अरहर

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सामान्य जानकारी





यह एक लोकप्रिय दलहन फसल है और यह प्रोटीन का समृद्ध स्रोत है। इसकी खेती उष्णकटिबंधीय और अर्ध-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है। यह वर्षा सिंचित और अर्ध-शुष्क कटिबंधों की महत्वपूर्ण फलियां फसल है और यह एकल फसल के रूप में या अनाज के साथ मिश्रित रूप में विकसित हो सकती है। यह सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मिट्टी को समृद्ध करता है। आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश भारत में मटर के प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।



अरहर उत्पादन की उन्नत तकनीकी



परिचय

मध्यप्रदेश में दलहनी फसलों के स्थान पर सोयाबीन के क्षेत्रफल में वृद्धि होने से दलहनी फसलों का रकबा घट रहा है। साथ-साथ अरहर फसल का क्षेत्र उपजाऊ समतल जमीन से हल्की ढालू, कम उपजाऊ जमीन पर स्थानांतरित हो रहा है जिससे उत्पादन में भारी कमी हो रही है। परंतु अरहर फसल की व्यापक क्षेत्रों के अनुकुल उच्च उत्पादन क्षमतावाली उकटारोधी प्रजातियों के उपयोग करने से उत्पादकता में होने वाले उतार-चढाव में कमी तथा उत्पादकता में स्थायित्व आया है। सिंचाई, उर्वरक तथा कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में कृषकों की बढ़ती जागरूकता दलहन उत्पादकता बढाने मे सहायक सिद्ध हो रही है। सामायिक बुआई के साथ पर्याप्त पौधों की संख्या, राइजोबियम कल्चर व कवक नाषियों से बीजोपचार तथा खरपतवार प्रबंधन जैसे बिना लागत के अथवा न्यूनतम निवेष वाले आदान भी उत्पादकता की वृद्धि करते है। अरहर दाल के आसमान छूते भाव के कारण फिर से मध्यप्रदेष के किसानों का रूझान अरहर की खेती की ओर बढ़ रहा है।

भारत में दालें प्रोटीन के रूप में भोजन का एक अभिन्न अंग है। टिकाऊ कृषि हेतु मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करने एंव आहार तथा चारे के विभिन्न रूपों में उपयोग आदि दलहनी फसलों के लाभ हैं। अग्रिम पंक्ति प्रदर्षनो द्वारा यह स्पष्ट दर्षाया जा चुका है कि उन्नतषील उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाकर अरहर की वर्तमान उत्पादकता को दुगना तक किया जा सकता है। दलहनी फसलों के पौधों की जड़ों पर उपस्थित ग्रंथियाँ वायुमण्डल से सीधे नत्रजन ग्रहण कर पौधों को देती हैं, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। दलहनी फसले खाद्यान्न फसलों की अपेक्षा अधिक सूखारोधी होती है। खरीफ की दलहनी फसलों में तुअर प्रमुख है। मध्य प्रदेश में अरहर को लगभग 5.3 लाख हेक्टर भूमि में लिया जाता है जिससे औसतन 530.5 (2011-12) किलो प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। मध्यप्रदेश से अरहर की नई प्रजातियां जे.के.एम.-7, जे.के.एम.-189 व ट्राम्बे जवाहर तुवर-501, विजया आई.सी.पी.एच.-2671 (संकर) दलहन विकास परियोजना, खरगोन द्वारा विकसित की गई है। अरहर को सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसल के रूप में लगाने की अनुषंसा कर करीब एक से दो लाख हेक्टेयर क्षेत्र का रकबा मध्यप्रदेष में बढ़ाया जा सकता है। अरहर फसल के बाद में रबी फसल भी समय पर ली जा सकती है। अतः ये जातियां द्विफसली प्रणाली में उपयुक्त है।

हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।

भूमि का चुनाव एवं तैयारी:-

अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य से भारी काली भूमि जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई क व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।

जातियों का चुनाव:

बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः

तालिका-1: अरहर की किस्मे (कम अवधि)






























