चना (छोला)

चना (छोला)

चना


कैसे लें चने की भरपूर उपज



  1. परिचय

  2. भूमि की तैयारी

  3. किस्में

    1. प्रमुख किस्में

    2. काबुली चना



  4. चने की बुआई का समय

  5. बीज की मात्रा

  6. बीजोपचार

  7. उर्वरक

  8. देशी किस्में

  9. बुआई की विधि

  10. खरपतवार नियंत्रण

  11. सिंचाई

  12. अन्य समस्याएं

  13. पौध संरक्षण

    1. कटुआ सूंडी



  14. फलीछेदक

  15. पौधों का पीलापन व मुरझान

  16. अल्टरनेरिया झुलसा रोग

  17. फसल कटाई से जुड़ी जानकारी



सामान्य जानकारी


भारत में चने की खेती 7.54 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे 7.62 क्विं./हे. के औसत मान से 5.75 मिलियन टन उपज प्राप्त होती है। भारत में सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है तथा छत्तीसगढ़ प्रान्त के मैदानी जिलो में चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है।



आमतौर पर चना या बंगाल चना के रूप में जाना जाने वाला चना भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। इसका उपयोग मानव उपभोग के साथ-साथ जानवरों को खिलाने के लिए भी किया जाता है। ताजी हरी पत्तियों का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है जबकि छोले का भूसा मवेशियों के लिए एक उत्कृष्ट चारा है। अनाज का उपयोग सब्जी के रूप में भी किया जाता है। भारत, पाकिस्तान, इथियोपिया, बर्मा और तुर्की मुख्य चना उत्पादक देश हैं। भारत उत्पादन और रकबा के मामले में पाकिस्तान के बाद दुनिया में पहले स्थान पर है। भारत में, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब प्रमुख चना उत्पादक राज्य हैं।

बीज के आकार, रंग और आकार के आधार पर चने को दो समूहों में बांटा गया है 1) देसी या भूरे चने 2) काबुली या सफेद चने। काबुली की उपज क्षमता देसी चने की तुलना में कम है।



परिचय


चना देश की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा भी कहा जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.65 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 149 मि.ग्रा. कैल्शियम, 7.2 मि.ग्रा. लोहा, 0.14 मि.ग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मि.ग्रा. नियासिन पाया जाता है। इसकी हरी पत्तियां साग और हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में प्रयुक्त होती हैं। चने की दाल से अलग किया हुआ छिलका और भूसा पशु चाव से खाते हैं। दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिर करती है, जिससे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ती है। देश में चने की खेती मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में की जाती है। सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्य प्रदेश है।

चना एक शुष्क एवं ठंडी जलवायु की फसल है। इसे रबी मौसम में उगाया जाता है। इसकी खेती के लिए मध्यम वर्षा (60-90 सें.मी. वार्षिक) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त हैं। फसल में फूल आने के बाद वर्षा का होना हानिकारक होता है। वर्षा के कारण फूल में परागकण एक दूसरे से चिपक जाते हैं, जिससे बीज नहीं बनते हैं। इसकी खेती के लिए 24 से-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है।

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भूमि की तैयारी


चने की खेती दोमट भूमि से मटियार भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। चने की खेती हल्की से भारी भूमि में भी की जाती है, किन्तु अधिक जलधारण एवं उचित जलनिकास वाली भूमि सर्वोत्तम रहती है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। असिंचित अवस्था में मानसून शुरू होने के पूर्व गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है। एक जुताई मिट्‌टी पलटने वाले हल तथा 2 जुताई देसी हल से की जाती है, पिफर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है।

 

किस्में


 

प्रमुख किस्में


समय पर बुआई के लिए-जी.एनजी. 1581 (गणगौर), जी.एन.जी. 1958 (मरुधर), जी.एन.जी. 663, जी.एन.जी. 469, आर.एस.जी. 888, आर.एस.जी. 963, आरएस.जी. 973, आर.एस.जी. 986, देरी से बुआई के लिए-जी.एन.जी. 1488, आर.एसजी. 974, आर.एस.जी. 902, आर.एस.जी. 945 प्रमुख हैं।

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काबुली चना



  • एल 550 : यह 140 दिनों में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज 10 से 13 क्विंटल/हेक्टेयर है। इसके 100 दानों का वजन 24 ग्राम है।

  • सी-104 : यह किस्म 130-135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। यह औसतन 10 से13 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है। इसके 100 दानों का वजन 25-30 ग्राम होता है।


अन्य किस्में: जी.एन.जी. 1669 (त्रिवेणी), जी.एन.जी. 1499, जी.एन.जी. 1992।

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चने की बुआई का समय


10 अक्टूबर से 5 नवम्बर

 

बीज की मात्रा


मोटे दानों वाला चना 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, सामान्य दानों वाला चना 70-80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर काबुली चना (मोटा दाना) 100-120 कि.ग्रा./हेक्टेयर।

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बीजोपचार



  1. बीज को पहले रासायनिक फफूंदीनाशक से उपचारित करने के बाद जैविक कल्चर से छाया में उपचारित कर तुरंत बुआई करें, जिससे जैविक बैक्टीरिया जीवित रह सकें।

  2. फसल को उकठा रोग से बचाने के लिए बीज को बुआई के पूर्व फफूंदीनाशक वीटावैक्स पॉवर, कैप्टॉन, थीरम या प्रोवेक्स में से कोई एक 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके पश्चात एक किलो बीज में राइजोबियम कल्चर तथा ट्राइकोडर्मा विरडी 5-5 ग्राम मिलाकर उपचारित करें।

  3. बीज की अधिक मात्रा को उपचारित  करने के लिए, सीड ड्रेसिंग ड्रम का उपयोग करें, जिससे बीज एक समान उपचारित हो सके।


 

उर्वरक


अच्छी पैदावार के लिए 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय खेत में मिलाएं। उर्वरकों का प्रयोग मिट्‌टी परीक्षण के आधार पर करें। नाइट्रोजन 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर (100 कि.ग्रा. डाई अमोनियम फॉस्पेफट),फॉस्फोरस 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर।







देशी किस्में



  • जे.जी. 315: यह किस्म 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 12 से 15 क्विंटल/हेक्टेयर है। इसके 100 दानों का वजन 15 ग्राम है एवं बीज का रंग बादामी है तथा देर से बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।

  • विजयः सर्वाधिक उपज देने वाली 90-105 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म है। यह सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इस किस्म में अधिक शाखायें व मध्यम ऊंचाई वाले पौधे होते हैं। उपज क्षमता 24-45 क्विंटल/हेक्टेयर है।

