सोयाबीन की खेती

सोयाबीन की खेती


सोयाबीन की उन्नत खेती






सोयाबीन की खेती





  1. भूमि का चुनाव एवं तैयारी

  2. उन्नत प्रजातियां

  3. बीज दर

  4. बीजोपचार

  5. कल्चर का उपयोग

  6. बोनी का समय एवं तरीका

  7. अंतरवर्तीय फसलें

  8. समन्वित पोषण प्रबंधन

  9. खरपतवार प्रबंधन

  10. सिंचाई

  11. पौध संरक्षण

    1. कीट

    2. कृषिगत नियंत्रण

    3. रासायनिक नियंत्रण

    4. जैविक नियंत्रण



  12. रोग

  13. फसल की कटाई एवं गहाई




सोयाबीन की खेती के लिए गर्म और नम जलवायु में अच्छी रहती है। इसकी खेती के लिए उचित तापमान 26-32 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। सोयाबीन की खेती के अच्छे जल निकास वाली दोमट भूमि अच्छी रहती है। मिट्टी का पीएच मान 6.0 से 7.5 सेल्सियस होना चाहिए ।





भूमि का चुनाव एवं तैयारी




ब्रोकोली की खेती

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खरबूजे की खेती

चीकू की खेती

 

सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, हल्की व रेतीली भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है। परंतु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिये अधिक उपयुक्त होती है। जिन खेतों में पानी रुकता हो, उनमें सोयाबीन न लें।

ग्रीष्मकालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवष्य करनी चाहिये। वर्षा प्रारम्भ होने पर 2 या 3 बार बखर तथा पाटा चलाकर खेत का तैयार कर लेना चाहिये। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थायें नष्ट होंगीं। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिये उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है अत: अधिक उत्पादन के लिये खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है। जहां तक सम्भव हो आखरी बखरनी एवं पाटा समय से करें जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सकें। यथा सम्भव मेंढ़ और कूड़ (रिज एवं फरों) बनाकर सोयाबीन बोयें।

उन्नत प्रजातियां






























































प्रजाति



पकने की अवधि



औसत उपज (क्विंटल/हेक्टर)


प्रतिष्ठा100-105 दिन20-30
जे.एस. 33595-100 दिन25-30
पी.के. 1024110-120 दिन30-35
एम.ए.यू.एस. 4785-90 दिन20-25
एनआरसी 7
(अहिल्या-3)
100-105 दिन25-30
एनआरसी 3795-100 दिन30-35
एम.ए.यू.एस.-8193-96 दिन22-30
एम.ए.यू.एस.-93 1590-95 दिन20-25


बीज दर


छोटे दाने वाली किस्में - 28 किलोग्राम प्रति एकड़
मध्यम दाने वाली किस्में - 32 किलोग्राम प्रति एकड़
बड़े दाने वाली किस्में - 40 किलोग्राम प्रति एकड़

बीजोपचार


सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इसकी रोकथाम हेतु बीज को थायरम या केप्टान 2 ग्राम, कार्बेडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा 4 ग्राम / कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलों ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोयें।

कल्चर का उपयोग


फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार के प्श्चात् बीज को 5 ग्राम रायजोबियम एवं 5 ग्राम पीएसबी कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिये एवं शीघ्र बोनी करना चाहिये। घ्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलाऐं।

बोनी का समय एवं तरीका


जून के अंतिम सप्ताह में जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु भूमि में 10 सेमी गहराई तक उपयुक्त नमी होना चाहिये। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात् बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. (बोनी किस्मों के लिये) तथा 45 से.मी. बड़ी किस्मों के लिये। 20 कतारों के बाद एक कूंड़ जल निथार तथा नमी सरंक्षण के लिये खाली छोड़ देना चाहिये। बीज 2.50 से 3 से.मी. गहरा बोयें।

अंतरवर्तीय फसलें


सोयाबीन के साथ अंतरवर्तीय फसलों के रुप में अरहर सोयाबीन (2:4), ज्वार सोयाबीन (2:2), मक्का सोयाबीन (2:2), तिल सोयाबीन (2:2) अंतरवर्तीय फसलें उपयुक्त हैं।

समन्वित पोषण प्रबंधन


अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) 2 टन प्रति एकड़ अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बोते समय 8 किलो नत्रजन 32 किलो स्फुर 8 किलो पोटाश एवं 8 किलो गंधक प्रति एकड़ देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई बढ़ाई जा सकती है। यथा सम्भव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासायनिक उर्वरकों को कूड़ों में लगभग 5 से 6 से.मी. की गहराई पर डालना चाहिये। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति एकड़ एवं उथली मिट्टियों में 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से 5 से 6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिये।

खरपतवार प्रबंधन


फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियंत्रण बहुत आवश्यक होता है। बतर आने पर डोरा या कुल्फा चलाकर खरपतवार नियंत्रण करें व दूसरी निदाई अंकुरण होने के 30 और 45 दिन बाद करें। 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घांस कुल के खरपतवारों को नश्ट करने के लिये क्यूजेलेफोप इथाइल 400 मिली प्रति एकड़ अथवा घांस कुल और कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के लिये इमेजेथाफायर 300 मिली प्रति एकड़ की दर से छिड़काव की अनुशसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बोने के पूर्व फ्लुक्लोरेलीन 800 मिली प्रति एकड़ आखरी बखरनी के पूर्व खेतों में छिड़कें और दवा को भलीभाँति बखर चलाकर मिला देवें। बोने के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व एलाक्लोर 1.6 लीटर तरल या पेंडीमेथलीन 1.2 लीटर प्रति एकड़ या मेटोलाक्लोर 800 मिली प्रति एकड़ की दर से 250 लीटर पानी में घोलकर फ्लैटफेन या फ्लैटजेट नोजल की सहायता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार नाशियों के स्थान पर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से ऐलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव किया जा सकता है। बोने के पूर्व एवं अंकुरण पूर्व वाले खरपतवार नाशियों के लिये मिट्टी में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना चाहिये।

सिंचाई


खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यत: सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात् सितम्बर माह में यदि खेत में नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो हल्की सिंचाई करना सोयाबीन के विपुल उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है।

