूबर-नवम्बर, मार्च - जून

अनुमोदित किस्में


बोनविला, किन्नौरी, लिंकन, वीएल-3, पालम प्रिया, सोलन निरोग, जीसी-477,पंजाब - 89, अरकल, वीएल-7, मटर अगेता -6

बीज का उपचार


बीज के लिए स्वस्थ व रोग मुक्त बीजों का चयन करना चाहिए और खेत में बीजने से पहले बीज का उपचार ट्राईकोडर्मा, बीजामृत से करना चाहिए।

बीज दर व अंतराल


शीघ्र पकने वाली किस्मों के लिए 125 से 150 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर (10-12 कि.ग्रा.प्रति बीघा)।

मध्य तथा देर से पकने वाली किस्मों के लिए 60-75 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर (5-6 कि.ग्रा. प्रति बीघा)। अगेती किस्में - 30x7.5 सें.मी.,

मध्य और देर से पकने वाली किस्में - 60x7.5 सें.मी.
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मृदा उर्वरक प्रबंधन


मटर की अच्छी उपज पाने के लिए 15 टन वर्मी कम्पोस्ट तथा 2 टन बीडी कम्पोस्ट या 20 टन गोबर की खाद तथा 2 टन बीडी कम्पोस्ट इस्तेमाल करनी चाहिए। यह खादं अच्छी प्रकार हल चलाते समय भूमि में मिलानी चाहिए। वर्मी कम्पोस्ट अंतिम बुआई के समय प्रयोग में लानी चाहिए।

सिंचाई व पानी प्रबंधन


मटर की बिजाई से पहले एक सिंचाई करें तथा उसके उपरांत 10-12 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहें। मटर की फसल के लिए पानी की आवश्यकता भूमि व वर्षा पर निर्भर करती है। आम तौर पर मटर की फसल के लिए 2-3 सिंचाईयां बहुत जरूरी होती हैं। पहली सिंचाई बीज बोने से पहले, दूसरी सिंचाई फूल आने पर और तीसरी सिंचाई जब फलियां तैयार हो रही हों। जमीन में अधिक नमी मटर की फसल के लिए हानिकारक होती है जो कि जड़ सड़न रोग, पौधों का पीला पड़ जाना और फसल के दूसरे तत्वों को उपयोग में लाने में अवरोधक होती है।

खरपतवार प्रबंधन


फसल में 1-2 बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है जो कि फसल की किस्म पर निर्भर करती है। पहली निराई व गुड़ाई, जब पौधों में तीन-चार पत्ते हों या बिजाई से 3-4 सप्ताह बाद करें। दूसरी, फूल आने से पहले करें। खेत की मेढ़ों पर पाए जाने वाले वार्षिक घास वाले और चौड़ी पत्तों वाले खरपतवारों की रोकथाम उनको नष्ट करने के उपरांत की जा सकती है।

पौध संरक्षण


(अ) कीट











लीफ माईनरलार्वे पत्तों पर सुरंग बनाते हैं तथा फरवरी से अप्रैल तक हानि पहुंचाते हैं। प्रौढ़ थ्रिप्स फूल के अन्दर तथा शिशु पत्तों और फलियों पर पलते हैं।

रोकथाम -  पंचगव्य अथवा दशपर्नी के 5 से 10 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें।

 
फली छेदकसुण्डियां पत्तों पर पलती हैं और बाद में फलियों में घुसकर बीज खाती हैं।

रोकथाम - 1 किलोग्राम मेथी के आटे को 2 लीटर पानी में डालकर 24 घंटे के लिए रख देते हैं। इसके उपरान्त इसमें 10 लीटर पानी डालकर फसल पर छिड़काव करते हैं। इससे 50 प्रतिशत तक सुण्डियों की रोकथाम हो जाती है।

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(ब) बीमारियां







































फफूद जनित रोग

पाउडरी मिल्ड्यू
इस रोग के लक्षण पहले पत्तियों पर और बाद में पौधे के अन्य भागों में तने व फलियों पर सफेद चूर्ण वाले धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। बाद में यह धब्बे आपस में मिल जाते हैं तथा सभी हरे भाग सफेद चूर्ण से ढक जाते हैं। दूर से फसल ऐसे दिखाई देती है। जैसे आटे का छिड़काव किया हो। रोगग्रस्त फलियां आकार में छोटी तथा सिकुड़ी हुई होती हैं और बाद में फलियों के धब्बों का रंग भूरा हो जाता है।

रोकथाम

  1. रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके जला दें।

  2. रोग प्रतिरोधी किस्में लगायें।

  3. फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने से पहले लहसुन की गठियों के द्रव्य (2 प्रतिशत) का छिड़काव 7 दिन के अंतराल पर करें। दूध में हींग मिलाकर (5 ग्रा./लीटर पानी) का छिड़काव करें। चूर्ण आसिता बीमारी के नियंत्रण के लिए 2 कि.ग्रा. हल्दी का चूर्ण तथा 8 कि.  ग्रा. लकड़ी की राख का मिश्रण बनाकर पत्तों के ऊपर डालें।