  • जी.एन.जी.-2171 (मीरा) : राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली जैसे उत्तरी- पश्चिमी मैदानी सिंचित क्षेत्रों के लिए अधिसूचित किस्म। दाना मध्यम आकार व सुनहरे रंग का, जड़ गलन, विल्ट व झुलसा रोग के प्रति सहनशील। लगभग 150 दिनों में पककर तैयार होती है और उपज 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

  • जी.एन.जी-2144 (तीज): राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों के लिए अधिसूचित यह किस्म दोहरे फूल व 20 से 25 प्रतिशत दोहरी फली वाली है। देरी से बुआई योग्य इस किस्म की दिसंबर के पहले सप्ताह में भी बुआई कर सकते हैं। बुआई के 130 से 135 दिनों में तैयार होने के साथ ही इसकी औसत उपज 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।



 

बुआई की विधि


चने की बुआई कतारों में करें। 7 से 10 सें.मी. गहराई पर बीज डालें। कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. (देसी चने के लिए) तथा 45 सें.मी. (काबुली चने के लिए)।

 

खरपतवार नियंत्रण


फ्लूक्लोरेलिन 200 ग्राम (सक्रिय तत्व) का बुआई से पहले या पेंडीमेथालीन 350 ग्राम (सक्रिय तत्व) का अंकुरण से पहले 300-350 लीटर पानी में घोल बनाकर एक एकड़ में छिड़काव करें। पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 30-35 दिनों बाद तथा दूसरी 55-60 दिनों बाद आवश्यकतानुसार करें।

मध्यप्रदेश की सभी मंडियों के आज के भाव(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

सिंचाई


आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है। चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है। चने में जल उपलब्धता के आधार पर पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिनों बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिनों बाद करनी चाहिए।धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)







अन्य समस्याएं



  •      ·सूत्राकृमि सूत्राकृमि के प्रकोप से पौधा अविकसित रह जाता है। जड़ें छोटी रह जाती हैं और उत्पादन प्रभावित होता है।

  •      नियंत्रण के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करें, प्रतिरोधी किस्म का चयन करें। गैर-दलहनी फसलों जैसे मक्का, धान या मूंगफली को फसलचक्र में शामिल करें। रासायनिक नियंत्रण प्रकाेप के आधार पर 10-15 कि.ग्रा. कार्बाेफ्यूरॉन प्रति एकड़ का प्रयोग करें।


उपज

चने की शुद्ध फसल से प्रति हेक्टेयर लगभग 20-25 क्विंटल दाना एवं इतना ही भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देसी चने से तुलना में थोड़ी कम होती है।

 

पौध संरक्षण


माहूं व चेंपा माहूं व चेंपा, पौधे का रस चूसकर इसे कमजोर करते हैं। इनके नियंत्रण के लिए 5 ग्राम थायोमेथाक्जम 25 डब्ल्यूजी जैसे एकतारा, अनंत या 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू.जी. एडमायर या एडफायर का प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।

सूरजमुखी(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

कटुआ सूंडी


इस कीट की रोकथाम के लिए 200 मि.ली. फेनवालरेट (20 ई.सी.) या 125 मि.ली. साइपरमैथ्रीन (25 ई.सी.) को 250 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।

 

फलीछेदक



  • उकठा रोग निरोधक किस्मों का प्रयोग  करना चाहिए।

  • प्रभावित क्षेत्रों में फसलचक्र अपनाना  लाभकर होता है।

  • प्रभावित पौधे को उखाड़कर नष्ट करना  अथवा गड्‌ढे में दबा देना चाहिए

  • बीज को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरडी से 4 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए।


 

पौधों का पीलापन व मुरझान


पीलापन तथा मुरझान की समस्या के नियत्रांण के लिए 45 ग्राम कॉपर आक्सीक्लारोइड या 30 ग्राम कार्बेन्डेजिम प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर जमीन में दें अथवा 100 ग्राम थायोफैनेट मिथाइल, 70 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में छिड़कें।

 

अल्टरनेरिया झुलसा रोग


फूल व फली बनते समय अल्टरनेरिया झुलसा रोग हो सकता है। इससे पत्तियों पर छोटे, गोल-बैंगनी धब्बे बनते हैं। यह नमी अधिक होने से पूरी पत्ती पर फैल जाता है। नियंत्रण केलिए 3 ग्राम मैन्कोजेब, 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. या 2 ग्राम मेटालैक्सिल 8 प्रतिशत मैन्कोजेब, 64 प्रतिशत (संचार या रिडोमिल) प्रति लीटर पानी में छिड़कें।

धान(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है)

फसल कटाई से जुड़ी जानकारी



  • परिपक्व अवस्थाः जब पौधे के अधिकतर भाग और फलियां लाल भूरी हो कर पक जाएं तो कटाई करें। खलिहान की सफाई करें और फसल को धूप में कुछ दिनों तक सुखायें तथा गहाई करें। भंडारण के लिए दानों में 12-14 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए

  • भंडारणः चने के भंडारण हेतु भंडार गृह की सफाई करें तथा दीवारों एवं फर्श की दरारों को मिट्‌टी या सीमेंट से भर दें। चूने की पुताई करें तथा 15 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार 10 मि.ली. मेलाथियान 50 प्रतिशत ई.सी. प्रति लीटर पानी के घोल का 3 लीटर/100 वर्ग मीटर की दर से दीवार तथा फर्श पर छिड़काव करें।

  • अनाज भंडारण के लिए बोरियों को मेलाथियान 10 मि.ली./लीटर पानी के घोल में डुबोकर सुखाएं। इसके बाद ही अनाज को बोरियो में भरें।

  • भंडारण कीट के नियंत्रण के लिए एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की गोली 3 ग्राम/टन की दर से भंडारगृह में धूम्रित करें। बीज के लिए फसल की गहाई अलग से करके तथा अच्छी तरह सुखाकर भंडारण के लिए मैलाथियान 5 प्रतिशत डस्ट 250 ग्राम/100 कि.ग्रा. अनाज में मिलाएं।



धरती





इसे विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। चने की खेती के लिए बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। जल जमाव की समस्या वाली मिट्टी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है। लवणीय क्षारीय मृदा उपयुक्त नहीं होती है। 5.5 से 7 की सीमा में पीएच बुवाई के लिए आदर्श है।

खेत में एक ही फसल की लगातार बुवाई करने से बचें। उचित फसल चक्र अपनाएं। अनाज के साथ फसल चक्रण से मृदा जनित रोग को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। आम रोटेशन हैं खरीफ परती-चक्की, खरीफ परती- चना + गेहूं/जौ/राय, चरी-चना, बाजरा-चना, चावल/मक्का-चना।




उनकी उपज के साथ लोकप्रिय किस्में





ग्राम 1137: पहाड़ी क्षेत्रों के लिए इसकी सिफारिश की जाती है। यह औसतन 4.5 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है। यह वायरस के लिए प्रतिरोधी है।