पौध संरक्षण


कीट


सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुंचाने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्लियां, तने को नुकसान पहुंचाने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकोप होता है, एवं कीटों के आक्रमण से 5 से 50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियंत्रण के उपाय निम्नलिखित हैं:

कृषिगत नियंत्रण


खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें। मानसून की वर्षा के पूर्व बोनी नहीं करें। मानसून आगमन के पश्चात् बोनी शीघ्रता से पूरी करें। खेत नींदा रहित रखें। सोयाबीन के साथ ज्वार अथवा मक्का की अंतरवर्तीय फसल लें। खेतों को फसल अवशेषों से मुक्त रखें तथा मेढ़ों की सफाई रखें।

रासायनिक नियंत्रण


बोवाई के समय थयोमिथोक्जाम 70 डब्ल्यू.एस. 3 ग्राम दवा प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करने से प्रारम्भिक कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारम्भ होते ही नीला भृंग कीट नियंत्रण के लिये क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियान (फालीडाल 2 प्रतिशत या धानुडाल 2 प्रतिशत) 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करना चाहिये। कई प्रकार की इल्लियां पत्ती, छोटी फलियों और फलों को खाकर नष्ट कर देती है। इन कीटों के नियंत्रण के लिये घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 300 से 325 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिये। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चौड़ा होता है। सोयाबीन के फूलों और फलियों को खा जाती है, जिससे पौधे फली विहीन हो जाते हैं। फसल बांझ होने जैसी लगती। चूँकि फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो हरी इल्ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैं, अत: प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन का फसल पर अवश्य करना चाहिये।











































क्रंप्रयुक्त कीटनाशकमात्रा प्रति एकड़क्रंप्रयुक्त कीटनाशकमात्रा प्रति एकड
1क्लोरोपायरीफॉस 20 ई.सी.600 मिली5ईथोफेनप्राक्स 40 ई.सी.400 मिली
2क्यूनालफॉस 25 ई.सी.600 मिली6मिथोमिल 10 ई.सी.400 मिली
3ईथियान 50 ई.सी.600 मिल7नीम बीज का घोल 5 प्रतिशत15 कि.ग्रा.
4ट्रायजोफॉस 40 ई.सी.320 मिली8थयोमिथोक्जाम 25 डब्ल्यू जी40 ग्राम

छिड़काव यंत्र उपलब्ध न होने की स्थिति में निम्नलिखित में से एक पावडर (डस्ट) का उपयोग 8-10 किग्रा प्रति एकड़ करना चाहिये।

  • क्यूनालफॉस - 1.5 प्रतिशत

  • मिथाईल पैराथियान - 2.0 प्रतिशत


जैविक नियंत्रण


कीटों के आरम्भिक अवस्था में जैविक कीट नियंत्रण हेतु बी.टी. एवं व्यूवेरीया बेसियाना आधारित जैविक कीटनाशक 400 ग्राम या 400 मि.ली. प्रति एकड़ की दर से बोवाई के 35-40 दिन तथा 50-55 दिन बाद छिड़काव करें। एन.पी.वी. का 250 एल.ई. समतुल्य का 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। रासायनिक कीटनाशक की जगह जैविक कीटनाशकों को अदला-बदली कर डालना लाभदायक होता है।

  • गर्डल बीटल प्रभावित क्षेत्र में जे.एस. 335, जे.एस. 80-21, जे.एस. 90-41 लगावें।

  • निंदाई के समय प्रभावित टहनियां तोड़कर नष्ट कर दें।

  • कटाई के पश्चात् बंडलों को सीधे गहाई स्थल पर ले जावें।

  • तने की मक्खी के प्रकोप के समय छिड़काव शीघ्र करें।


रोग



  • फसल बोने के बाद से ही फसल निगरानी करें। यदि सम्भव हो तो लाइट ट्रेप तथा फेरोमेन टूब का उपयोग करें।

  • बीजोपचार आवश्यक है। उसके बाद रोग नियंत्रण के लिये फंफूद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु कार्बेंडाजिम 1 ग्राम / 2 ग्राम थीरम के मिश्रण से प्रति किलो ग्राम बीज उपचारित करना चाहिये। थीरम के स्थान पर केप्टान एवं कार्बेंडाजिम के स्थान पर थायोफेनेट मिथाइल का प्रयोग किया जा सकता है।

  • पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फुंद जनित रोगों को नियंत्रित करने के लिये कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यू.पी. या थायोफेनेट मिथाइल 70 डब्ल्यू.पी. 0.05 से 0.1 प्रतिशत से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिये। पहला छिड़काव 30-35 दिन की अवस्था पर तथा दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की अवस्था पर करना चाहिये।

  • बैक्टीरियल पश्च्यूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिये स्ट्रेप्टोसाइक्लीन या कासूगामाइसिन की 200 पीपीएम 200 मिग्रा दवा प्रति लीटर पानी के घोल और कॉपर आक्सीक्लोराइड 0.2 (2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में मिश्रण करना चाहिये। इसके लिये 10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन एवं 20 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते हैं।

  • गेरुआ प्रभावित क्षेत्रों (जैसे बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी) में गेरुआ के लिये सहनशील जातियां लगायें तथा रोगों के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही 1 मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रोपिकोनाजोल 25 ई.सी. या ऑक्सीकार्बोजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्ल्यूपी दवा के घोल का छिड़काव करें।

  • विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व वड व्लाइट रोग प्राय: एफ्रिडस सफेद मक्खी, थ्रिप्स आदि द्वारा फेलते हैं। अत: केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिये एवं रोग फेलाने वाले कीड़ों के लिये थायोमेथेक्जोन 70 डब्ल्यू एस. से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के अंतराल पर दोहराते रहें। रोगी पौधों का खेत से निकाल देवें। इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी., 400 मि.ली. प्रति एकड़, मिथाइल डेमेटान 25 ईसी 300 मिली प्रति एकड़, डायमिथोएट 30 ईसी 300 मिली प्रति एकड़, थायोमिथेजेम 25 डब्ल्यू जी 400 ग्राम प्रति एकड़।

  • पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिये ग्राही फसलों (मूंग, उड़द, बरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियां ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्खी का नियमित नियंत्रण करें।