  4. अदरक के चूर्ण को 20 ग्राम प्रति लीटर पानी में डालकर घोल बनाएं तथा 15 दिन के अंतराल पर तीन बार छिड़कने से चूर्ण आसिता तथा अन्य फफूद वाली बीमारियों का प्रकोप कम होता है।


एस्कोकाईटा ब्लाईटप्रभावित पौधे मुरझा जाते हैं। जड़े भूरी हो जाती हैं। पत्तों और तनों पर भूरे धब्बे पड़ जात हैं। इस बीमारी से फसल कमजोर हो जाती है।

रोकथाम

  1. बीज का उपचार बीज अमृत व पंचगव्य से करें।

  2. बीमारी के आने पर गौमूत्र और लस्सी का 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

  3. मोटे और स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।

  4. रोग ग्रसित पौधों को नष्ट कर दें।

  5. हल्की सिंचाई दें व जल निकासी का उचित प्रबन्ध करें।


फ्युजेरियम विल्टइस रोग से ग्रस्त पौधों की निचली पत्तियां पीली पड़ जाती हैं तथा पौधे बौने हो जाते हैं। पत्तियों के किनारे अंदर को मुड़ जाते हैं तथा पौधों का ऊपर का भाग मुरझा जाता है तथा पौधे मर जाते हैं।

रोकथाम

  1. अधिक संक्रमित क्षेत्रों में अगेजी बुआई न करें।

  2. संक्रमित क्षेत्रों में तीन वर्षीय फसल चक्र बनाएं।

  3. स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।

  4. बीमारी वाले खेत में केंचुआ खाद और सीपीपी को डालें।

  5. खादें संतुलित मात्रा में भूमि परीक्षण के आधार पर प्रयोग में लाएं।

  6. खेती की भूमि का गर्मियों में 45 दिन के लिए सौर ऊर्जा से उपचार करें।


सफेद विगलनइस रोग के लक्षण पौधे के किसी भी ऊपरी भाग पर सूखे बदरंग धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, जो ज्यादातर तने और शाखाओं पर अधिक होते हैं। फलियों का गुद्दा सड़ने लगता है तथा विभिन्न नाप व आकार की काली टिक्कियां बन जाती हैं।

रोकथामगन्ना(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

  1. रोग ग्रस्त पौधों के अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।

  2. फसल चक्र धान से अपनाएं।

  3. पंक्तियों का फासला 50-60 सें.मी. रखें।

  4. खेत तैयार करते समय ट्राइकोडर्मा हरजियानम फफूद (120 कि.ग्रा./है.) के हिसाब से मृदा में मिलायें। इस रोग से ग्रस्त पत्तों की ऊपर सतह पर पीले से भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा नमी वाले मौसम में पत्तों की निचली सतह पर इन धब्बों पर बैंगनी रंग की मृदुलरोमिल आसिता वृद्धि देखी जा सकती है। फलियों पर भी पीले से भूरे रंग के अंडाकार धब्बे बन जाते हैं। फलियों में पनप रहे बीज पर भी छोटे एवं भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं।


डाऊनी मिल्ड्यूरोकथाम

  1. फसल के रोगग्रस्त अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट कर दें।

  2. तीन वर्ष का फसल चक्र अपनाएं।

  3. रोगमुक्त बीज का चयन करें।

  4. खेत में पानी की निकासी का उचित प्रबंध करें।

  5. बीज को बोने से पहले ट्राइकोडर्मा एवं बीजामृत से उपचारित करें।धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)


किट्ट (रस्ट)इस रोग के सर्वप्रथम लक्षण पत्तियों, तनों तथा कभी-कभी फलियों पर पीले, गोल या लंबे धब्बे समूह के रूप में दिखाई देते हैं। इसको इशियमी अवस्था कहते हैं। इसके बाद यूरीडोस्फोट पौधों के सभी भाग या पत्तियों के दोनों सतहों पर बनते हैं। वे चूर्णी तथा हल्के भूरे रंग के होते हैं। बाद में इन्हीं धब्बों का रंग गहरा भूरा या काला हो जाता है, जिसे टिलियम अवस्था कहते हैं। रोग का प्रकोप 17-220 सै. तापमान व अधिक नमी तथा ओस व बार - बार हल्की बारिश होने से अधिक बढ़ता है।

रोकथाम

  1. रोगग्रस्त अवशेषों को नष्ट कर दें।

  2. लंबा फसल चक्र अपनाएं, जिसमें ब्राडबीन या लैथाइरस जैसी परपोषी फसलें न लगाएं। जिन क्षेत्रों में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है उनमें फसल का जल्द रोपण करें।