PBG 7 : पूरे पंजाब में खेती के लिए अनुशंसित। यह किस्म एस्कोकाइटा तुषार के लिए मध्यम प्रतिरोधी और मुरझाई और सूखी जड़ सड़न के लिए प्रतिरोधी है। अनाज का आकार मध्यम होता है और औसतन 8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है। यह 159 दिनों में परिपक्व हो जाता है।

सीएसजे 515: सिंचित परिस्थितियों में उपयुक्त, बीज छोटे होते हैं और भूरे रंग के वजन 17 ग्राम / 100 बीज होते हैं। यह शुष्क जड़ सड़न के लिए मध्यम प्रतिरोधी है, और एस्कोकाइटा तुड़ाई के प्रति सहनशील है। 135 दिनों में परिपक्व हो जाता है। और औसतन 7 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

बीजी 1053
 : यह काबुली किस्म है। यह फूल आने में जल्दी होता है और 155 दिनों में पक जाता है। बीज मलाईदार सफेद और आकार में मोटे होते हैं। 8 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है। सिंचित अवस्था में पूरे राज्य में खेती के लिए उपयुक्त।

एल 550: काबुली किस्म। अर्ध-फैलाने वाली और जल्दी फूलने वाली किस्म। 160 दिनों में परिपक्व होती है। बीजकपास(नए ब्राउज़र टैब में खुलता है) मलाईदार सफेद रंग के होते हैं। यह 6 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

एल 551: यह काबुली किस्म है। यह विल्ट रोग के लिए प्रतिरोधी है। 135-140 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

जीएनजी 1958: सिंचित क्षेत्रों के तहत खेती की जाती है जो सामान्य बोई जाने वाली सिंचित स्थिति के लिए भी उपयुक्त है। इसमें भूरे बीज का रंग होता है। 145 दिनों में कटाई के लिए तैयार। औसतन 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

जीएनजी 1969 : सिंचित क्षेत्रों में खेती की जाती है, जो सामान्य बोई जाने वाली सिंचित स्थिति के लिए भी उपयुक्त है। इसमें क्रीमी बेज सीड कलर होता है। 146 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 9 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

जीएलके 28127:सिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए उपयुक्त, बीज बड़े आकार के हल्के पीले या मलाईदार रंग के साथ अनियमित उल्लू के सिर वाले होते हैं। 149 दिनों में कटाई के लिए तैयार। औसतन 8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

GPF2
 : पौधे लम्बे होते हैं और उनमें वृद्धि की आदत होती है। यह एस्कोकाइटा तुषार के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी है और जटिल होगा। यह लगभग 165 दिनों में पक जाती है। यह औसतन 7.6 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

आधार (RSG-963): यह विल्ट, ड्राई रूट रोट, बीजीएम और कोलर रोट, पॉड बोरर और नेमाटोड के लिए मध्यम प्रतिरोधी है। 125-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 6 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

अनुभव (RSG 888): बारानी क्षेत्र में खेती के लिए उपयुक्त। यह विल्ट और रूट रोट के लिए मध्यम प्रतिरोधी है। 130-135 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 9 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

पूसा चमत्कार
 : काबुली किस्म। यह मुरझाने के लिए सहिष्णु है। 140-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह औसतन 7.5 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।
पीबीजी 5: 2003 में जारी। यह किस्म 165 दिनों में पक जाती है और इसकी औसत उपज 6.8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसमें मध्यम मोटे दाने और गहरे भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म विल्ट और जड़ रोगों के प्रति सहिष्णु है।


पीडीजी 4: 2000 में जारी। यह किस्म 7.8 क्विंटल प्रति एकड़ में पकती है और यह औसतन 160 दिनों की उपज देती है। यह किस्म भीगने, जड़ सड़न और मुरझाने की बीमारी के प्रति सहनशील है।


पीडीजी 3: इसकी औसत उपज 7.2 क्विंटल प्रति एकड़ होती है और यह किस्म 160 दिनों में पक जाती है।


एल 552: 2011 में जारी। यह किस्म 157 दिनों में पक जाती है और इसकी औसत उपज 7.3 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसमें मोटे दाने होते हैं और 100 दानों का औसत वजन 33.6 ग्राम होता है।


अन्य राज्य किस्म

सी 235:
 145-150 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह तना सड़न और झुलस रोग के प्रति सहनशील है। दाने मध्यम और पीले भूरे रंग के होते हैं। 8.4-10 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

जी 24: अर्ध-फैलाने वाली किस्म, बारानी परिस्थितियों के लिए उपयुक्त। 140-145 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

जी 130: मध्यम अवधि की किस्म। औसतन 8-12 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

पंत जी 114 :
 150 दिनों में कटाई के लिए तैयार। यह तुषार प्रतिरोधी है। यह औसतन 12-14 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

सी 104: काबुली चने की किस्में, पंजाब और उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त। औसतन 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ उपज देता है।

पूसा 209:140-165 दिनों में कटाई के लिए तैयार। 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ की औसत उपज देता है।

 




भूमि की तैयारी





बहुत महीन और सघन बीज वाली क्यारी मटर के लिए अच्छी नहीं होती, इसके लिए खुरदुरी क्यारी चाहिए। यदि इसकी खेती मिश्रित फसल के रूप में की जाती है तो भूमि को बारीक जुताई तक करना चाहिए। यदि मटर की फसल खरीफ साथी के बाद मानसून के दौरान गहरी जुताई करने के बाद ली जाती है तो इससे वर्षा जल को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। बिजाई से पहले भूमि की केवल एक बार जोताई करें। यदि मिट्टी में नमी की कमी दिखाई देती है तो बुवाई से लगभग एक सप्ताह पहले एक रोलर चलाएँ।




बोवाई





बुवाई का समय
वर्षा सिंचित परिस्थितियों के लिए 10 अक्टूबर से 25 अक्टूबर तक पूरी बुवाई करें। सिंचित अवस्था में देसी व काबुली किस्मों की 25 अक्टूबर से 10 नवंबर तक पूरी बुवाई करें। सही समय पर बुवाई आवश्यक है क्योंकि जल्दी बुवाई से अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि होती है, साथ ही देर से बुवाई करते समय फसल भी प्रभावित होती है, फसल खराब वनस्पति विकास और अपर्याप्त जड़ विकास करती है।

पंक्तियों के बीच 30-40 सेमी की दूरी रखते हुए
बीज को 10 सेमी की दूरी पर रखना चाहिए।