अरहर की किस्में/विकसितवर्षउपज क्वि./हे.फसल अवधिविशेषताऐं
उपास-120 (1976)10-12130-140असीमित वृद्धिवाली, लाल दानेकी , कम अवधि मेंपकने वाली जाति
आई.सी.पी.एल.-87 (प्रगति,1986)10-12125-135सीमित वृद्धि की कम अवधिमेंपकती है। बीज गहरा लाल मध्यम आकार का होता है।
ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 (2008)19-23145-150असीमित वृद्धि वाली,लालदाने की , कम अवधि में पकने वाली, उकटा रोगरोधी जाति है।


मध्यम गहरी भूमि मंे जहाँ पर्याप्त वर्षा होती हो और सिंचित एंव असिंचित स्थिति में मध्यम अवधि की जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः

तालिका-2 अरहर की किस्मे ( मध्यम अवधि)




























































अरहर की किस्में/विकसित वर्षउपज (क्वि/हे.)फसल अवधिविशेषताऐं
जे.के.एम.-7 (1996)में 20-22170-190असीमित वृद्धि वाली, भूरा-लाल दाना मध्यम आकार का होता है। यह उकटा रोधक जाति है।
जे.के.एम.189 (2006)में 20-22 अर्धसिंचित में 30-32160-170असीमितवृद्धि वाली, हरी फल्ली काली धारियों के साथ, लाल-भूरा बड़ा दाना, 100 दानों का वजन 10.1 ग्राम व उकटा,बांझपन व झुलसा रोग रोधी एवं सूत्र कृमी रोधी एवं फली छेदक हेतु सहनषील, देरसे बोनी में भी उपयुक्त
आई.सी.पी.-8863(मारुती,1986)20-22150-160असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का भूरा लाल दाना होता है। यह उकटा रोधक जाति है। इस जाति में बांझपन रोग का प्रभाव ज्यादा होता है।
जवाहर अरहर-4(1990)18-20180-200असीमित वृद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना,फायटोपथोरा रोगरोधी
आई.सी.पी.एल.-87119(आषा1993)18-20160-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम अवधि वाली बहुरोग रोधी(उकटा,बांझपनरोग) जाति है। मध्यम आकार का लाल दाना होता है।
बी.एस.एम.आर.-853(वैषाली,2001)18-20170-190असीमित वृद्धि वाली, सफेद दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी( उकटाव बांझपन रोग)
बी.एस.एम.आर.-736(1999)18-20170-190असीमित वद्धि वाली, मध्यम आकार का लाल दाना, मध्यम अवधि वाली, उकटा एवं बांझ रोगरोधक है।
विजया आई.सी.पी.एच.-2671(2010)22-25164-184असीमित वृद्धि वाली, फूल पीले रंग का घनी लाल धारियो वाली, फलियां हल्के बैंगनी रंग एवं गहरा लाल दाने की मध्यम अवधि वाली, बहुरोग रोधी (उकटाव बांझपन रोग)


तालिका-3: उत्तर पूर्व मध्य प्रदेष हेतु उपयुक्त जांतियां (लंबी अवधि )






















अरहर की किस्में/विकसित वर्षउपज क्वि/हे.फसल अवधिविशेषताऐं
एम.ए-3 (मालवीय,1999)18-20210-230असीमीत वृद्धि वाली, भूरे रंग का बड़ा दाना, सूखा एवं बांझपन रोग रोधी, म.प्र.के उत्तर-पूर्व भाग के लिए उपयुक्त
ग्वालियर-3(1980)15-18230-240सीधे बड़वार वाली, लाल बड़ा दाना, गिर्ध क्षेत्र के लिये उपयुक्त


अंतरवर्तीय फसल:-

अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।

  • अरहर $ मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  • अरहर $ उडद या मूंग 1:2 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)

  • अरहर की उन्नत जाति जे.के.एम.-189 या ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 को सोयाबीन या मूंग या मूंगफली के साथ अंतरवर्तीय फसल में उपयुक्त पायी गई है।


