करेले की खेती सम्पूर्ण जानकारी

करेले की खेती सम्पूर्ण जानकारी

करेले की खेती


वैज्ञानिक तरीके से करें हाईब्रिड करेले की खेती, होगी ज्यादा कमाई


[caption id="attachment_1867" align="alignnone" width="739"]करेले की खेती करेले की खेती[/caption]

करेले की खेती :  कम लागत में कमाएं अधिक मुनाफा


गर्मियों का मौसम शुरू होते ही बाजारों में सब्जियों की मांग काफी हद तक बढ़ जाती है, क्योंकि इस सीजन में सब्जियों की आवक काफी कम होती है। जिस वजह से सब्जियों का भाव अधिक होता है। वर्तमान में अधिकतर किसान सब्जियों की बागवानी कर उचित मुनाफा भी कमा रहे हैं। लेकिन किसान इस मौसम में पारंपरिक सब्जियों जैसे भिंडी, तोरई, घीया, टिंडा, खीरा, ककड़ी आदि की खेती ही करते है, इनकी खेती से किसानों को औसत लाभ ही मिलता है। लेकिन किसान अब गर्मियों में भी कुछ ऐसी सब्जियों की खेती कर रहे हैं, जिससे उनकी काफी मोटी कमाई हो रही है। ऐसी ही एक खेती करेले की है।

भारत में अधिकांश किसान करेले की फसल का उत्पादन एक वर्ष में दो बार करते हैं। सर्दियों के समय में बोये जाने वाले करेले की किस्मों को जनवरी-फरवरी में बुआई कर मई-जून में इसका उत्पादन प्राप्त कर लेते हैं। जबकि गर्मियों के समय में करेले की किस्मों की बुआई जून और जुलाई में करने के पश्चात इसकी उपज दिसंबर तक मिल जाती है। समय के बदलाब के साथ मे अब करेले की खेती भी एक मुनाफे की खेती हो गई है, जिसकी बाजार में बहुत अच्छी मांग है और वो भी बहुत ही अच्छे भाव के साथ। करेले के औषधीय गुण के कारण यह बाजार में आसानी से बिक भी जाता है।

करेले में पाये जाने वाले पोषक तत्व


मनुष्य के लिए करेला परम हितकारी और औषधीय गुणों का भंडार है। इसमें ढेरों एंटीऑक्सीडेंट और जरूरी विटामिन पाए जाते हैं। करेले में प्रचूर मात्रा में विटामिन ए, बी और सी पाए जाते हैं। इसके अलावा कैरोटीन, बीटाकैरोटीन, लूटीन, आयरन, जिंक, पोटैशियम, मैग्नीशियम और मैगनीज जैसे फ्लावोन्वाइड भी पाए जाते हैं। करेला वात विकार, पाण्डु, प्रमेह एवं कृमिनाशक होता है।

बड़े करेले के सेवन से प्रमेह, पीलिया और आफरा में लाभ मिलता है। छोटा करेला बड़े करेले की तुलना में ज्यादा गुणकारी होता है। करेला शीतल, भेदक, हलका, कड़वा व वातकारक होता है और ज्वर, पित्त, कफ रूधिर विकार, पाण्डुरोग, प्रमेह और कृमि रोग का नाश भी करता है। करेली के गुण भी करेले के समान है। करेले का साग उत्तम पथ्य है। यह आमवात, वातरक्त, यकृत, प्लाहा, वृद्धि एवं जीर्ण त्वचा रोग में लाभदायक होता है। इसमें विटामिन ‘ए’ अधिक मात्रा में होता है। इसमें लोहा, फास्फोरस तथा कम मात्रा में विटामिन सी भी पाया जाता है।

करेले का उपयोग एवं लाभ


करेले की खेती सब्जी के रूप में की जाती है, इसके पौधे बेल की तरह होते है, जिस वजह से इसे बेल वाली फसल की श्रेणी में रखा गया है। करेले की सब्जी बहुत ही फायदेमंद मानी जाती है। इसे सब्जी के रूप में पकाकर खाने के अलावा करेले का जूस, करेले का अचार बनाकर भी इस्तेमाल में लाते है। करेले के जूस का सेवन करने से पेट संबंधित बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है, तथा मधुमेह के उपचार में भी करेले का इस्तेमाल करते हैं।

[caption id="attachment_1868" align="alignnone" width="605"]करेले की खेती करेले की खेती[/caption]