बुवाई
की गहराई बीज को 10-12.5 सेमी गहरा रखना चाहिए।

बुवाई की विधि

उत्तर भारत में इसे पोरा विधि से बोया जाता है।




बीज





बीज दर
देसी किस्म के लिए बीज दर 15-18 किग्रा/एकड़ तथा काबुली किस्म के लिए 37 किग्रा/एकड़ की दर से प्रयोग करें। यदि बुवाई नवम्बर के दूसरे पखवाड़े में करनी हो तो देसी चना की बीज दर बढ़ाकर 27 किग्रा/एकड़ तथा दिसम्बर के प्रथम पखवाड़े में 36 किग्रा/एकड़ कर देना है।

बीज उपचार

मिक्स ट्राइकोडर्मा 2.5 किलो प्रति एकड़ + सड़ी गाय का गोबर 50 किलो फिर इसे जूट के बोरों से 24-72 घंटे के लिए ढक दें। फिर इसे बुवाई से पहले नम मिट्टी पर स्प्रे करें ताकि मिट्टी जनित बीमारी को नियंत्रित किया जा सके। बीजों को मिट्टी से होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए बुवाई से पहले फफूंदनाशक कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोजेब 63% डब्ल्यूपी (साफ) @ 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित करें। दीमक से प्रभावित मिट्टी में बुवाई से पहले बीजों को क्लोरपाइरीफोस 20ईसी 10 मि.ली./किलोग्राम से उपचारित करें।
बीज को मेसोरिजोबियम से टीका लगाएं, इससे चने की उत्पादकता बढ़ेगी और उपज में 7% की वृद्धि होगी। इसके लिए पहले बीज को पानी से गीला करें और फिर बीजों पर मेसोरिजोबियम का एक पैकेट लगाएं। टीकाकरण के बाद बीजों को शेड में सुखाएं।

नीचे से किसी एक कवकनाशी का प्रयोग करें:















कवकनाशी का नाममात्रा (खुराक प्रति किलो बीज)
कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोजेब 63% WP2 ग्राम
थिराम3 ग्राम

 




उर्वरक





उर्वरक की आवश्यकता (किलो/एकड़)





















फसलेंयूरियाएसएसपीपोटाश का मूरिएट
देसी1350मिट्टी परीक्षण के परिणाम के अनुसार
काबुलिक1350मिट्टी परीक्षण के परिणाम के अनुसार

 

पोषक तत्वों की आवश्यकता (किलो/एकड़)





















फसलेंयूरियाएसएसपीपोटाश का मूरिएट
देसी68मिट्टी परीक्षण के परिणाम के अनुसार
काबुलिक616मिट्टी परीक्षण के परिणाम के अनुसार

 

सिंचित और असिंचित क्षेत्रों के लिए देसी किस्मों के लिए बुवाई के समय नाइट्रोजन यूरिया 13 किलो प्रति एकड़ और फॉस्फोरस सुपर फॉस्फेट 50 किलो प्रति एकड़ में डालें। जबकि काबुली किस्मों के लिए यूरिया 13 किलो प्रति एकड़ और सुपर फॉस्फेट 100 किलो प्रति एकड़ बुवाई के समय डालें। उर्वरक के कुशल उपयोग के लिए सभी उर्वरकों को 7-10 सेमी की गहराई पर खांचे में ड्रिल किया जाता है।

 




खरपतवार नियंत्रण





खरपतवारों पर नियंत्रण रखने के लिए पहली बार निराई या कुदाल से बुवाई के 25-30 दिन बाद और दूसरी जरूरत पड़ने पर बुवाई के 60 दिन बाद करें। साथ ही प्रभावी खरपतवार नियंत्रण के लिए एक एकड़ भूमि में बुवाई के तीसरे दिन पेंडीमेथालिन @ 1 लीटर / 200 लीटर पानी का पूर्व-उद्योग करें। यह वार्षिक खरपतवारों को नियंत्रित करने में मदद करेगा। संक्रमण कम होने की स्थिति में हाथों से निराई करना या कुदाल की मदद से इंटरकल्चर करना हमेशा शाकनाशी से बेहतर होता है क्योंकि इंटरकल्चर ऑपरेशन से मिट्टी में वातन में सुधार होता है।



कम दिखाएं




सिंचाई





जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, वहां बुवाई से पहले सिंचाई करें। यह उचित अंकुरण और सुचारू फसल विकास सुनिश्चित करेगा। इसके बाद दूसरी सिंचाई फूल आने से पहले और एक फली बनने के समय करें। जल्दी बारिश होने की स्थिति में सिंचाई में देरी करें और आवश्यकता के अनुसार दें। भारी और अधिक सिंचाई से वानस्पतिक वृद्धि में वृद्धि होती है और अनाज की उपज कम हो जाती है। साथ ही यह खेत में पानी का ठहराव बर्दाश्त नहीं करता है इसलिए खेत में उचित जल निकासी प्रदान करें।




प्लांट का संरक्षण




दीमक




  • कीट और उनका नियंत्रण:


दीमक : यह फसल की जड़ या जड़ क्षेत्र के पास खाती है। प्रभावित पौधा सूखने के लक्षण दिखाता है। इसे आसानी से जड़ से उखाड़ा जा सकता है। यह अंकुर अवस्था में और परिपक्वता के निकट भी प्रभावित कर सकता है।

बीजों को दीमक से बचाने के लिए, बीजों को क्लोरपायरीफॉस 20EC@10 मि.ली. प्रति किलो बीज से उपचारित करें। यदि खड़ी फसल पर हमला हो तो इमीडाक्लोप्रिड 4 मि.ली./10 लीटर पानी या क्लोरपाइरीफॉस 5 मि.ली./10 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।







कट कीड़ा



कटा हुआ कीड़ा : सुंडी मिट्टी में 2-4 इंच की गहराई पर छिप जाती है। यह पौधे, शाखाओं या तने के आधार पर काटा जाता है। अंडे मिट्टी में रखे जाते हैं। लार्वा लाल सिर के साथ गहरे भूरे रंग का होता है।

फसल चक्र अपनाएं। अच्छी तरह सड़ी गाय के गोबर का ही प्रयोग करें। प्रारम्भिक अवस्था में इल्ली को हाथ से उठाकर नष्ट कर दें। टमाटर की खेती से बचें। चना के खेत के पास भिंडी। कम प्रकोप होने पर क्विनालफॉस 25EC@400 मि.ली./200-240 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ में स्प्रे करें। अधिक प्रकोप होने पर प्रोफेनोफॉस 50ईसी 600 मि.ली. को 200-240 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।







चना फली छेदक



चने की फली छेदक: यह चने का सबसे गंभीर कीट है और उपज में 75% तक की कमी का कारण बनता है। यह पत्तियों पर फ़ीड करता है जिससे पत्तियों का कंकालीकरण होता है और फूल और हरी फली पर भी फ़ीड करता है। फलियों पर वे गोलाकार छेद बनाते हैं और अनाज खाते हैं।

हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा 5 प्रति एकड़ के लिए फेरोमोन ट्रैप लगाएं। कम संक्रमण की स्थिति में, हाथ से उठाए गए बड़े लार्वा। प्रारंभिक अवस्था में एचएनपीवी या नीम का अर्क 50 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर प्रयोग करें। ईटीएल स्तर के बाद रसायनों का प्रयोग आवश्यक है। (ईटीएल: 2 अर्ली इंस्टार लार्वा/पौधे या 5-8 अंडे/पौधे)।
जब फसल 50% फूलने की अवस्था में हो तब डेल्टामेथ्रिन 1%+ट्रायज़ोफॉस35%@25 मिली/10 लीटर पानी का छिड़काव करें। डेल्टामेथ्रिन+ट्रायज़ोफोस के पहले छिड़काव के 15 दिन बाद इमेमेक्टिन बेंजोएट 5%G@3 ग्राम/10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
अधिक प्रकोप होने पर एमेमेक्टिन बेंजोएट 5% एसजी 7-8 ग्राम/15 लीटर या 20% डब्ल्यूजी फ्लूबेन्डियामाइड @ 8 ग्राम/15 लीटर पानी में स्प्रे करें।







नुक़सान




  • रोग और उनका नियंत्रण:


झुलस रोग: तने, शाखाओं, पत्रक और फलियों पर विकसित बिंदी जैसे शरीर वाले गहरे भूरे रंग के धब्बे। अधिक वर्षा होने पर पूरा पौधा झुलसा रोग से बुरी तरह प्रभावित हो जाता है।

खेती के लिए प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। बिजाई से पहले फफूंदनाशक से बीजोपचार करें। रोग लगने पर इंडोफिल एम-45 या कैप्टन 360 ग्राम/100 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव दोहराएं।







ग्रे मोल्ड



ग्रे मोल्ड : पत्तों पर छोटे पानी से भीगे हुए धब्बे दिखाई देते हैं। संक्रमित पत्तियों पर धब्बे गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं। अधिक प्रकोप होने पर पौधे की टहनियों, डंठलों, पत्तियों और फूलों पर भूरे रंग के परिगलित धब्बे पूर्ण वानस्पतिक विकास प्राप्त करने पर दिखाई देते हैं। प्रभावित तना अंततः टूट जाता है और पौधा मर जाता है।

बुवाई से पहले बीजोपचार करें। यदि इसका हमला दिखे तो कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।







जंग



जंग : यह रोग पंजाब और उत्तर प्रदेश में अधिक गंभीर है। पत्तियों की निचली सतह पर छोटे, गोल से अंडाकार, हल्के या गहरे भूरे रंग के दाने बनते हैं। बाद की अवस्था में फुंसी काली पड़ जाती है और प्रभावित पत्तियाँ मुरझा जाती हैं।

खेती के लिए जंग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग करें। लक्षण दिखने पर मैनकोजेब 75 डब्लयू पी 2 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 10 दिनों के अंतराल पर दो और स्प्रे करें।







विल्ट



मुरझाना : इस रोग के कारण उपज में काफी हानि होती है। अंकुर अवस्था के साथ-साथ पौधे के विकास के उन्नत चरण में भी प्रभावित कर सकता है। प्रारंभ में प्रभावित पौधे पेटीओल्स गिरते हुए दिखाई देते हैं और हल्का हरा रंग देते हैं। बाद में सभी पत्ते पीले हो जाते हैं और भूरे रंग के हो जाते हैं।

प्रतिरोधी किस्में उगाएं। मुरझाने की प्राथमिक अवस्था में इसके नियंत्रण के लिए 1 किलो ट्राइकोडर्मा को 200 किलो अच्छी तरह सड़ी गाय के गोबर में मिलाकर 3 दिन तक रखें, फिर मुरझाने वाले स्थान पर लगाएं। यदि खेतों में विल्ट दिखे तो 300 मिली प्रोपीकोनाजोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें।




फसल काटने वाले





जब पौधा सूख जाता है और पत्ते लाल भूरे रंग के हो जाते हैं और झड़ने लगते हैं, तो पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है। पौधे को दरांती से काटें। कटी हुई फसल को पांच से छह दिनों तक सुखाएं। उचित रूप से सूखने के बाद, पौधों को डंडों से पीटकर या बैलों के पैरों के नीचे रौंदकर थ्रेसिंग करें।




फसल कटाई के बाद





कटाई की गई फसल के अनाज को भंडारण से पहले अच्छी तरह से सुखा लेना चाहिए। और भण्डारण में दलहन भृंग के प्रकोप से बचने का ध्यान रखें।




संदर्भ





1.पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना

2.कृषि विभाग

3.भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली

4.भारतीय गेहूं और जौ अनुसंधान संस्थान

5.कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय




 

चना
















































































































































क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी के मुख्य सूत्र --


  • उज्जैन, इंदौर, मंदसौर, रतलाम, देवास, शाजापुर व राजगढ़ में बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से काबुली चना, सिंगल डॉलर व डबल डॉलर की बढ़ती मांग समुचित बाजार दर तथा निष्चित आय का सूचक

  • टीकमगढ़, सागर, छतरपुर के क्षेत्रफल में वृद्वि मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड अंचल में लगातार अल्प वर्षा को जाता है।

  • क्षेत्रफल में हुए विस्तार को सतत् बनाए रखने के लिए

  • विशेष प्रसार, फसल प्रबंधन, सूक्ष्म पोषक तत्वों के प्रयोग, कीट-व्याधि प्रबंधन, भण्डारण एवं प्रसंस्करण गुणवत्ता, उत्पाद ब्रान्डिंग तथा विपणन व्यवस्था को पारदर्षी रखना आदि बिंन्दुओं का समावेष आवष्यक है।


खेत की तैयारी
1. चना के लिए खेत की मिट्टी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी बनाने की आवश्यकताा नही होती।
2. बुआई के लिए खेत को तैयार करते समय 2-3 जुताईयाँ कर खेत को समतल बनाने के लिए पाटा लगाऐं। पाटा लगाने से नमी संरक्षित रहती है।
मध्यप्रदेष के लिए अनषंसित प्रजातियां  
(अ) काबुली चना की डालर एवं डबल डालर प्रजातियों का विकल्प



