बोनी का समय व तरीका:-

अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।

बीज की मात्रा व बीजोपचारः-

जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।

निंदाई-गुडाईः-

खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।

सिंचाईः-

जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।

पौध संरक्षण:-

अ. बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-

  • उकटा रोग: यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ जैसे जे.के.एम-189, सी.-11, जे.के.एम-7, बी.एस.एम.आर.-853, 736 आशा आदि बोये। उन्नत जातियों को बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम रहता है।

  • बांझपन विषाणु रोग: यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए। बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।

  • फायटोपथोरा झुलसा रोग: रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये। रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।


कीट:-

  • फली मक्खी:- यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।

  • फली छेदक इल्ली:- छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।

  • फली का मत्कुण:- मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।

  • प्लू माथ :- इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।

  • ब्रिस्टल ब्रिटलः ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।


कीट नियंत्रणः-

कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है।

  • कृषि कार्य द्वारा:

  • गर्मी में गहरी जुताई करें ।

  • शुद्ध/सतत अरहर न बोयें ।

  • फसल चक्र अपनायंे ।

  • क्षेत्र में एक समय पर बोनी करना चाहिए।

  • रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा ही डालें।

  • अरहर में अन्तरवर्तीय फसले जैसे ज्वार , मक्का, सोयाबीन या मूंगफली को लेना चाहिए।





    • यांत्रिकी विधि द्वारा:-

      • प्रकाश प्रपंच लगाना चाहिए

      • फेरोमेन टेप्स लगाये

      • पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकटठा करके नष्ट करें

      • खेत में चिडियों के बैठने के लिए अंग्रेजी शब्द ’’टी’’ के आकार की खुटिया लगायें।



    • जैविक नियंत्रण द्वारा:-

      • एन.पी.वी. 500 एल.ई./हे. $ यू.वी. रिटारडेन्ट 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत मिश्रण का शाम के समय छिडकाव करें।

      • बेसिलस थूरेंजियन्सीस 1 किलोग्राम प्रति हेक्टर $ टिनोपाल 0.1 प्रतिषत $ गुड 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करे।



    • जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा:

      • निंबोली सत 5 प्रतिषत का छिडकाव करें

      • नीम तेल या करंज तेल 10-15 मि.ली.$1 मि.ली. चिपचिपा पदार्थ (जैसे सेन्डोविट, टिपाल) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

      • निम्बेसिडिन 0.2 प्रतिषत या अचूक 0.5 प्रतिषत का छिडकाव करें ।



    • रासायनिक नियंत्रण द्वारा:-

      • आवष्यकता पडने पर एवं अंतिम हथियार के रूप में ही कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें।

      • फली मक्खी एवं फली के मत्कुण के नियंत्रण हेतु सर्वांगीण कीटनाषक दवाओं का छिडकाव करें जैसे डायमिथोएट 30 ई.सी. या प्रोपेनोफाॅस-50 के 1000 मिली. मात्रा 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।

      • फली छेदक इल्लियों के नियंत्रण हेतु - इण्डोक्सीकार्ब 14.5 ई.सी. 500 एम.एल. या क्वीनालफास 25 ई.सी. 1000 एम.एल. या ऐसीफेट 75 डब्लू.पी. 500 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर छिडकाव करें। दोनों कीटों के नियंत्रण हेतू प्रथम छिडकाव सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का करें तथा 10 दिन के अंतराल से स्पर्ष या सर्वांगीण कीटनाषक दवाई का छिडकाव करें। तीन छिडकाव में पहला फूल बनना प्रारंभ होने पर, दूसरा 50 प्रतिषत फूल बनने पर और तीसरा फली बनने की अवस्था पर करने से सफल कीट नियंत्रण होता है।



    • कटाई एवं गहाई:-




जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।

अरहर की जातियां, रोग एवं लगने वाले कीट




















 




धरती





यह विभिन्न प्रकार की मिट्टी पर उगता है। यह उपजाऊ और अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी पर सबसे अच्छा परिणाम देता है। लवणीय-क्षारीय या जल भराव वाली मिट्टी इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त होती है। यह 6.5 से 7.5 के बीच pH वाली मिट्टी पर सफलतापूर्वक बढ़ सकता है।




उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में





AL-15 : यह एक छोटी अवधि की किस्म है, जो 135 दिनों में पक जाती है। फली गुच्छों में पैदा होती है। यह 5.5 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

AL 201: यह जल्दी पकने वाली किस्म है। यह लगभग 140 दिनों में पक जाती है। मुख्य तना पार्श्व शाखाओं की तुलना में अधिक मजबूत होता है। प्रत्येक फली में 3-5 पीले भूरे और मध्यम आकार के बीज होते हैं। यह 6.2 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

पीएयू 881 : यह जल्दी पकने वाली किस्म है। यह 132 दिनों में पक जाती है। पौधे 2 मीटर ऊंचे होते हैं। प्रत्येक फली में लगभग 3-5 पीले भूरे और मध्यम आकार के बीज होते हैं। यह औसतन 5.6 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

पीपीएच 4: पंजाब में पहली अरहर संकर। यह 145 दिनों में पक जाती है। पौधे लम्बे और लगभग 2.5 से 3 मीटर लम्बे होते हैं। प्रत्येक फली में मध्यम आकार के 5 पीले भूरे रंग के बीज होते हैं। यह 7.2-8 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

UPAS-120: यह अधिक जल्दी पकने वाली (120-125 दिन) किस्म है। ये मध्यम लंबी और अर्ध-फैलाने वाली किस्में हैं। बीज छोटे और हल्के भूरे रंग के होते हैं। औसत उपज 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह बाँझपन मोज़ेक रोग के लिए अतिसंवेदनशील है।

AL 882: यह बौनी और जल्दी पकने वाली किस्म है। यह किस्म 132 दिनों में पक जाती है। यह औसतन 5.4 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।


अन्य राज्य किस्में:

ICPL 151 (जागृति): 120-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह औसतन 4 से 5 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।


पूसा अगेती: बौनी मोटे बीज वाली किस्म, 150 से 160 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह 5 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।


पूसा 84: मध्यम लंबी, अर्ध-फैलाने वाली किस्म, 140 से 150 दिनों में कटाई के लिए तैयार होती है।  


आईपीए 203 और आईपीएच 09-5 (हाइब्रिड)

मसूर(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)




भूमि की तैयारी





एक गहरी जुताई के बाद दो या तीन बार जोताई करके भूमि तैयार करें। हर जुताई के बाद प्लैंकिंग करनी चाहिए। यह जलजमाव की स्थिति में, खेत को इस तरह से तैयार नहीं कर सकता कि पानी का ठहराव न हो। फसल चक्रण: अरहर की फसल चक्रण गेहूं या जौ या सूफेड सेनजी या गन्ने के साथ करें।




बोवाई





 बुवाई का समय

फसल की समय पर बुवाई महत्वपूर्ण है क्योंकि बुवाई में देरी से उपज हानि होती है। उच्च अनाज उपज प्राप्त करने के लिए मई के दूसरे पखवाड़े में फसल की बुवाई करें

मूंगफली(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

अंतर

बिजाई के लिए पंक्तियों के बीच 50 सेमी जबकि पौधे के बीच 25 सेमी की दूरी का उपयोग करें।

धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

बुवाई की गहराई

बीज को सीड ड्रिल की सहायता से लगभग 7-10 सें.मी. की गहराई पर बोया जाता है।

 

बुवाई की विधि

बीज को प्रसारण विधि से बोया जा सकता है लेकिन बीज ड्रिल की मदद से लाइन बुवाई अच्छी उपज के लिए बुवाई का अधिक कुशल तरीका है।

 





बीज





बीज दर

अच्छी उपज के लिए 6 किलो बीज प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें।

बीज उपचार

बुवाई के लिए स्वस्थ बीजों और मोटे बीजों का चयन करें। बीजों को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। रासायनिक उपचार के बाद, बीज को ट्राइकोडर्मा विराइड 4 ग्राम प्रति किलो बीज या स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस 10 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें।















कवकनाशी का नाममात्रा (खुराक प्रति किलो बीज)
carbendazim2 ग्राम
थिराम3 ग्राम

 




उर्वरक





उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)
