  • नीम की निम्बोली का अर्क डिफोलियेटर्स के नियंत्रण के लिये कारगर साबित हुआ है।


फसल की कटाई एवं गहाई


अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियां के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिये। पंजाब 1 पकने के 4-5 दिन बाद, जे.एस. 335, जे.एस. 76-205 एवं जे.एस. 72-44, जेएस 75-46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती है। कटाई के बाद गट्ठों को 2-3 दिन तक सुखाना चाहिये। जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिये। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रेक्टर, बैलों तथा हाथ द्वारा लकड़ी से पीटकर करना चाहिये। जहां तक सम्भव हो बीज के लिये गहाई लकड़ी से पीट कर करना चाहिये, जिससे अंकुरण प्रभावित न हो।







सोयाबीन की खेती


सोयाबीन विश्व की तिलहनी एवं ग्रंथिकुल फसल है यह प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्त्रोत है इसमें प्रोटीन की मात्रा लगभग 40 प्रतिशत होती हैं वहीँ वसा 20 प्रतिशत तक होता है | भारत देश में सोयाबीन खेती का महत्वपूर्ण योगदान है | भ्बरत में लगभग 4 दशक पूर्व सोयाबीन की व्यावसायिक खेती प्रारंभ हुई थी इसके बाबजूद सोयाबीन ने देश की मुख्य तिलहन फसलों में अपना स्थान हासिल कर लिया | सोयाबीन की खेती मुख्यतः मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, कर्नाटक राजस्थान एवं आंध्रप्रदेश में की जाती है | मध्यप्रदेश के इंदोर शहर में भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान केंद्र की स्थापना की है | जहाँ सोयाबीन को लेकर विभिन्न प्रकार की रिसर्च की जाती है | आइये जानते हैं सोयाबीन की उन्नत खेती के बारे में सभी जानकारी

  • खेत की तैयारी

  • उन्नत किस्में 

  • बीजोपचार

  • बुआई की विधि

  • खाद एवं उर्वरक

  • फसल चक्र

  • खरपतवार नियंत्रण 

  • रोग एवं कीट प्रबंधन 


सोयाबीन हेतु खेत की तैयारी: –


मिट्टी परीक्षण संतुलित उर्वरक प्रबंधन एवं मृदा स्वास्थ्य हेतु मिट्टी का मुख्य तत्व जैसे नत्रजन, फासफोरस, पोटाश, द्वितियक पोषक तत्व जैसे सल्फर, केल्शियम, मेगनेशियम एवं सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, तांबा, लोहा, मेगनीज़, मोलिब्डिनम, बोराॅन साथ ही पी.एच., ई.सी. एवं कार्बनिक द्रव्य का परीक्षण करायें ।

ग्रीष्मकालीन जुताई :


खाली खेतों की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से माह मार्च से 15 मई तक 9 से 12 इंच गहराई तक करें ।

  1. मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होगा, जैसे मृदा में वातायन, पानी सोखने एवं जल धारण शक्ति, मृदा भुरभुरापन, भूमि संरचना इत्यादि ।

  2. खरपतवार नियंत्रण में सहायता प्राप्त होगी ।

  3. कीड़े मकोड़े तथा बिमारियों के नियंत्रण में सहायक होता है ।

  4. उर्वरक प्रबंधन एवं जिवांश पदार्थ के विघटन में लाभकारी सिद्ध होता है |


सोयाबीन की उन्नत किस्में 


जे. एस-335 :- 

यह सोयाबीन की उन्नत तकनीक है . इस प्रजाति की बीज 95 से 100 दिन में हो जाता है | इस बीज की खासियत यह है की वजन में अच्छी है 10 से 13 दाने का वजन 100 ग्राम होता है | इस बीज की उत्पादन क्षमता 25 – 30 किवंटल / हैक्टेयर होता है | इसका रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक है अन्य बीज से ज्यादा है |
जे.एस. 93-05 :- 

इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विशेषताएं अर्द्ध-परिमित वृद्धि किस्म, बैंगनी फूल. कम चटकने वाली फलियां होती है |
एन.आर.सी-86 :-

इसकी विशेषताएं: सफेद फूल, भूरा नाभी एवं रोये, परिमित वृद्धि, गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिये प्रतिरोधी, चारकोल राॅट एवं फली झुलसा के लिये मध्यम प्रतिरोधी है | प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है |
एन.आर.सी-12 :-

इसप्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विशेषताएं: परिमित वृद्धि, बैंगनी फूल, गर्डल बीटल और तना-मक्खी के लिए सहनषील, पीला मोजैक प्रतिरोधी होता है |
एन.आर.सी-7 :-

इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विषेषताएं: परिमित वृद्धि, फलियां चटकने के लिए प्रतिरोधी, बैंगनी फूल, गर्डल बीडल और तना-मक्खी के लिए सहनशील होती है |
जे. एस. 95-60 :-

इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 80 से 85 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है | इसकी विषेषताएं: अर्द्ध-बौनी किस्म, ऊचाई 45-50 सेमी, बैंगनी फूल, फलियां नहीं चटकती है |
जे.एस. 20-29 :-

इस प्रजाति की बीज का उपज क्षमता 20 से 25 किवंटल प्रति हैक्टेयर है | यह 90 से 95 दिनों में तैयार हो जाता है | इस प्रजाति की बीज का भी वजन 13 बीज का 100 ग्राम होता है |इसकी विशेषताएं: बैंगनी फूल, पीला दाना, पीला विषाणु रोग, चारकोल राट, बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी विशेषताएं: बैंगनी फूल, पीला दाना, पीला विषाणु रोग, चारकोल राट, बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी बेक्टेरिययल पश्चूल एवं कीट प्रतिरोधी है |

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अंकुरण क्षमता:

बुवाई के पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता (70%) अवश्य ज्ञात करें ।
100 दानें तीन जगह लेकर गीली बोरी में रखकर औसत अंकुरण क्षमता का आकंलन करें ।

बीजोपचार:-


बीज को थायरम $ कार्बेन्डाजिम (2:1) के 3 ग्राम मिश्रण, अथवा थयरम $ कार्बोक्सीन 2.5 ग्राम अथवा थायोमिथाक्सेम 78 ws 3 ग्राम अथवा ट्राईकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें ।