किस्मेंअनुषंसित वष्रअवधि (दिनों में)उपज (क्विं/हे.)प्रमुख विषेषताएं
जे.जी.के 12003110-11515-18पौधे मध्यम लम्बे, कम फैलने वाले, पत्तियां बड़ी सफेद फूल, क्रीम सफेद रंग का बड़े आकार का बींज
जे.जी.के 2200795-11015-18जल्दी पकने वाली, बड़ी पत्तियां, कम फेलाव, सफेद फूल, सफेद क्रीम रंग का बड़ा दाना सौ दानों का वजन 33-36 ग्राम, पकने में उत्तम, बहुरोग रोध
जे.जी.के 3200795 -11015-18काबुली चने की बड़े दाने की जाति, बीज चिकना, सौ दानों का वजन 44 ग्राम, प्रचुर शाखाऐं

(ब) देषी चने की प्रजातियाँ



































































































किस्मेंअनुषंसित वष्रअवधि (दिनों में)उपज (क्विं/हे.)प्रमुख विषेषताएं
जे.जी. 14200995-11020-25दाल बनाने के लिए उपयुक्त, अधिक तापमान सहनषिल, उकठा रोग प्रतिरोधी, मध्य प्रदेष के सिचित क्षेत्रों, देर से बोने के लिए अनुषंसित
जाकी 9218 200611218-20कम फैलाव वाला पौधा, प्रोफूज शाखायें, पौधा हल्का भूरे, दाने कोणीय आकार, चिकनी सतह, सौ दाने का वनज 20-27 ग्राम, सिंचित एवं असिंचित खेती के लिये अनुशंसित।
जे.जी 63 2006110-12020-25उकठा, कालर सड़न, सूखा जड़ सड़न हेतु रोधी क्षमता, पाड़ बोरर हेतु सहनशील, सिंचित/असिंचित हेतु उपयुक्त। पूरे मध्य प्रदेश हेतु उपयुक्त। प्रचुर मात्रा में शाखायें तथा बड़ी फलियाँ, बीज पीला भूरा मध्यम बड़े आकार के।
जे.जी 412200490-10015-18सोयाबीन-आलू- चना फसल प्रणली हेतु उपयुक्त देर से बोनी हेतु अनुशंसित। चना फुटाने में उत्तम
जे.जी 1302002100-12019हल्का फैलाव वाला पौधा जिसमें प्रचुर मात्रा में शाखायें आती है, हल्की हरी पत्तियाँ, बैगनी तना एवं गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी भूरे रंग का बड़ा कोणीय आकार का चिकना बीज, उकठा प्रतिरोधी, असिंचित क्षेत्र हेतु भी उपयुक्त।
जे.जी 162001110-12018-20यह किस्म असिंचित एवं सिंचति क्षेत्र हेतु उपयुक्त है, मध्यम आकार का चिकना बीज, उकठा रोग हेतु सहनषील।
जे.जी 111999100-11015-18बड़ा चिकना कोणीय आकार का; बीज, उकठा, रोधी क्षमता, सूखा जड़ सड़न एवं जड़ सड़न रोधी, सिंचित व असिंचित क्षेत्रों हेतु उपयुक्त।
जे.जी 322 3221997110-11518-20पौधे मध्यम लम्बे, आवरण चिकना, बादामी हिस्सा निकला हुआ, उकठा रोग प्रतिरोधी, पूरे मध्य प्रदेष हेतु सिचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त, निमाण क्षेत्र के लिए अनुषंसित
जे.जी 2181996110-12015-18पत्तियां गहरी हरी, बादामी भूरे रंग की, कोणीय चिकना बड़ा बीज, उकठा रोग (फयूजेरियम विल्ट) हेतु प्रतिरोधक क्षमता, मालवा क्षेत्र के लिए अनुषंसित
जे.जी 74 1991120-12515-18फूल गुलाबी रंग का; इसके बीज का आवरण झुर्रीदार, सिकुड़ा, दानों की ऊपरी सतह खुरदुरी, उकठा हेतु प्रतिरोधक क्षमता, साथ ही अनाज भंडारण कीड़ों के प्रति सहनषील हैं देरी से बोनी हेतु मध्य भारत के लिए अनुषंसित
जे.जी 3151984115-12515-18सबसे प्रचलित किस्म, उकठा रोग के लिये प्रतिरोधक क्षमता रखती है। देर से बोनी हेतु भी उपयुक्त। मध्य भारत के लिए अनुषंसित

बीज उपचार
रोग नियंत्रण हेतुः
1. उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल के बचाव हेतु 2 ग्राम थायरम 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण से प्रति किलो बीज को उपचारित करें । या
2. बीटा वेक्स 2 ग्राम/किलो से उपचारित करें।

कीट नियंत्रण हेत:
1. 
थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम/किलों बीज की दर से उपचारित करें
बीज उपचार -
पोषक तत्व उपलब्ध कराने हेतु
जीवाणु संवर्धनः राइजोवियम एवं पी.एस.बी. प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करें ।
2. 100 ग्राम गुड़ का आधा लिटर पानी में घोल बनायें घोल को गुनगुना गर्म करें तथा ठंडा कर एक पैकेट राइजोवियम कल्चर मिलाऐं ।
3. घोल को बीज के ऊपर समान रूप से छिड़क दें और धीरे-धीरे हाथ से मिलाऐं ताकि बीज के ऊपर कल्चर अच्छे से चिपक जाऐं।
4. उपचारित बीज को कुछ समय के लिए छाँव में सुखाऐं।
5. पी.एस.बी. कल्चर से बीज उपचार राईजोवियम कल्चर की तरह करें।
6. मोलेब्डनम 1 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें ।
बुआई का समय -


  • असिंचित अवस्था में चना की बुआई अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह तक कर देनी चाहिए।

  • चना की खेती, धान की फसल काटने के बाद भी की जाती है, ऐसी स्थिति में बुआई दिसंबर के मध्य तक अवष्यक कर लेनी चाहिए।

  • बुआई में अधिक विलम्ब करने पर पैदावार कम हो जाती है। तथा फसल में चना फली भेदक का प्रकोप भी अधिक होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः अक्टूबर का प्रथम सप्ताह चना की बुआई के लिए सर्वोत्तम होता है।


बुआई


  • क्षेत्रवार संस्तुत रोगरोधी प्रजातियाँ तथा प्रमाणिक बीजों का चुनाव कर उचित मात्रा में प्रयोग करें।

  • खेत पूर्व फसलों के अवषोषों से मुक्त होना चाहिये। इससे भूमिगत फफूंदों का विकास नहीं होगा।

  • बोने से पूर्व बीजो की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगो दें। पानी से निकालकर गीले तौलिये या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तामान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरितक बीजों की संख्या गिन लें।

  • 90 से अधिक बीज अंकुरित हुय है तो अकुरण प्रतिषत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करें या बीज की मात्रा बढ़ा दें।