यूरियाडीएपी या एसएसपीझाड़ूजस्ता
133510020-

 

पोषक तत्वों की आवश्यकता (किलो/एकड़)













नाइट्रोजनफॉस्फोरसपोटाश
61612

 

यूरिया @ 13 किग्रा, डीएपी @ 35 किग्रा या एसएसपी @ 100 किग्रा, और एमओपी @ 20 किग्रा / एकड़ के रूप में एन: पी: के @ 6:16:12 किग्रा / एकड़ में लागू करें। बुवाई के समय सभी उर्वरकों को मिट्टी में मिला दें। मृदा परीक्षण के परिणामों के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करें। साथ ही जब मिट्टी परीक्षण में इसकी कमी दिखाई दे तो K लगाना चाहिए। डीएपी में नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग न करें।




खरपतवार नियंत्रण





रासायनिक खरपतवार नियंत्रण

एक निदाई बुवाई के लगभग तीन सप्ताह बाद और दूसरी निराई बुवाई के लगभग छह सप्ताह बाद करें। पेंडीमेथालिन @ 1 लीटर / एकड़ 150-200 लीटर पानी में बुवाई के 2 दिनों के भीतर पूर्व-उद्भव हर्बिसाइड के रूप में डालें, इसके बाद बुवाई के छह से सात सप्ताह बाद हाथ से निराई करें।

मध्यप्रदेश के लिए अनुशंसित 5 प्रमुख सोयाबीन की किस्में(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)




सिंचाई





बुवाई के तीन से चार सप्ताह बाद पहली सिंचाई करें। शेष सिंचाई वर्षा की तीव्रता पर निर्भर करती है। सूखे के तनाव के लिए फूलों की शुरुआत और फली की स्थापना के चरण सबसे महत्वपूर्ण हैं। अत: अच्छी उपज के लिए इन अवस्थाओं में सिंचाई आवश्यक है। अत्यधिक सिंचाई से बचें क्योंकि इससे अधिक वानस्पतिक विकास होता है और फाइटोफ्थोरा और अल्टरनेरिया ब्लाइट की घटनाएं होती हैं। मध्य सितंबर के बाद सिंचाई न करें; यह फसल की परिपक्वता को प्रभावित करेगा।




प्लांट का संरक्षण


सोयाबीन(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)






ब्लिस्टर बीटल




  • कीट और उनका नियंत्रण


ब्लिस्टर बीटल: फूल बीटल के रूप में भी जाना जाता है, वे फूलों पर फ़ीड करते हैं और इस प्रकार फली संख्या कम कर देते हैं। वयस्क काले भृंग होते हैं जिनके अग्रभागों पर चमकीले लाल रंग होते हैं।

इसे नियंत्रित करने के लिए डेल्टामेथ्रिन 2.8EC @ 200ml या इंडोक्साकार्ब 14.5SC @ 200ml प्रति एकड़ 100-125 लीटर पानी प्रति एकड़ का उपयोग करके छिड़काव करें। शाम के समय स्प्रे करें और यदि आवश्यक हो तो 10 दिनों के बाद स्प्रे दोहराएं।







फली छेदक: यह सबसे गंभीर कीट है और उपज में 75% तक की कमी का कारण बनता है। यह पत्तियों पर फ़ीड करता है जिससे पत्तियों का कंकालीकरण होता है और फूल और हरी फली पर भी फ़ीड करता है। फलियों पर वे गोलाकार छेद बनाते हैं और अनाज खाते हैं।

हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा के लिए 12/हेक्टेयर की दर से फेरोमोन ट्रैप लगाएं। कम संक्रमण की स्थिति में, हाथ से उठाए गए बड़े लार्वा। प्रारंभिक अवस्था में एचएनपीवी या नीम के अर्क @ 50 ग्राम / लीटर पानी का उपयोग करें। ईटीएल स्तर के बाद रसायनों का प्रयोग आवश्यक है। (ईटीएल: 2 अर्ली इंस्टार लार्वा/पौधे या 5-8 अंडे/पौधे)।