जैव उर्वरक:-



  1. बीज को राइजोबियम कल्चर (बे्रडी जापोनिकम) 5 ग्राम एवं पी.एस.बी.(स्फुर घोलक) 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बोने से कुछ घंटे पूर्व टीकाकरण करें ।
    2. पी.एस.बी. 2.50 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाने से स्फुर को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होता है ।


समय पर बुआई:-


जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य 4-5 इंच वर्षा होने पर बुवाई करें ।

कतारों में बोनी:-



  1. कम फैलने वाली प्रजातियों जैसे जे.एस. 93-05, जे.एस. 95-60 इत्यादि के लिये बुवाई के समय कतार से कतार की दूरी 40 से.मी. रखे ।

  2. ज्यादा फैलनेवाली किस्में जैसे जे.एस. 335, एन.आर.सी. 7, जे.एस. 97-52 के लिए 45 से.मी. की दूरी रखें ।


बीज की मात्रा:-



  1. बुवाई हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । पौध संख्या 4-4.5 लाख/हे. रखे ।

  2. छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें ।

  3. बड़े दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से निर्धारित करें ।

  4. गहरी काली भूमि तथा अधिक वर्षा क्षेत्रों में रिजर सीडर प्लांटर द्वारा कूड (नाली) मेड़ पद्धति या रेज्ड बेड प्लांटर या ब्राड बेड फरो पद्धति से बुआई करें ।

  5. बीज के साथ किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरको का प्रयोग न करें ।


संतुलित उर्वरक प्रबंधन:-



  1. उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।

  2. रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।

  3. संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 – 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।

  4. संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।

  5. नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।


जस्ता एवं गंधक की पूर्ति:-



  1. अनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें ।
    2. गंधक युक्त उर्वरक (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा । सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग 2.50 क्वि. प्रति हैक्टर की दर से करना लाभकारी है । इसके साथ ही अन्य गंधक युक्त उर्वरकों का उपयोग किया जा सकता है ।


खाद या उर्वरक का प्रबंधन कैसे करें ?



  1. उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।

  2. रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।

  3. संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 – 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।

  4. संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।

  5. नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।


अंर्तवर्ती खेती :-


अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन $ अरहर (4:2), सोयाबीन $ मक्का (4:2) $ सोयाबीन $ ज्वार (4:2) $ सोयाबीन $ कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।

फसल चक्र :-


निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – सरसों फसल चक्र को अपनांए ।

सोयाबीन में खरपतवार नींदा प्रबंधन :-


खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है:
1. कर्षण विधि
2. यांत्रिकी विधि
3. रसायनिक विधि

यांत्रिक विधि :-


फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।
रासायनिक विधि से नियंत्रण 


  1. बोवनी के पूर्व उपयोगी (पीपीआई) :- सोयाबीन की फसल की बुवाई से पहले खरपतवार के नियंत्रण के लिए फ्लुक्लोरेलीन तथा ट्राईफ्लूरेलीन का उपयोग कर सकते है | इसकी 2.22 ली. प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग कर सकते हैं |

  2. बोवनी के तुरन्त बाद(पीआई) :- बुवाई के बाद खरपतवार की नियंत्रण के लिए किसान मेटालोक्लोर (2.00 ली./हैक्टेयर), क्लोमाझोन (2.00 ली./हैक्टेयर), पेण्डीमिथालीन (3.25 ली./हैक्टेयर) तथा डाइक्लोसुलम (26 ग्राम /हैक्टेयर) का उपयोग कर सकते हैं |

  3. 15 से 20 दिन की फसल में में खरपतवार नियंत्रण के लिए इमेजाथायपर (1लि./हैक्टेयर), क्विजालोफाप इथइल (1 लि./ हैक्टेयर), फेनाक्सीफाप-पी-इथइल (0.75 ली./हैक्टेयर) तथा हेलाक्सीफाप (135 मिली. / हैक्टेयर) का उपयोग करें |


जल संरक्षण उपाय :-


साधारण सीड ड्रील से बुवाई के समय 5-6 कतारों के बाद फरो ओपनर के माध्यम से एक कूंड बनाए । खाली कूंड को डोरा चलाते वक्त गहरा कर दे । इससे अधिक वर्षा की स्थिति में जल निकासी एवं अल्प वर्षा की स्थिति में जल संरक्षण होगा । सीड ड्रिल के साथ पावडी का उपयोग करें, जिससे जल संरक्षण एवं उचित पौध संख्या प्राप्त की जा सकती है ।

अंर्तवर्ती खेती :-


अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन $ अरहर (4:2), सोयाबीन $ मक्का (4:2) $ सोयाबीन $ ज्वार (4:2) $ सोयाबीन $ कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।

फसल चक्र :-


निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – सरसों फसल चक्र को अपनांए ।

नींदा प्रबंधन :-


खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है:
1. कर्षण विधि
2. यांत्रिकी विधि
3. रसायनिक विधि

यांत्रिक विधि :-


फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।

फसल सुरक्षा: सोयाबीन में कीट एवं रोग


एकीकृत कीट नियंत्रण के उपाय अपनाएं जैसे नीम तेल व लाईट ट्रेप्स का उपयोग तथा प्रभावित एवं क्षतिग्रस्त पौधों को निकालकर खेत के बाहर मिट्टी में दबा दें । कीटनाशकों के छिड़काव हेतु 7-8 टंकी (15 लीटर प्रति टंकी) प्रति बीघा या 500 ली./हे. के मान से पानी का उपयोग करना अतिआवश्यक है ।

अ. जैविक नियंत्रण



  1. खेत में ‘ज्’ आकार की खूटी 20-25 /हे. लगाएं ।

  2. फेरोमोन ट्रेप 10-12/हे का उपयोग करें ।

  3. लाईट ट्रेप का उपयोग कीटों के प्रकोप की जानकारी के लिए लगाएं।


ब. रसायनिक नियंत्रण


























ब्लू बीटल

क्लोरपायरीफास/ क्यूनालफाॅस  1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर

गर्डल बीटल

ट्राईजोफास 0.8 ली./हे. या इथोफेनप्राक्स 1 ली./हे. या थायोक्लोप्रीड 0.75 ली./हे

तम्बाकू की इल्ली एवं रोयंेदार इल्ली

क्लोरपायरीफास 20 इ.सी. 1.5 ली. /हे या इंडोक्साकार्ब 14.5 एस.पी. 0.5 ली./हे. या रेनेक्सीपायर 20 एस.सी. 0.10 ली./हे.