  3. रोगरोधी प्रजातियों को ही लगाएं।


 

जीवाणु अंगमारी
 

इस रोग के लक्षण पत्तियों, तने एवं फलियों पर जलसिक्त धब्बों के रूप में विकसित होते हैं। पत्तियों पर इनका भूरा रंग हो जाता है तथा रोशनी के सामने यह चमकदार व पारभासक दिखाई देते हैं। तनों पर भी यह धब्बे जलसिक्त होते हैं तथा आयु के बढ़ने के साथ-साथ भूरे रंग के हो जाते हैं। फलियों पर भी ये धब्बे जलसिक्त होते हैं तथा ग्रीज जैसे लगते हैं और इनका रंग भी बहुत कम बदलता है। ठंडा तथा नमी वाला मौसम इस रोग के पनपने के लिए सहायक है। पाला पड़ने से भी इस रोग की वृद्धि अधिक होती है।

रोकथाम

  1. रोगग्रस्त अवशेषों को इकट्ठा करके नष्ट करें।

  2. तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं।

  3. स्वस्थ बीज का चयन करें।

  4. बीज बिजाई से पहले ट्राइकोडर्मा एवं बीजामृत से उपचारित करें।


 

मटर बीज जनित मोजेक

 
 

इस रोग के पौधे बौने हो जाते हैं, पत्तियों छोटी हो जाती हैं, शिराएं साफ दिखाई देने लगती हैं तथा पत्तियों के गुच्छे बन जाते हैं। रोगग्रस्त पौधों पर फूल बहुत कम संख्या में लगते हैं तथा फलियां या तो बनती ही नहीं, अगर बन गई तो बीज नहीं लगते। इस विषाणु का विस्तृत परिपोषक परिसर है परंतु मुख्य मटर, मसर तथा ब्राडबीन हैं, जिनके बीज द्वारा यह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैलता है।

रोकथाम

  1. रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।

  2. रोगहवाहक कीटों की रोकथाम के लिए नीम, तेल का 10-14 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें। खेत में परावर्ती बिछौना बिछाने से भी रोगवाहक कीटों की संख्या में कमी आ जाती है।


 

अगेता भूरापन

 
 

रोगग्रस्त पौधों का विकास कम होता है तथा उन पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। फलियों पर जामनी रंग के धब्बे चक्र बनाते हुए या गड्ढे के रूप में दिखाई देते हैं। अगर रोग का संक्रमण अगेती अवस्था में हो जाए तो ग्रस्त फलियां छोटी तथा विकृत हो जाती हैं। प्रकृति में इस विषाणु का संक्रमण सेमवर्गीय फसलों तथा मटर पर ही होता है। सेमवर्गीय खरपतवार भी इस रोग के शिकार हो जाते हैं।

रोकथाम

  1. विषाणुमुक्त बीज का ही इस्मेताल करें।

  2. सेमवर्गीय खरपतवारों को खेत से तथा आसपास के क्षेत्र से नष्ट करें

  3. रोगवाहक सूत्रकृमि की रोकथाम के लिए मिट्टी का उपचार ट्राइकोडर्मा से करें।

  4. तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाएं।



तुड़ाई व उपज


मंडी में अच्छी कीमत के लिए फलियों का समय पर तोड़ना अनिवार्य है अन्यथा इनके गुण पर प्रभाव पड़ता है। फलियां तब तोड़े जब वह पूर्णतया दानों से भर जाएं। इसके पश्चात हरा रंग घटने लग जाता है। सामान्यतः फसल की तुड़ाई 7-10 दिन के अंतराल पर करें। मटर की फसल की कुल 4-5 तुड़ाईयां होनी चाहिए। मटर की अगेती फसल की उपज 60-85 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है जबकि मुख्य फसल की उपज 100-150 क्विंटल प्रति हैक्टेयर होती है। मटर की तुड़ाई सुबह-शाम करें। दिन में तेज धूप पड़ने पर मटर की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। मटर की तुड़ाई बेलों से बहुत सावधानी से करनी चाहिए ताकि पौधों को क्षति न पहुंचे।

भण्डारण


हरी मटर की फलियों की ग्रेडिंग व पैकिंग बहुत ध्यानपूर्वक करनी चाहिए। प्रायः मटर को बोरियों, बांस की टोकरियों आदि में पैक किया जाता है और मण्डियों में पहुंचाया जाता है। मटर की फलियों पर अधिक नमी नहीं होनी चाहिए अन्यथा इस पर फफूद जैसी बीमारियां व व्याधियां आ सकती हैं।