बुआई की विधि; -


  • समुचित नमी में सीडड्रिल से बुआई करें।

  • खेत में नमी कम हो तो बीज को नमी के सम्पर्क में लाने के लिए बुआई गहराई में करें तथा पाटा लगाऐं।

  • पौध संख्या 25 से 30 प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से रख्ेा ।

  • पंक्तियों (कूंड़ों) के बीच की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखे ।

  • सिंचित अवस्था में काबुली चने में कूंड़ों के बीच की दूरी 45 से.मी. रखनी चाहिए।

  • पछेती बोनी की अवस्था में कम वृद्धि के कारण उपज में होने वाली क्षति की पूर्ति के लिए सामान्य बीज दर में 20-25 तक बढ़ाकर बोनी करें।

  • देरी से बोनी की अवस्था में पंक्ति से पंक्ति की दूरी घटाकर 25 से.मी. रखें।


बीज दर:-
चना के बीज की मात्रा दानों के आकार (भार), बुआई के समय विधि एवं भूमि की उर्वराषक्ति पर निर्भर करती है

  • देषी छोटे दानों वाली किस्मों का 65 से 75 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी. 63, जे.जी. 16

  • मध्यम दानों वाली किस्मों का 75-80 कि.ग्रा./हे. जे.जी. 130, जे.जी. 11, जे.जी. 14, जे.जी. 6

  • काबुली चने की किस्मों का 100 कि.ग्रा./हे. की दर से बुवाई करंे जे.जी.के 1, जे.जी.के 2, जे.जी.के 3


खाद एवं उर्वरक  


  • उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना चाहिए।

  • चना के पौधों की जड़ों में पायी जाने वाली ग्रंथियों में नत्रजन स्थिरीकरण जीवाणु पाये जाते हैं जो वायुमण्डल से नत्रजन अवषोषित कर लेते है तथा इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपनी वृद्धि हेतु करते हैं।

  • अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 20-25 किलोग्राम नत्रजन 50-60 किलोग्राम फास्फोरस 20 किलोग्राम पोटाष व 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करे ।

  • वैज्ञानिक षोध से पता चला है कि असिंचित अवस्था में 2 प्रतिषत यूरिया या डी.ए.पी. का फसल पर स्प्रे करने से चना की उपज में वृद्धि होती है।















डाई अमोनियम फास्फेट (डी.ए.पी.)एलीमैन्टल सल्फरम्यूरेट ऑफ़ पोटाश

सिंचाई प्रबंध -
खरपतवार नियंत्रण कृषि में उत्पादन में कमीं के कई कारक हैं जिनमें खरपतवारांे की उपस्थिति फसलों की उपज मंे 15-35 प्रतिषत हानि पहुंचा सकती है।






























हानि का प्रतिषतप्रमुख खरपतवारप्रयुक्तनाषीमात्रा (कि.ग्रा.)व्यवसायिक उत्पाददर/हे.छिड़काव का समय
15-35अकरी,भुई आंवला, जंगली वटरी,जंगली पालक सबूनी लहसुआ, जंगली जई, गुड़ी डण्डा बथुवापेन्डीमिथलीन1.0स्टाम्प 30 ई.सी.3.3 ली.बुआई के 3 दिन के अन्दर
क्लोडीनाफाप 0.6टापिक 15 डब्ल्य. पी.300 ग्रामबुआई के 25-30 दिन बाद

प्रमुख रोग एवं नियंत्रण उकठा / उगरा रोग :-
लक्षण

  • उकठा चना की फसल का प्रमुख रोग है

  • उकठा के लक्षण बुआई के 30 दिन से फली लगने तक दिखाई देते है ।

  • पौधों का झुककर मुरझाना

  • विभाजित जड़ में भूरी काली धारियों का दिखाई देना ।










नियंत्रण विधियाँ :-


  • चना की बुवाई अक्टूबर माह के अंत में या नवम्बर माह के प्रथम सप्ताह में करें

  • गर्मी के मौसम (अप्र - मई) में खेत की गहरी जुताई करें

  • उकठा रोगरोधी जातियां लगाऐं जैसे

  • देसी चना - जे.जी. 315, जे.जी. 322, जे.जी. 74, जे.जी. 130, जाकी 9218, जे.जी. 16, जे.जी. 11, जे.जी. 63, जे.जी. 12, काबुली - जे.जी.के. 1, जे.जी.के. 2, जे.जी.के. 3

  • काबुली चना - जे.जी.के. 1, जे.जी.के. 2, जे.जी.के. 3 ऽ बीज बोने से पहले कार्बाक्सिन 75ःूच फफूंद नाषक की 2 ग्राम मात्रा प्रति किले बीज की दर से करें ।

  • सिंचाई दिन में न करते हुए शाम के समय करें ।


नियंत्रण विधियाँ:-


  • फसल को शुष्क एवं गर्मी के वातावरण से बचाने के लिए बुआई समय से करनी चाहिए।

  • अप्रेल - मई में खेत को गहरा जोतकर छोड़ देने से कवक के बीजाणु कम हो जाते है।

  • ट्राईकोडर्मा 5 किलो ग्राम/ हे. 50 किलो ग्राम पकी गोबर की खाद के साथ मिलाकर खेत में डाले।


प्रमुख कीट एवं नियंत्रण चना फलीभेदक












चने की फसल पर लगने वाले कीटों में फली भेदक सबसे खतरनाक कीट है। इस कीट क प्रकोप से चने की उत्पादकता को 20-30 प्रतिषत की हानि होती है। भीषण प्रकोप की अवस्था में चने की 70-80 प्रतिषत तक की क्षति होती है।

  • चना फलीभेदक के अंडे लगभग गोल, पीले रंग के मोती की तरह एक-एक करके पत्तियों पर बिखरे रहते हैं




  • अंडों से 5-6 दिन में नन्हीं-सी सूड़ी निकलती है जो कोमल पत्तियों को खुरच-खुरच कर खाती है।

  • सूड़ी 5-6 बार अपनी केंचुल उतारती है और धीरे-धीरे बड़ी होती जाती है। जैसे-जैसे सूड़ी बड़ी होती जाती है, यह फली में छेद करके अपना मुंह अंदर घुसाकर सारा का सारा दाना चट कर जाती है।

  • ये सूड़ी पीले, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती है। इसकी पीठ पर विषेषकर हल्के और गहरे रंग की धारियाँ होती हैं।



समेकित कीट प्रबंधन








(क) यौन आकर्षण जाल (सेक्स फेरोमोन ट्रैप)ः
इसका प्रयोग कीट का प्रकोप बढ़ने से पहले चेतावनी के रूप में करते हैं। जब नर कीटों की संख्या प्रति रात्रि प्रति टैªप 4-5 तक पहुँचने लगे तो समझना चाहिए कि अब कीट नियंत्रण जरूरी। इसमें उपलब्ध रसायन (सेप्टा) की ओर कीट आकर्षित होते है। और विशेष रूप से बनी कीप (फनल) में फिसलकर नीचे लगी पाॅलीथीन में एकत्र हो जाते है।