सेमीलूपर इल्ली

जैविक नियंत्रण हेतु बेसिलस युरिंजिएंसिस / ब्यूवेरिया बेसियाना 1 ली. या किलो/हे.

चने की इल्ली एवं तम्बाकू की इल्ली



  • जैविक नियंत्रण – चने की इल्ली हेतु एच.ए.एन.पी.वी 250 एल.ई/हे. तथा तम्बाकू की इल्ली हेतु एस.एल.एन.पी.वी 250 एल.ई/हे. या    बेसिलस युरिंजिएंसिस / ब्यूवेरिया बेसियाना 1 ली. या किलो/हे. का उपयोग करें ।

  • रसायनिक निंयत्रण हेतु रेनेक्सीपायर 0.10 ली./हे. या प्रोपेनोफाॅस 1.25 ली./हे. या इन्डोक्साकार्ब 0.50 ली./हे. या लेम्डा सायहेलोथ्रीन 0.3 ली./हे. या स्पीनोसेड 0.125 ली./हे. का उपयोग करें ।



समेकित रोग प्रबंधन


रोग प्रबंधन वह पद्धति है जिसमें सभी उपलब्ध रोग नियंत्रण के निम्न तरीकों को एकीकृत किया जाकर रोग को गर्मी में गहरी जुता,संतुलित उवर्रक प्रबंधन, सही किस्मों का चयन, बुआई का समय ,बीज दर व पौध संख्या, जल प्रबंधन, रोग ग्रस्त फसल अवशेषों को नष्ट करना,कोलेट्रल व विकल्प परपोशी पोधो का निष्कासन, खरपतवार नियंत्रण,फसल चक्रव अंतरवर्तीय फसल,प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग
पत्ती धब्बा एवं ब्लाइट:

नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या थायोफिनेट मिथाईल का 0.05: (50 ग्रा./100 ली पानी)के घोल का 35-40 दिन में छिड़काव करें ।

बेक्टेरियरल पश्चूल:


नियंत्रण हेतु रोग रोधी किस्में जैसे एन.आर.सी.-37 का प्रयोग करें । रोग का लक्षण दिखाई देने पर कासुगामाइसिन का 0.2: (2 ग्राम/ली.) घोल का छिड़काव करें ।
गेरूआ :


  • यह एक फफूंदजनित रोग है जो प्रायः फूल की अवस्था में देखा जाता है जिसके अन्तर्गत छोटे-छोटे सूई के नोक के आकार के मटमेले भूरे व लाल भूरे सतह से उभरे हुए धब्बे के रूप में पत्तीयों की निचली सताह पर समूह के रूप में पाये जाते है । धब्बों के चारों ओर पीला रंग होता है । पत्तीयों को थपथपाने से भूरे रंग का पाउडर निकलता है ।

  • रोग रोधी किस्में जैसे जे.एस. 20-29, एन.आर. सी 86 का प्रयोग करें ।

  • रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत हेक्साकोनाजोल या प्रोपीकोनाजोल 800 मि.ली. /हे. का छिड़काव करें ।


चारकोल रोट :


  • यह एक फफूंदजनित रोग है । इस बीमारी से पौधे की जड़े सड़ कर सूख जाती है । पौधे के तने का जमीन से ऊपरी हिस्सा लाल भूरे रंग का हो जाता है। पत्तीयां पीली पड़ कर पौधे मुरझा जाते हैं । रोग ग्रसित तने व जड़ के हिस्सों के बाहरी आवरण में असंख्य छोटे-छोटे काले रंग के स्केलेरोशिया दिखाई देते हैं ।

  • रोग सहनशील किस्में जैसे जे.एस. 20-34 एवं जे.एस 20-29,, जे एस 97-52, एन.आर.सी. 86 का उपयोग करें ।

  • रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत थायरम कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम /किलो बीज के मान से उपचारित करें ।


ऐन्थ्रेक्नोज व फली झुलसनः


  1. यह एक बीज एवं मृदा जनित रोग है । सोयाबीन में फूल आने की अवस्था में तने, पर्णवृन्त व फली पर लाल से गहरे भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे दिखाई देते है । बाद में यह धब्बे फफूंद की काली सरंचनाओं (एसरवुलाई) व छोटे कांटे जैसी संरचनाओं से भर जाते है । पत्तीयों पर शिराओं का पीला-भूरा होना, मुड़ना एवं झड़ना इस बीमारी के लक्षण है ।

  2. रोग सहनशील किस्में जैसे एनआरसी 7 व 12 का उपयोग करें ।

  3. बीज को थायरम कार्बोक्सीन या केप्टान 3 ग्राम /कि.ग्रा. बीज के मान से उपचारित कर बुवाई करें ।

  4. लक्षण दिखाई देने पर जाइनेब या मेन्कोजेब 2 ग्रा./ली. का छिड़काव करें ।


सोयाबीन के कीट एवं रोगों की पहचान तथा निदान


कटाई व गहाई:



  1. फसल की कटाई उपयुक्त समय पर कर लेने से चटकने पर दाने बिखरने से होने वाली हानि में समुचित कमी लाई जा सकती है।

  2. फलियों के पकने की उचित अवस्था पर (फलियों का रंग बदलने पर या हरापन पूर्णतया समाप्त होने पर) कटाई करनी चाहिए । कटाई के समय बीजों में उपयुक्त नमी की मात्रा 14-16 प्रतिशत है ।

  3. फसल को 2-3 दिन तक धूप में सुखाकर थ्रशर से धीमी गति (300-400 आर.पी.एम.) पर गहाई करनी चाहिए ।

  4. गहाई के बाद बीज को 3 से 4 दिन तक धूप में अच्छा सुखा कर भण्डारण करना चाहिए ।


अन्तर्वर्ती खेती :-


सोयाबीन की खेती से बिजनेस के अलावा भी उस खेत में और फसल को प्राप्त कर सकते हैं | इसके लिए समय तथा मिटटी का विशेष ध्यान रखना होगा | अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन & अरहर (4:2), सोयाबीन & मक्का (4:2) & सोयाबीन & ज्वार (4:2)  और  सोयाबीन & कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।