भारत में मटर 7.9 लाख हेक्टेयर भूमि में उगाई जाती है। इसका वार्षिक उत्पादन 8.3 लाख टन एवं उत्पादकता १०२९ किग्रा./हेक्टेयर है। मटर उगाने वाले प्रदेशों में उत्तर प्रदेश प्रमुख हैं। उत्तरप्रदेश में 4.34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मटर उगाई जाती है, जो कुल राष्ट्रीय क्षेत्र का 53.7% है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश में २.7 लाख हे., उड़ीसा में 0.48 लाख., बिहार  में 0.28 लाख हे. क्षेत्र में मटर उगाई जाती है।

उत्पादन तकनीक


भूमि की तैयारी – मटर  की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, फिर भी गंगा के मैदानी भागों की गहरी दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी रहती है। मटर के लिए भूमि को अच्छी तरह तैयार करना चाहिए। खरीफ की फसल की कटाई के बाद भूमि की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल करके २-3 बार हैरो चलाकर अथवा जुताई करके पाटा लगाकर भूमि तैयार करनी चाहिए। धान के खेतों में मिट्टी के ढेलों को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए। अच्छे अंकुरण के लिए मिट्टी में नमी होना जरुरी है।

फसल पद्धति- सामान्यतः मटर की फसल, खरीफ ज्वार, बाजरा, मक्का, धान और कपास के बाद उगाई जाती है। मटर, गेंहूँ और जौ के साथ अंतः पसल के रूप में भी बोई जाती है। हरे चारे के रूप में जई और सरसों  के साथ इसे  बोया जाता है। बिहार एवं पश्चिम बंगाल में इसकी उतेरा विधि से बुआई की जाती है।

बीजोपचार – उचित राजोबियम संवर्धक (कल्चर) से बीजों को उपचारित करना उत्पादन बढ़ाने का सवसे सरल साधन है। दलहनी फसलों में वातावरणीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण करने की क्षमता जड़ों में स्थित ग्रंथिकाओं की संख्या पर निर्भर करती है और यह भी राइजोबियम की संख्या पर भी निर्भर करता है। इसलिए इन जीवाणुओं का मिट्टी में होना जरुरी है। क्योंकि मिट्टी में जीवाणुओं की संख्या पर्याप्त नहीं होती है, इसलिए राईजोबियम संवर्धक से बीजों को उपचारित करना जरूरी है।

राईजोबियम से बीजों को उपचारित करने के लिए उपयुक्त कल्चर का एक पैकेट (250 ग्राम) 10 किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त होता ही। बीजों को उपचारित करने के लिए 50 ग्राम गुड़ और २ ग्राम गोंद को एक लीटर पानी में घोल कर गर्म करके मिश्रण तैयार करना चाहिए। सामान्य तापमान पर उसे ठंडा होने दें और ठंडा होने के बाद उसमें एक पैकेट कल्चर डालें और अच्छी तरह मिला लें। इस मिश्रण में बीजों को डालकर अच्छी तरह से मिलाएं, जिससे बीज के चारों तरफ इसकी लेप लग जाए। बीजों को छाया में सुखाएं और फिर बोयें। क्योंकि राइजोबियम फसल विशेष के लिए ही होता  है, इसलिए मटर के लिए संस्तुत राईजोबियम का  ही प्रयोग करना चाहिए। कवकनाशी जैसे केप्टान, थीरम आदि भी राईजोबियम कल्चर के अनुकूल होते हैं। राइजोबियम से उपचारित करने के 4-5 दिन पहले कवकनाशियों से बीजों का शोधन कर लेना चाहिए।

बुआई के समय- मटर की बुआई मध्य अक्तूबर से नवम्बर तक की जाती है जो खरीफ की फसल की कटाई पर निर्भर करती है। फिर भी बुआई का उपयुक्त समय अक्तूबर के आखिरी सफ्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह है।

बीज-दर, दूरी और बुआई- बीजों के आकार और बुआई के समय के अनुसार बीज दर अलग-अलग हो सकती है। समय पर बुआई के लिए 70-80 किग्रा. बीज/हे. पर्याप्त होता है। पछेती बुआई में 90 किग्रा./हे. बीज होना चाहिए। देशी हल जिसमें पोरा लगा हो या सीड ड्रिल से 30 सेंमी. की दूरी पर बुआई करनी चाहिए। बीज की गहराई 5-7 सेंमी. रखनी चाहिये जो मिट्टी की नमी पर निर्भर करती है। बौनी मटर के लिए बीज दर 100 किलोग्राम/हे. उपयुक्त है।

उर्वरक – मटर में सामान्यतः 20 किग्रा, नाइट्रोजन एवं 60 किग्रा. फास्फोरस बुआई के समय देना पर्याप्त होता है। इसके लिए 100-125 किग्रा. डाईअमोनियम फास्फेट (डी, ए,पी) प्रति हेक्टेयर दिया जा सकता है। पोटेशियम की कमी वाले क्षेत्रों में २० कि.ग्रा. पोटाश (म्यूरेट ऑफ़ पोटाश के माध्यम से) दिया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में गंधक की कमी हो वहाँ बुआई के समय गंधक भी देना चाहिए। यह उचित होगा कि उर्वरक देने से पहले मिट्टी की जांच करा लें और कमी होने पर उपयुक्त पोषक तत्वों को खेत में दें।