(ख). सस्य क्रियाओं द्वारा नियंत्रण 1. गर्मी में खेतों की गहरी जुताई करने से इन कीटों की सूड़ी के कोषित मर जाते है। 2. फसल की समय से बुआई करनी चाहिए  

3. अंतर्वती फसल - चना फसल के साथ धनियों/सरसों एवं अलसी को हर 10 कतार चने के बाद 1-2 कतार लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम होता है तथा ये फसलें मित्र कीड़ों को आकर्षित करती हैं ।

 4. फसल- चना फसल के चारों ओर पीला गेन्दा फूल लगाने से चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है । प्रौढ़ मादा कीट पहले गेन्दा फूल पर अन्डे देती है । अतः तोड़ने योग्य फूलों कोसमय-समय पर तोड़कर उपयोग करने से अण्डे एवं इल्लियों की संख्या कम करने में मदद् मिलती है।








जैविक नियंत्रण
1. न्युक्लियर पोलीहैड्रोसिस विषाणुः आर्थिक हानि स्तर की अवस्था में पहुंचने परसबसे पहले जैविक कीट नाषी एच को मि प्रति हे के हिसाब से लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

1. जैविक कीटनाषी में विषाणु के कण होते हैं जो सुंडियों द्वारा खाने पर उनमें विषाणु की बीमारी फैला देते हैं जिससे वे पीली पड़ जाती है तथा फूल कर मर जाती हैं।

2. रोगग्रसित व मरी हुई सुंडियाँ पत्तियों व टहनियों पर लटकी हुई नजर आती हैं।

3. कीटभक्षी चिडि़यों को संरक्षण फलीभेदक एवंकटुआ कीट के नियंत्रण में कीटभक्षी चिडि़यों का महत्वपूर्ण योग दान है। साधारणतयः यह पाया गया है कि कीटभक्षी चिडि़याँ प्रतिषत तक चना फलीभेदक की सूडी को नियंत्रित कर लेती है।
जैविक नियंत्रण
1. परजीवी कीड़ों को बढ़ावा देने के लिए अधिक पराग वाली फसल जैसे धनिया आदि को खेत के चारों ओर लगाना चाहिए।

2. कीटभक्षी चिडि़यों को आकर्षित एवं उत्साहित करने के लिए उनके बैठने के लिए स्थान बनाने चाहिए सुंडियों का आक्रमण होने से पहले यदि खेत में जगह पर तीन फुट लंबी डंडियाँ टी एन्टीनाआकार मंे लगा दी जाये ंतो इन पर पक्षी बैठेंगे जो सूंडियों को खा जाते हैं। इन डंडियों को फसल पकने से पहले हटा दें जिससे पक्षी फसल के दानों को नुकसान न पहुंचायें।
रासायनिक नियंत्रण










  •  नीम व नीम आधारित रसायन

  • नीम की निम्बोली का अर्क भी सुंडियों के नियंत्रण में लाभकारी है।

  • 12-13 किलो निम्बोली सुखाकर व पीस कर उसका भर 25 लीटर पानी में भिगोकर तथामहीन कपड़े से छानकर इसका अर्क तैयार हो जाता है। इसमें 500 ग्रा निरमापाउडर मिलायें। इसको 250 लिटर पानी में मिलाकर प्रति हैक्टेयर केहिसाब से छिड़काव करना चाहिए।



कीटनाशी रसायन








विभिन्न कीटनाशी रसायनों को कटुआ इल्ली/ फलीभेदक इल्ली को नियंत्रित करने के लिए संस्तुत किया गया है । जिनमें से

  • क्लोरोपायीरफास (2 मि.लि प्रति लिटर प#2368;) + या इन्डोक्साकार्व 14.5 एस.सी. 300 ग्राम प्रति हेक्टेयर

  • या इमामेक्टिन बेन्जोइट की 200 ग्राम दवा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें ।



घुन का निंयत्रण








चना का भण्डारण करते समय नमी पर ध्यान देना चाहिए। दानों को सुखाकर उपकी नमी को 10-12 प्रतिषत रखना चाहिए। ऐसा न करने पर चने के दानों को घुन से नुकसान होता है। प्रायः देखा गया है कि घुन का प्रकोप देषी की अपेक्षा काबुली चना में अधिक होता हैं

उपाय


  • दानों को अच्छी तरह धूप में सुखाकर ही भण्डार में रखना चाहिए।

  • पेलीथिन के अस्तर लगे बोरों तथा आधुनिक भण्डारण संरचनाओं का प्रयोग करना चाहिए।

  • दानों को सरसों, महुआ या नारियल के तेल से 8-10 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करने से घुन का प्रकोप कम होता है।

  • बन्द भण्डारण संरचनाओं में पारद टिकरी का प्रयोग करें। 2 टिकिया प्रति 10 किलोग्राम बीज के हिसाब से रखने पर घुन से होने वाली हानि से बचाया जा सकता है।

  • अधिक मात्रा में एक साथ भण्डारण के लिए ई.डी.बी. ऐम्प्यूल का प्रयोग करना चाहिए।


कटाई, मड़ाई एवं भण्डारण
चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है।

  • व फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार हैं

  • व चना के पौधों की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी हो जाती है, या झड़ जाती है तब फसल की कआई करना चाहिये।

  • व फसल के अधिक पककर सूख जाने से कटाई के समय फलियाँ टूटकर खेत में गिरने लगती है, जिससे काफी नुकसान होता है। समय से पहले कटाई करने से अधिक आर्द्रता की स्थिति में अंकुरण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है।

  • व मड़ाई थ्रेसर से या फिर बैलों या ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है।


टूटे-फूटे, सिकुडत्रे दाने वाले रोग ग्रसित बीज व खरपतवार भूसे और दानें का पंखों या प्राकृतिक हवा से अलग कर बोरों में भर कर रखे । भण्डारण से पूर्व बीजों को फैलाकर सुखाना चाहिये। भण्डारण के लिए चना के दानों में लगभग 10-12 प्रतिशत नमीं होनी घुन से चना को काफी क्षति पहुंचती है, अतः बन्द गोदामों या कुठलों आदि में चना का भण्डारण करना चाहिए। साबुतदानों की अपेक्षा दाल बनाकर भण्डारण करने पर घुन से क्षति कम होती है। साफ सुथरें नमी रहित भण्डारण ग्रह में जूट की बोरियाँ या लोहे की टंकियों में भरकर रखना चाहिये।

 

 

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