किसान फसल चक्र अपनाएं  :-


खेत में फसल चक्र अपनाने से मिटटी में उर्वरा क्षमता बरकरार रहता है | जैसे दलहन की खेती करने से मिटटी में नाईट्रोजन की मात्रा बनी रहती है | इसलिए निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन – गेहूं, सोयाबीन – सरसों फसल चक्र को अपनांए |






खेत की तैयारी: -

मिट्टी परीक्षण

संतुलित उर्वरक प्रबंधन एवं मृदा स्वास्थ्य हेतु मिट्टी का मुख्य तत्व जैसे नत्रजन, फासफोरस, पोटाश, द्वितियक पोषक तत्व जैसे सल्फर, केल्शियम, मेगनेशियम एवं सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, तांबा, लोहा, मेगनीज़, मोलिब्डिनम, बोराॅन साथ ही पी.एच., ई.सी. एवं कार्बनिक द्रव्य का परीक्षण करायें ।

ग्रीष्मकालीन जुताई

खाली खेतों की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से माह मार्च से 15 मई तक 9 से 12 इंच गहराई तक करें ।

  • मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होगा, जैसे मृदा में वातायन, पानी सोखने एवं जल धारण शक्ति, मृदा भुरभुरापन, भूमि संरचना इत्यादि ।

  • खरपतवार नियंत्रण में सहायता प्राप्त होगी ।

  • कीड़े मकोड़े तथा बिमारियों के नियंत्रण में सहायक होता है ।

  • उर्वरक प्रबंधन एवं जिवांश पदार्थ के विघटन में लाभकारी सिद्ध होता है ।


 








 

































































प्रजातिदिनांकनोटिफिकेशन नम्बर/ चिन्हितक्र.विशेषताएं
जे. एस-3352.9.1994636(E)

  • अवधि मध्यम,95-100 दिन

  • उपज 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन10-13 ग्राम

  • अर्द्ध-परिमितवृद्धि, बैंगनीफूल, रोंये रहितफलियां, जीवाणु झुलसा प्रतिरोधी


जे.एस. 93-054.9.2002937(E)

  • अवधि अगेती,90-95 दिन

  • उपज 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विशेषताएंअर्द्ध-परिमित वृद्धि किस्म,बैंगनी फूल. कम चटकने वाली फलियां


जे. एस. 95-6020.7.20071178(E)

  • अवधि अगेती,80-85 दिन

  • उपज 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विषेषताएं:अर्द्ध-बौनी किस्म,ऊचाई 45-50 सेमी, बैंगनीफूल, फलियां नहीं चटकती


जे.एस. 97-5216.10.20082458(E)

  • अवधि मध्यम,100-110 दिन

  • उपज 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन12-13 ग्राम

  • विशेषताएं:सफेद फूल, पीलादाना, काली नाभी,रोग एवं कीट के प्रति सहनशील,अधिक नमी वाले क्षेत्रों के लिये उपयोगी


जे.एस. 20-292014चिन्हित

  • अवधि मध्यम,90-95 दिन

  • उपज 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विशेषताएं:बैंगनी फूल, पीलादाना, पीला विषाणुरोग, चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूलएवं कीट प्रतिरोधीबेक्टेरिययल पश्चूलएवं कीट प्रतिरोधी


जे.एस. 20-342014चिन्हित

  • अवधि मध्यम,87-88 दिन

  • उपज 22-25 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन12-13 ग्राम

  • विशेषताएं:बैंगनी फूल, पीलादाना, चारकोल राट,बेक्टेरिययल पश्चूल,पत्ती धब्बा एवंकीट प्रतिरोधी,कम वर्षा में उपयोगी


एन.आर.सी-701.05.1997360(E)

  • अवधि मध्यम,90-99 दिन

  • उपज 25-35 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विषेषताएं:परिमित वृद्धि,फलियां चटकने केलिए प्रतिरोधी,बैंगनी फूल, गर्डलबीडल और तना-मक्खीके लिए सहनशील


एन.आर.सी-121.05.1997360(E)

  • अवधि मध्यम,96-99 दिन

  • उपज 25-30 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विशेषताएं:परिमित वृद्धि,बैंगनी फूल, गर्डलबीटल और तना-मक्खीके लिए सहनषील,पीला मोजैक प्रतिरोधी


एन.आर.सी-862014चिन्हित

  • अवधि मध्यम,90-95 दिन

  • उपज 20-25 क्विंटल/हैक्टेयर

  • 100 दाने का वजन13 ग्राम से ज्यादा

  • विशेषताएं:सफेद फूल, भूरानाभी एवं रोये,परिमित वृद्धि,गर्डल बीटल औरतना-मक्खी के लियेप्रतिरोधी, चारकोलराॅट एवं फली झुलसाके लिये मध्यमप्रतिरोधी



 

प्रमुख उन्नतशील प्रजातियां

 



















 

अंकुरण क्षमता

 









  • बुवाई के पूर्व बीज की अंकुरण क्षमता (70%) अवश्य ज्ञात करें ।

  • 100 दानें तीन जगह लेकर गीली बोरी में रखकर औसत अंकुरण क्षमता का आकंलन करें ।



 

बीजोपचार

बीज को थायरम $ कार्बेन्डाजिम (2:1) के 3 ग्राम मिश्रण, अथवा थयरम $ कार्बोक्सीन 2.5 ग्राम अथवा थायोमिथाक्सेम 78 ws 3 ग्राम अथवा ट्राईकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें ।

जैव उर्वरक

  • बीज को राइजोबियम कल्चर (बे्रडी जापोनिकम) 5 ग्राम एवं पी.एस.बी.(स्फुर घोलक) 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बोने से कुछ घंटे पूर्व टीकाकरण करें ।

  • पी.एस.बी. 2.50 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से खेत में मिलाने से स्फुर को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराने में सहायक होता है ।


समय पर बुआई

जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य 4-5 इंच वर्षा होने पर बुवाई करें ।