यदि घटना देखी जाती है, तो मैन्युअल रूप से संचालित नैपसेक स्प्रेयर का उपयोग करके प्रति एकड़ इंडोक्साकार्ब 14.5SC @ 200ml या स्पिनोसैड 45SC @ 60ml / 100-125लीटर पानी के साथ स्प्रे करें। शाम के समय स्प्रे करें।








Cercospora लीफ स्पॉट




  • रोग और उनका नियंत्रण


Cercospora पत्ती धब्बे: पत्तियों की सतह के नीचे भूरे से काले धब्बे दिखाई देते हैं। गंभीर स्थिति में पत्ती गिरने के साथ डंठलों और तनों पर धब्बे दिखाई देते हैं।

इस रोग के नियंत्रण के लिए रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करें और बिजाई से पहले बीजों को कैप्टन या थीरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें।








विल्ट



मुरझाना : इस रोग के कारण उपज में काफी हानि होती है। यह अंकुर अवस्था के साथ-साथ पौधे के विकास के उन्नत चरण में भी प्रभावित कर सकता है। प्रारंभ में प्रभावित पौधे पेटीओल्स गिरते हुए दिखाई देते हैं और हल्का हरा रंग देते हैं। बाद में सभी पत्ते पीले हो जाते हैं और भूरे रंग के हो जाते हैं।

प्रतिरोधी किस्में उगाएं। मुरझाने की प्राथमिक अवस्था में इसके नियंत्रण के लिए 1 किलो ट्राइकोडर्मा को 200 किलो अच्छी तरह सड़ी गाय के गोबर में मिलाकर 3 दिन तक रखें, फिर मुरझाने वाले स्थान पर लगाएं। यदि खेतों में विल्ट दिखे तो 300 मिली प्रोपीकोनाजोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें।








कैंकर्स



कैंकर : यह विभिन्न कवकों के कारण होता है। कैंकर तने और टहनियों पर विकसित होते हैं। इससे प्रभावित स्थान पर पौधे टूट जाते हैं।

उपयुक्त फसल चक्र अपनाएं। गंभीर परिस्थितियों में, मैनकोजेब 75 डब्ल्यूपी @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।







बाँझपन मोज़ेक: यह एरोफाइड माइट के कारण होता है। इस रोग के संक्रमण के कारण न तो फूल लगते हैं और न ही कम फूल लगते हैं। पत्तियाँ हल्के रंग की होती हैं। पौधा झाड़ीदार रूप देता है।

प्रतिरोधी किस्म उगाएं। घुन नियंत्रण के लिए फेनाजाक्विन 10% ईसी @ 300 मिली/एकड़ को 200 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।








फाइटोफ्थोरा तना झुलसा



फाइटोफ्थोरा तना झुलसा : यदि यह अंकुर अवस्था में होता है, तो युवा अंकुर निकलने के बाद मर जाता है। तने पर भूरे या काले रंग के परिगलित घाव देखे जाते हैं। पत्रक पर गोलाकार या अनियमित घाव बन जाते हैं और पूरी पत्तियां झुलस जाती हैं।

यदि इसका संक्रमण फाइटोफ्थोरा ब्लाइट दिखे तो इसे नियंत्रित करने के लिए मेटलैक्सिल 8% + मैनकोजेब 64% @ 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।




फसल काटने वाले





सब्जी के लिए जब पत्तियाँ और फलियाँ हरे रंग की हों तब पौधे की कटाई करें। अनाज के प्रयोजन के लिए, जब 75-80% फली भूरी और सूखी हो जाती है, तो यह कटाई का सही समय है। कटाई में देरी से बीजों को नुकसान होता है। कटाई तना या मशीन से हाथ से काटकर की जा सकती है। कटाई के बाद पौधों के बंडलों को सुखाने के लिए सीधा रखें। थ्रेसिंग या परंपरागत रूप से यानी पौधों को डंडों से पीटकर अनाज को पौधे से निकाला जाता है।




फसल कटाई के बाद


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कटाई की गई फसल के अनाज को भंडारण से पहले अच्छी तरह से सुखा लेना चाहिए। और भण्डारण में दलहन भृंग के प्रकोप से बचने का ध्यान रखें।




संदर्भ





1.पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना



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