यह एक औषधीय पौधा होता है, और इसमें लगने वाले फलों का सेवन कर अनेक प्रकार की बीमारियों जैसे- पाचनतंत्र की खराबी, भूख की कमी, पेट दर्द, बुखार, गर्भाशय रोग, कुष्ठ रोगों इत्यादि से छुटकारा पाया जा सकता है। करेले से कमजोरी दूर होती है। इतना ही नहीं करेला के बीज को घाव, आहार नलिका, तिल्ली विकार और लिवर से संबंधित बीमारियों में उपयोग में लिया जाता है।

करेले की खेती में लागत एवं पैदावार और लाभ


करेले की ऐसी किस्में मौजूद हैं जिन्हें कहीं भी और किसी भी मौसम में उगाया जा सकता है। करेले की फसल बीज/पौध रोपाई के तीन से चार माह बाद पैदावार देना शुरू कर देता है। जब इसके फलों का रंग और आकार आकर्षक दिखाई देने लगे, तब उनकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए। करेले के फलों की तुड़ाई 2 से 3 सेंमी. लंबे डंठल के साथ करनी चाहिए, इससे फल अधिक समय तक ताजा बना रहता है।

इसके फलों की तुड़ाई एक हफ्ते में दो बार की जाती है। करेला की खेती में लागत के मुकाबले बढिय़ा भाव मिलता है। करेला की प्रति एकड़ लागत 20-25 हजार रुपए आती है। करेले की उन्नत हाईब्रिड किस्म से प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 50-60 क्विंटल तक उपज मिल जाती है। करेले का बाजार भाव 15 से 30 रूपये किलोग्राम होता है। जिससे बाजार में करीब 2 लाख रुपये का भाव मिल जाता है। इस तरह करेला की खेती से किसानों को अच्छा फायदा मिलता है।

करेले की खेती के लिए उपयुक्त मौसम?


करेले को गर्मी और वर्षा दोनों मौसम में उगाया जा सकता है। किसानों को वर्षा के मौसम की अपेक्षा गर्मी के मौसम में करेले की खेती अधिक फायदा होता हैं। भारत में करेले की खेती साल में दो बार की जाती है। गर्मी के मौसम करेले की फसल के लिए जनवरी से मार्च तक इसकी बुवाई की जाती है, मैदानी इलाकों में बारिश के मौसम की फसल के लिए इसकी बुवाई जून से जुलाई के बीच की जाती है, और पहाडिय़ों में मार्च से जून तक बीज बोया जाता है।

करेले की खेती के लिए जलवायु 


करेले को गर्मी और वर्षा दोनों मौसम में उगाया जा सकता है। इसके पौधे ठंडी जलवायु को भी आसानी से सहन कर लेते हैं, किंतु सर्दियों में गिरने वाला पाला पौधे को हानि पहुंचाता है। करेले के पौधे सामान्य तापमान पर अच्छे से विकास करते हैं, किन्तु बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है। इसके पौधों को अच्छे से विकास करने के लिए उच्च तापमान की आवश्यकता होती है। फसल में अच्छी बढवार, फूल व फलन के लिए 25 से 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान अच्छा होता है। बीजों के जमाव के लिए 22 से 25 डिग्री सेल्सियस का ताप अच्छा होता है।

खेती के लिए उपयुक्त भूमि


आपको बता दें कि करेले की खेती के लिए किसी खास तरह की मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है, इसे किसी भी उपजाऊ मिट्टी में आसानी से उगाया जा सकता है, लेकिन उचित जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी को इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना गया है। इसके अलावा इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच मान 6 से 8 होना चाहिए। करेले की खेती इस प्रकार की भूमि पर अधिक गुणवत्ता वाली अच्छी पैदावार देती है। जिससे किसान भाईयों को इसकी खेती से उचित लाभ मिलता है।

करेले की उन्नत किस्में और पैदावार



  • कल्याणपुर बारहमासी : इस किस्म को चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा पूरे वर्ष पैदावार लेने के लिए तैयार किया गया  है। इस किस्म से 60 से 70 दिनों में पैदावार ली जा सकती है। इस किस्म से एक एकड़ की भूमि पर करीब 60 से 65 क्विंटल की पैदावार हो जाती है।

  • पूसा विशेष : करेले की यह किस्म कम समय में पैदावार देने वाली उन्नत किस्म है। पूसा विशेष किस्म 55 से 60 दिनों के बाद पैदावार देने लगती है। इस किस्म से एक एकड़ की भूमि में इसकी खेती से 60 क्विंटल के आसपास उत्पादन प्राप्त हो जाता है।