कतारों में बोनी

  • कम फैलने वाली प्रजातियों जैसे जे.एस. 93-05, जे.एस. 95-60 इत्यादि के लिये बुवाई के समय कतार से कतार की दूरी 40 से.मी. रखे ।

  • ज्यादा फैलनेवाली किस्में जैसे जे.एस. 335, एन.आर.सी. 7, जे.एस. 97-52 के लिए 45 से.मी. की दूरी रखें ।


बीज की मात्रा

  • बुवाई हेतु दानों के आकार के अनुसार बीज की मात्रा का निर्धारण करें । पौध संख्या 4-4.5 लाख/हे. रखे ।

  • छोटे दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 60-70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें ।

  • बड़े दाने वाली प्रजातियों के लिये बीज की मात्रा 80-90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर की दर से निर्धारित करें ।

  • गहरी काली भूमि तथा अधिक वर्षा क्षेत्रों में रिजर सीडर प्लांटर द्वारा कूड (नाली) मेड़ पद्धति या रेज्ड बेड प्लांटर या ब्राड बेड फरो पद्धति से बुआई करें ।

  • बीज के साथ किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरको का प्रयोग न करें ।


 

कूढ़ एवं नाली पद्धति

 








 

चौड़ी शय्या नाली पद्धति








 

उठी शय्या पद्धति

 








 

संतुलित उर्वरक प्रबंधन:-

  • उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।

  • रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।

  • संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 - 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।

  • संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।

  • नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।


 

जस्ता एवं गंधक की पूर्ति

  • अनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें ।

  • गंधक युक्त उर्वरक (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा । सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग 2.50 क्वि. प्रति हैक्टर की दर से करना लाभकारी है । इसके साथ ही अन्य गंधक युक्त उर्वरकों का उपयोग किया जा सकता है ।


 

सोयाबीन फसल में उवर्रकों की अनुशंसित मात्रा :

 





















































पोषक तत्व विवरण(कि.ग्रा./हे.)विकल्प 1विकल्प 2विकल्प 3
उवर्रक नाममात्रा(कि.ग्रा./हे.)उवर्रक नाममात्रा(कि.ग्रा./हे.)उवर्रक नाममात्रा(कि.ग्रा./हे.)
नत्रजन20यूरिया44डी.ए.पी.130एन.पी.के.200
फासफोरस60-80सुपर फास्फेट400- 500----
पोटाश40म्यूरेटऑफ़ पोटाश67म्यूरेटऑफ़ पोटाश67--
सल्फर20--जिप्सम200जिप्सम200

 

जल संरक्षण उपाय

साधारण सीड ड्रील से बुवाई के समय 5-6 कतारों के बाद फरो ओपनर के माध्यम से एक कूंड बनाए । खाली कूंड को डोरा चलाते वक्त गहरा कर दे । इससे अधिक वर्षा की स्थिति में जल निकासी एवं अल्प वर्षा की स्थिति में जल संरक्षण होगा । सीड ड्रिल के साथ पावडी का उपयोग करें, जिससे जल संरक्षण एवं उचित पौध संख्या प्राप्त की जा सकती है ।

 

अंर्तवर्ती खेती

अंर्तवर्ती फसलें जैसे सोयाबीन $ अरहर (4:2), सोयाबीन $ मक्का (4:2) $ सोयाबीन $ ज्वार (4:2) $ सोयाबीन $ कपास (4:1) को जलवायु के क्षेत्र के हिसाब से अपनायें ।

 

फसल चक्र

निरंतर सोयाबीन चना के स्थान पर सोयाबीन - गेहूं, सोयाबीन - सरसों फसल चक्र को अपनांए ।

 

नींदा प्रबंधन

खरपतवारों को सोयाबीन फसल में निम्न विधियों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है:

  • 1. कर्षण विधि

  • 2. यांत्रिकी विधि

  • 3. रसायनिक विधि


 

यांत्रिक विधि

फसल को 30-45 दिन की अवस्था तक नींदा रहित रखें । इस हेतु फसल उगने के पश्चात डोरे/कुलपे चलावे ।

 

रसायनिक विधि

इस विधि से प्रभावी नींदा नियंत्रण हेतु अवश्यकता एवं समय के अनुकूल खरपतवार नाशी दवाओं का चयन कर उपयोग करें।

सोयाबीन फसल के लिये अनुशंसित

 





























































क्र.खरपतवारनाशकरसायनिकनाममात्रा/हे.
1.बोवनीके पूर्व उपयोगी(पीपीआई)फ्लुक्लोरेलीन2.22 ली
ट्राईफ्लूरेलीन2.00 ली.
2.बोवनीके तुरन्त बाद(पीआई)मेटालोक्लोर2.00 ली.
क्लोमाझोन2.00 ली.
पेण्डीमिथालीन3.25 ली.
डाइक्लोसुलम26 ग्राम
3.15-20 दिनकी फसल में उपयोगीइमेजाथायपर1.00 ली.
क्विजालोफापइथइल1.00 ली.
फेनाक्सीफाप-पी-इथइल0.75 ली
हेलाक्सीफाप135 मि.ली.
4.10-15 दिनकी फसल में उपयोगीक्लोरीम्यूरानइथाइल36 ग्राम















 

फसल सुरक्षा

एकीकृत कीट नियंत्रण के उपाय अपनाएं जैसे नीम तेल व लाईट ट्रेप्स का उपयोग तथा प्रभावित एवं क्षतिग्रस्त पौधों को निकालकर खेत के बाहर मिट्टी में दबा दें। कीटनाशकों के छिड़काव हेतु 7-8 टंकी (15 लीटर प्रति टंकी) प्रति बीघा या 500 ली./हे. के मान से पानी का उपयोग करना अतिआवश्यक है ।



    • अ. जैविक नियंत्रण

      • खेत में ‘ज्’ आकार की खूटी 20-25 /हे. लगाएं ।

      • फेरोमोन ट्रेप 10-12/हे का उपयोग करें ।

      • लाईट ट्रेप का उपयोग कीटों के प्रकोप की जानकारी के लिए लगाएं।






 

  • रसायनिक नियंत्रण


 