सिंचाई- प्रारंभ में मिट्टी में नमी और शीत ऋतु की वर्षा के आधार पर 1-२ सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई फूल आने के समय और दूसरी सिंचाई फलियाँ बनने के समय करनी चाहिए। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हल्की सिंचाई करें और फसल में पानी ठहरा न रहे।

खतपतवार नियंत्रण – खरपतवार फसल के निमित्त पोषक तत्वों व जल को ग्रहण का फसल को कमजोर करते हैं और उपज के भारी हानि पहुंचाते हैं। फसल को बढ़वार की शुरू की अवस्था में खरपतवारों से अधिक हानि होती है। अगर इस दौरान खरपतवार खेत से नहीं निकाले गये तो फसल की उत्पादकता बुरी तरह से प्रभावित होती है। यदि खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार, जैसे-बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, सतपती अधिक हों तो 4-5 लीटर स्टाम्प-30 (पैंडीमिथेलिन) 600-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से घोलकर बुआई के तुरंत बाद छिड़काव कर देना चाहिए। इससे काफी हद तक खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है।

मटर की प्रमुख प्रजातियाँ – मटर की प्रमुख प्रजातियाँ और उनके विशिष्ट गुण निम्न हैं –








































































प्रजातिउत्पादन क्षमता (किवंटल प्रति हे.)संस्तुत क्षेत्रविशेष गुणपकने की अवधि

ऊँचे कद की प्रजातियाँ



रचना20-22पूर्वी एवं पश्चिमी मैदानी क्षेत्रसफेद फुफुन्द अवरोधी150-140
मालवीय मटर-२20-25पूर्वी मैदानी क्षेत्रएवं पश्चिमी मैदानी क्षेत्र120-140

बौनी प्रजातियाँ


 
अपर्णा25-30मध्य पूर्वी एवं पश्चिमी क्षेत्र-120-140

 
मालवीय मटर-२25-30पूर्वी मैदानी क्षेत्रसफेद फफूंद एवं रतुआ रोग अवरोधीमसूर(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)125-140
के.पी.एम.आर. 40020-25मध्य क्षेत्रसफेद फफूंद अवरोधी10-125
के.पी.एम.आर. 52225-30पश्चिमी मैदानी क्षेत्रसफेद फफूंद अवरोधी१२४-140
पूसा प्रभात18-20पूर्वी मैदानी क्षेत्रअल्पकालिक100-110
पूसा पन्ना18-20पश्चिमी मैदानी क्षेत्रअल्पकालिक100-110

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रोग एवं कीट प्रबन्धन


रोग


रतुआ – इस रोग के कारण जमीन के ऊपर के पौधे के सभी अंगों पर हल्के से चमकदार पीले (हल्दी के रंग के ) फफोले नजर आते हैं। पत्तियों की निचली सतह पर ये ज्यादा होते हैं। कई रोगी पत्तियाँ मुरझा कर गिर जाती है। अंत में पौधा सुखकर मर जाता है। रोग के प्रकोप से सें संकुचित व छोटे हो जाते हैं। अगेती फसल बोने से रोग का असर कम होता है। अवरोधी प्रजाति मालवीय मटर 15 प्रयोग करें।

आर्द्रजड़ गलन- इस रोग से प्रकोपित पौधों की निचली पत्तियाँ हल्के पीले रंग की हो जाती है। पत्तियाँ नीचे की ओर मुड़कर सुखी और पीली पड़ जाती है। तनों और जड़ों पर खुरदरे खुरंट से पड़ जाते हैं। यह रोग जड़-तंत्र सड़ा डालता है। यह रोग मृदा जनित है। रोग की बीजाणु वर्षों तक मिट्टी में जमे रहते हैं। हवा में  25  से 50% की अपेक्षित आर्द्रता और 22 से 32 डिग्री में सेल्सियस दिन का तापमान रोग पनपने में सहायक होता है। रोगग्राही फसल को उसी खेत में हर साल न उगाएँ। बीज का उपचार करने के लिए  कार्बेन्ड़ाजिम 1 ग्राम + थीरम २ ग्राम मात्रा एक किग्रा. बीज में मिलाएं। फसल की अगेती बुआई से बचें तथा सिंचाई हल्की करें।

चांदनी रोग- इस रोग से पौधों पर एक से.मी. व्यास के बड़े-बड़े गोल बादामी और गड्ढे वाले दाग पीजे जाते हैं। इन दागों के चारों ओर गहरे रंग की किनारों भी होती है। तने पर घेरा बनाकर यह रोग पौधे के मार देता है। रोग मुक्त बीज ही बोयें 3 ग्राम थीरम दवा प्रति किग्रा. बीज की दर से मिलाकर    बीजोपचार करें।

 

तुलासिता/रोमिल फफूंद- इस रोग के कारण पत्तियों की ऊपरी सतह एप पीले और ठीक उनके नीचे की सतह पर रुई जैसी फफूंद छा जाती है और रोगग्रस्त पौधों  की बढ़वार रुक जाती है। पत्तियाँ समय से पहले ही झड़ जाती है। संक्रमण अधिक होने पर 0.२% मौन्कोजेब अथवा जिनेब का छिड़काव 400-800 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से करनी चाहिए।

पौध/मूल विगलन- जमीन के पास के हिस्से से नये फूटे क्षेत्रों पर इस रोग का प्रकोप होता है। तना बादामी रंग का होकर सिकुड़ जाता है, जिसकी वजह से पौधे मर जाते हैं। 3 ग्रा. थीरम+1 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें खेत का जल निकास ठीक रखें। संक्रमित खेती में अगेती बुआई न करें

कीट


तना मक्खी - ये पूरे देश में पाई जाती है। पत्तियों, डंठलों अरु कोमल तनों में गांठें बनाकर मक्खी उनमें अंडे देती है। अंडों देती है। अंडों से निकली सड़ी पत्ती के डंठल या कोमल तनों मने सुरंग बनाकर अंदर-अंदर खाती है, जिससे नये पौधे कमजोर होकर झुक जाते हैं और पत्तियों पीली पड़ जाती है। पौधों की बढ़वार रुक जाती है। अंततः पौधे मर जाते हैं।

मांहू (एफिड) - कभी-कभी मांहू भी मटर की फसल को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इनके बच्चे और वयस्क दोनों ही पौधे का रस चूसने में सक्षम होते हैं। यह रस ही नहीं चूसते, बल्कि जहरीले तत्व भी छोड़ देते हैं। इसका भारी प्रकोप होने पर फलियाँ मुरझा जाती हैं। अधिक प्रकोप होने पर फलियाँ सुख जाती है। मांहू मटर एक वायरस (विषाणु) को फैलाने में भी उसके वाहक बनकर सहायता करती है।

मटर का अधफंदा (सेमीलूपर) - यह मटर का साधारण कीट है। इसकी गिड़ारें पत्तियाँ खाती है। पर कभी-कभी फूल और कोमल फलियों को भी खा जाती हैं। चलते समय यह शरीर के बीचोबीच फंदा सा बनाती है, इसलिए इसका नाम अधफंदा या सेमिलुपर पड़ा।

जहाँ पर तना मक्खी या पटसुरंगा या मांहू का प्रकोप हो, वहाँ २% फोरेट से बीज उपचार करें या 1 किग्रा. फोरेट प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की मिट्टी में बुआई के समय मिला दें। आवश्यकता होने पर पहली निकलने की अवस्था में फसल पर 0.०३% डामेथोएट 400 से 500 लीटर पानी में मिलाकर घोल कर प्रति  हेक्टेयर छिड़कें। जहाँ बुआई के समय मिट्टी में दवा न मिला पाए हों, वहाँ कीट के प्रकोप के अनुसार कीटनाशी दवा का छिड़काव करें।

कटीला फली भेदक (एटीपेला) - यह फली भेदक उत्तर भारत में अधिक पाया जाता है। अगेती किस्म के अपेक्षा पछेती प्रजातियों पर इसका अधिक प्रकोप होता है। इसी तरह देर से बोई गयी फसल में जल्दी बोई गयी फसल की तुलना में अधिक हानि होती है।  फली और अंखुबड़ी के जोड़ वाली जगह पर या  फली की सतह पर यह पंतगा अंडे देता है। अंडे से निकलते ही इसके नियंत्रण के लिए आवश्यक कदम उठाना चाहिए।

कटाई और मड़ाई - मटर की फसल सामन्यतः 130-150 दिनों में पकती है। इसकी कटाई दरांती से करनी चाहिए 5-7 दिन धुप में सुखाने के बाद बैलों से मड़ाई करनी चाहिए। साफ दानों को 3-4 दिन धूप में सुखाकर उनको भंडारण पात्रों (बिन) में करना चाहिये। भंडारण के दौरान कीटों से सुरक्षा के लिए एल्युमिनियम फोस्फाइड का उपयोग करें।

चना (छोला)(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

उपज – उत्तम कृषि कार्य प्रबन्धन से लगभग 18-30 किवंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की सकती है।