ब्लू बीटलक्लोरपायरीफास/क्यूनालफाॅस1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर
गर्डलबीटलट्राईजोफास0.8 ली./हे. या इथोफेनप्राक्स1 ली./हे. या थायोक्लोप्रीड0.75 ली./हे
तम्बाकू की इल्ली एवं रोयंदार इल्लीक्लोरपायरीफास20 इ.सी. 1.5 ली. /हे या इंडोक्साकार्ब14.5 एस.पी. 0.5 ली./हे. यारेनेक्सीपायर20 एस.सी. 0.10 ली./हे.
सेमीलूपरइल्लीजैविक नियंत्रणहेतु बेसिलस युरिंजिएंसिस/ ब्यूवेरिया बेसियाना1 ली. या किलो/हे.
चने की इल्ली एवं तम्बाकू की इल्ली

  • जैविक नियंत्रण - चने की इल्ली हेतु एच.ए.एन.पी.वी 250 एल.ई/हे.तथा तम्बाकू की इल्ली हेतु एस.एल.एन.पी.वी250 एल.ई/हे. या बेसिलसयुरिंजिएंसिस/ ब्यूवेरिया बेसियाना1 ली. या किलो/हे. का उपयोग करें ।

  • रसायनिक निंयत्रण हेतु रेनेक्सीपायर0.10 ली./हे. या प्रोपेनोफाॅस1.25 ली./हे. या इन्डोक्साकार्ब0.50 ली./हे. या लेम्डासायहेलोथ्रीन0.3 ली./हे. या स्पीनोसेड0.125 ली./हे. का उपयोग करें ।



 

सोयाबीन के प्रमुख कीट



















 

समेकित रोग प्रबंधन

समेकित रोग प्रबंधन वह पद्धति है जिसमें सभी उपलब्ध रोग नियंत्रण के निम्न तरीकोंएकीकृत किया जाकर रोग को

  • गर्मीमें गहरी जुताई

  • संतुलितउवर्रक प्रबंधन

  • सही किस्मोंका चयन

  • बुआई कासमय

  • बीज दरव पौध संख्या

  • जल प्रबंधन

  • रोग ग्रस्तफसल अवशेषों कोनष्ट करना

  • कोलेट्रलव विकल्प परपोशीपोधो का निष्कासन

  • खरपतवारनियंत्रण

  • फसल चक्रवअंतरवर्तीय फसल

  • प्रतिरोधीकिस्मों का प्रयोग


पत्ती धब्बा एवं ब्लाइट: नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या थायोफिनेट मिथाईल का 0.05: (50 ग्रा./100 ली पानी)के घोल का 35-40 दिन में छिड़काव करें ।

बेक्टेरियरल पश्चूल: नियंत्रण हेतु रोग रोधी किस्में जैसे एन.आर.सी.-37 का प्रयोग करें । रोग का लक्षण दिखाई देने पर कासुगामाइसिन का 0.2: (2 ग्राम/ली.) घोल का छिड़काव करें ।

गेरूआ : यह एक फफूंदजनित रोग है जो प्रायः फूल की अवस्था में देखा जाता है जिसके अन्तर्गत छोटे-छोटे सूई के नोक के आकार के मटमेले भूरे व लाल भूरे सतह से उभरे हुए धब्बे के रूप में पत्तीयों की निचली सताह पर समूह के रूप में पाये जाते है । धब्बों के चारों ओर पीला रंग होता है । पत्तीयों को थपथपाने से भूरे रंग का पाउडर निकलता है ।

  • रोग रोधी किस्में जैसे जे.एस. 20-29, एन.आर. सी 86 का प्रयोग करें ।

  • रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत हेक्साकोनाजोल या प्रोपीकोनाजोल 800 मि.ली. /हे. का छिड़काव करें ।


चारकोल रोट : यह एक फफूंदजनित रोग है । इस बीमारी से पौधे की जड़े सड़ कर सूख जाती है । पौधे के तने का जमीन से ऊपरी हिस्सा लाल भूरे रंग का हो जाता है। पत्तीयां पीली पड़ कर पौधे मुरझा जाते हैं । रोग ग्रसित तने व जड़ के हिस्सों के बाहरी आवरण में असंख्य छोटे-छोटे काले रंग के स्केलेरोशिया दिखाई देते हैं ।

  • रोग सहनशील किस्में जैसे जे.एस. 20-34 एवं जे.एस 20-29,, जे एस 97-52, एन.आर.सी. 86 का उपयोग करें ।

  • रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत थायरम$कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम /किलो बीज के मान से उपचारित करें ।


ऐन्थ्रेक्नोज व फली झुलसनः यह एक बीज एवं मृदा जनित रोग है । सोयाबीन में फूल आने की अवस्था में तने, पर्णवृन्त व फली पर लाल से गहरे भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे दिखाई देते है । बाद में यह धब्बे फफूंद की काली सरंचनाओं (एसरवुलाई) व छोटे कांटे जैसी संरचनाओं से भर जाते है । पत्तीयों पर शिराओं का पीला-भूरा होना, मुड़ना एवं झड़ना इस बीमारी के लक्षण है ।

  • रोग सहनशील किस्में जैसे एनआरसी 7 व 12 का उपयोग करें ।

  • बीज को थायरम $ कार्बोक्सीन या केप्टान 3 ग्राम /कि.ग्रा. बीज के मान से उपचारित कर बुवाई करें ।

  • रोग का लक्षण दिखाई देने पर जाइनेब या मेन्कोजेब 2 ग्रा./ली. का छिड़काव करें ।


 
















 

कटाई व गहाई:

  • फसल की कटाई उपयुक्त समय पर कर लेने से चटकने पर दाने बिखरने से होने वाली हानि में समुचित कमी लाई जा सकती है।

  • फलियों के पकने की उचित अवस्था पर (फलियों का रंग बदलने पर या हरापन पूर्णतया समाप्त होने पर) कटाई करनी चाहिए । कटाई के समय बीजों में उपयुक्त नमी की मात्रा 14-16 प्रतिशत है ।

  • फसल को 2-3 दिन तक धूप में सुखाकर थ्रशर से धीमी गति (300-400 आर.पी.एम.) पर गहाई करनी चाहिए ।

  • गहाई के बाद बीज को 3 से 4 दिन तक धूप में अच्छा सुखा कर भण्डारण करना चाहिए ।


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