मटर उत्पादन की उन्नत तकनीक








































































मटर उत्पादन की उन्नत तकनीक



मध्यप्रदेश में मटर की खेती प्रमुखतः से सिहोर, पन्ना दमोह, सागर, सतना, रायसेन, टीकमगढ़, दतिया, ग्वालियर, मण्डला आदि जिलों में की जाती है । मटर की खेती सब्जी और दाल के लिये उगाई जाती है। मटर दाल की आवश्यकता की पूर्ति के लिये पीले मटर का उत्पादन करना अति महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग दाल, बेसन एवं छोले के रूप में अधिक किया जाता है । पीला मटर की खेती वर्षा आधारित क्षेत्र में अधिक लाभप्रद है । इसका क्षेत्रफल मध्यप्रदेश में 2,64,000 हे. है । इसकी उत्पादकता मध्यप्रदेश में 553 कि.ग्रा. हे. जो कि राष्ट्रीय उत्पादकता (910 कि.ग्रा. प्रति हे.) से काफी कम है । इसकी उत्पादकता बढाने के लिये उन्नत तकनीक अपनाना अति आवष्यक है ।
भूमि का चुनाव: मटर की खेती सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है परंतु अधिक उत्पादन हेतु दोमट और बलुई भूमि जिसका पी.एच.मान. 6-7.5 हो तो अधिक उपयुक्त होती है।
भूमि की तैयारी: खरीफ फसल की कटाई के पश्चात एक गहरी जुताई कर पाटा चलाकर उसके बाद दो जुताई कल्टीवेटर या रोटावेटर से कर खेत को समतल और भुरभुरा तैयार कर लें । दीमक, तना मक्खी एवं लीफ माइनर की समस्या होने पर अंतिम जुताई के समय फोरेट 10जी 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खेत में मिलाकर बुवाई करें ।




उपयुक्त किस्में































































क्र.प्रजाति का नामविमोचित वर्षअवधि (दिन)उपज(क्वि./हे.)विशेषता
1जे.एम.-6-118-12020-22पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त
2प्रकाश2007115-12020-25पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त
3के.पी.एम.आर. 4002001110-11520-22बौनी किस्म एवं पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त
4आई.पी.एफ.डी.-99-132005100-10520-25बौनी किस्म एवं पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त
5आई.पी.एफ.डी.1-102006110-11520-22बौनी किस्म एवं पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त
6आई.पी.एफ.डी.-99-252000110-11520-25लम्बे किस्म की प्रजाति एवं पाउडरीमिल्डयू के प्रति प्रतिरोधी एवं वर्षा आधारित क्षेत्र के लिये उपयुक्त


बीज की मात्रा:- उंचाई वाली किस्म 70-80 कि.ग्रा./हे.
बौनी किस्म 100 कि.ग्रा./हे.
बोनी का उपयुक्त समय:- 15 अक्टुबर से 15 नवम्बर
कतार से कतार एवं पौधों से पौधों की दूरी:- उंचाई वाली किस्म 30 X10 से.मी.
बौनी किस्म 22.5 X 10 से.मी.
बोने की गहराई:- 4 से 5 से.मी.
बुआई का तरीका:- बुवाई कतार में नारी हल, सीडड्रिल, सीडकमफर्टीड्रिल से करें।



बीजोपचार


बीज जनित रोगो से बचाव हेतु फफूंदनाशक दवा थायरम + कार्बनडाजिम (2$1) 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज और रस चूसक कीटों से बचाव हेतु थायोमिथाक्जाम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचार करें उसके बाद वायुमण्डलीय नत्रजन के स्थिरीकरण के लिये राइजोवियम लेग्यूमीनोसोरम और भूमि में अघुलशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तन करने हेतु पी.एस.वी. कल्चर 5-10 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचार करें । जैव उर्वरकों को 50 ग्राम गुड को आधा लीटर पानी में गुनगुना कर ठंडा कर मिलाकर बीज उपचारित करें ।

उर्वरक की मात्रा


फसल में अनुशंसित उर्वरक की मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर बुवाई के समय प्रयोग करे ।





























उर्वरक की मात्रा कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर



किस्म के लक्षणनत्रजनफासफोरसपोटाससल्फर
उंचाई वाली किस्म20404020
बोनी किस्म20505020

 
सूक्ष्म तत्वों की उपयोगिता, मात्रा एवं प्रयोग का तरीका
मटर फसल मे सूक्ष्म पोषक तत्व अमोनियम हेप्टामोलिब्डेट 1 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचार कर बुवाई करें।
सिंचाई :- स्प्रिकंलर से शखा बनते समय और फूल आने से पूर्व हल्की सिंचाई करे।
नींदा प्रबंधन
फसल में निंदा की समस्या होने पर व्हील हो या हेण्ड हो द्वारा नींदाई करे जिससे फसल की जड़ क्षेत्र मे वायु संचार बढ़ जाता है और खरपतवार नियंत्रित होने से पौधे में शाखाऐं और उत्पादन में वृद्धि होती है।

रसायनिक नींदानाषक:-
























क्र.



दवा का नाम



दवा की व्यापारिक मात्रा/हेक्टेयर



उपयोग का समय



उपयोग करने की विधि


1पेण्डीमैथलीन

3 लीटर /हे.


बुवाई से 1 से 3 दिन के अंदर छिड़काव या फिर

500 ली. पानी/हे. की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।


2

मेट्रीव्यूजोन



250 ग्रा/हे.


बुवाई के 15-20 दिनं बाद छिडकाव करें ।

 

 
रोग प्रबंधन
(1) रोग प्रबंधन की विभिन्न विधियां:- मृदा उपचार, बीज उपचार एवं पर्णी छिड़काव
(2) रोग प्रबंधन हेतु अनुषंसाऐं:-




















क्र.



रोग का नाम



लक्षण



नियंत्रण हेतु अनुषंसित दवा



दवा की व्यापारिक मात्रा



उपयोग करने का समय एवं विधि



1



भभूतिया रोग (पावडरी मिल्डयू)



पत्तियों एवं शखाओं पर सफेद चूर्ण जैसा पदार्थ



बीजोपचार थायरम एवं कर्बेन्डिजिम और घुलनषील सल्फर या मेंकोजब का पर्णीय छिड़काव



2+1 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार और1 से 1.5 ग्राम/लीटर या 2.5 ग्राम/ली. पानी की दर से छिड़काव करे।



बुवाई के समय बीजोपचार द्वारा औरखड़ी फसल मे रोग के लक्षण परिलक्षित होने पर 500 ली. पानी/हे. की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।



 
कीट प्रबंधन
कीट प्रबंधन की अनुषंसाऐं:-





































क्र.



रोग का नाम



लक्षण



नियंत्रण हेतु अनुषंसित दवा



दवा की व्यापारिक मात्रा



उपयोग करने का समय एवं विधि



1



माहू



पत्ती , फूल एवं फलियों से रस चूसते है।



इमिडाक्लोरो प्रिड 17.8 एस.एल.



0.5 मि.ली./ली. पानी की दर से छिड़काव करे।



कीट प्रकोप होने पर 500 ली. पानी/हे. की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।



2



स्टेम फ्लाई एवं लीफ माइनर



तना एवं पत्ती का रस चूस लेते है



फोरेट 10 जी



मृदा उपचार 10 कि.ग्रा./हे.



खेत की तैयारी के समय



3



फलीछेदक



फली मे छेद कर हानि पहुंचाते है



प्रोफेनोफॉस 50: ई.सी.



1.5 मि.ली./ली. पानी की दर से छिड़काव करे।



कीट प्रकोप होने पर 500 ली. पानी/हे. की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।




कटाई एवं गहाई:- मटर की कटाई का कार्य फसल की परिपक्वता के पष्चात् करें। जब बीज मे 15 प्रतिषत तक नमी रहे उस स्थिति मे गहाई कार्य करना चाहिऐ।
उपज एवं भण्डारण क्षमता:-मटर के बीज को अच्छे तरह से सूखाकर जब उसमे नमी 8-10 प्रतिषत रह जाये। तब बीज का भण्डारण सुरक्षित स्थान पर करें। मटर के बीज का भण्डार 1 से 2 वर्ष तक असानी से कर बुवाई हेतु उपयोग कर सकते है।
उपज:-उन्नत तकनीक से खेती करने से 20-22 क्विं. प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त हो सकती है ।


 
अधिक उपज प्राप्त करने हेतु प्रमुख पांच बिन्दु



  • बीजोपचार - थायरम + कार्बेण्डाजिम (2+1) 3 ग्राम/कि.ग्रा.बीज और थायोमिथोक्जाम 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें उसके बाद राइजोबियम एवं पी.एस.बी. कल्चर 5-10 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर तुरंत बोवाइ करें।




  • फसल की उत्पादकता बढाने के लिय पोटाश 60 कि.ग्रा. और सल्फर 20 कि.ग्रा./हे. बुवाई के समय प्रयोग करे।




  • फसल में शाखा बनते समय और फूल आने के पूर्व स्पिंकलर से हल्की सिंचाई करें ।




  • पाला से फसल को बचाने के लिये घुलनशील सल्फर 80 डब्लू पी 2ग्राम/लीटर + बोरोन 1 ग्राम/लीटर का घोल बनाकर छिडकाव करे। (1)मटर का भभूतिया रोग निरोधक अन्नत किस्में -प्रकाष, आई.पी.एफ.डी.99-13, आई.पी.एफ.डी.1-10, जी.एम.- 6, मालवीय -13, 15, के.पी.एम.आर. 400 किस्मों का चुनाव करें ।




  • भभूतिया रोग के प्रबंधन हेतु फफूंद नाशक दवा से बीजोपचार करें और खड़ी फसल में रोग आने पर घुलनशील सल्फर 1-1.5 ग्राम प्रति ली. या मेंकेजेब 2.5 ग्राम प्रति ली. की दर से 500 ली. प्रति हे0 पानी में घोल बना कर छिड़काव करें ।





शिमला मिर्च की जैविक खेती(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

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