  • हिसार सलेक्शन : करेले की इस किस्म को अधिकतर उत्तर भारत में उगाया जाता हैं। हिसार सलेक्शन करेले की किस्म को पंजाब-हरियाणा में अधिक पसंद किया जाता है। पंजाब हरियाणा के अधिकतर किसान करेले की खेती के इस किस्म का ही प्रयोग करते हैं। इसके पौधे कम फैलाव वाले होते हैं, जो एक एकड़ के खेत से 40 क्विंटल की पैदावार देते हैं।

  • कोयम्बटूर लौंग : करेले की इस किस्म को खासकर दक्षिण भारत में अधिक पैदावार के लिए उगाया जाता है। इसके पौधे अधिक दूरी तक फैलते हैं तथा इसके पौधों में फल भी अधिक मात्रा में लगते हैं। इस किस्म को तैयार होने में 65 से 80 दिन का समय लग जाता है, जिससे प्रति हेक्टेयर 40 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त हो जाता है।

  • अर्का हरित : इस किस्म के फल मध्यम आकार के होते हैं। करेले की अन्य किस्मों की तुलना में इसके फल कम कड़वे और कम बीज वाले होते हैं। इस किस्म के करेले की प्रत्येक बेल से 30 से 40 फल प्राप्त किए जा सकते हैं। इस किस्म के करेले से किसान भाई को एक एकड़ भूमि से 36 से 48 क्विंटल तक की पैदावार मिल जाती है।

  • इसके अतिरिक्त कुछ नई व उन्नत किस्म को भी तैयार किया गया हैं। जिनमें एसडीयू-1, पूसा संकर-1, पूसा दो मौसमी, पूसा औषधि, पंजाब- 14, पंजाब करेला-1, कल्यानपुर सोना, पूसा हाइब्रिड-1, पूसा हाइब्रिड-2, प्रिया को-1, सोलन हरा, सोलन सफेद आदि किस्में मौजूद हैं।  जिन्हें मिट्टी एवं जलवायु के अनुसार अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए तैयार किया गया है, जिसे उगाकर किसान भाई कम समय में अच्छा लाभ भी कमा रहे हैं।


खेती के लिए बीजों की मात्रा एव बीज उपचार


करेले की देशी और हाईब्रिड, दोनों किस्म के बीज बाजार में आसानी से आपको मिल जाते हैं। अलग-अलग किस्मों की उपज और उसके पकने का वक्तभी अलग-अलग होना स्वाभाविक है। करेले की खेती में आपको प्रति एकड़ 500 से 600 ग्राम बीज की जरूरत पड़ेगी। इन बीजों को खेत में लगाने से पहले उपचारित करना उचित रहता है। करेले के हाईब्रिड बीज पहले से ही उपचारित आते हैं इनको सीधे बुवाई में उपयोग कर सकते हैं। अगर आप हाईब्रिड बीज के अलावा अन्य किस्म के बीज लगाना चाहते है तो इनको बुवाई से पहले 2 ग्राम कार्बोनडाजिम/किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लें।

बीजों की रोपाई का तरीका


करेले को आप सीधे सीधे बीज से भी उगा सकते हैं। या बीज से पहले पौधा तैयार करें जहां आप को करेला लगाना है वहां पर तैयार पौधे को रोपित कर सकते हैं। खेत में बनाए हुए हर क्यारी में चारों तरफ 4 से 5 करेले के बीज 2 से 3 सेमी गहराई पर बो देना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु बीज को बुवाई से पूर्व 12 से 18 घंटे तक पानी में रखें। तैयार खेत में बीज लगाने से पहले बीज को 1 दिन पानी में भिगो लेना चाहिए। जिससे करेले का बीज आसानी से अंकुरित हो जाये।

पॉलीथीन की थैली में करेले के पौध को तैयार करना


करेला के पौधों को नर्सरी में भी तैयार करके उसकी रोपाई की जाती है। लेकिन तैयार पौधों को भी बीजों की तरह ही खेत में लगाया जाता है। पॉलीथीन की थैलियों में करेले की पौध तैयार करने के लिए 15 गुणा 10 से.मी. आकार की पॉलीथीन की थैलियों में 1:1:1 मिट्टी, बालू व गोबर की खाद भरकर जल निकास की व्यवस्था के लिए किसी नुकिली वस्तु की सहायता से छेद कर सकते हैं। बाद में इन थैलियों में लगभग 1 से.मी. की गहराई पर बीज बुवाई करके मिट्टी की पतली परत बिछा लें तथा हल्की सिंचाई करें। लगभग एक महीने बाद पौधे खेत में लगाने के योग्य तैयार हो जाते हैं। इन तैयार पौधों की खेत में रोपाई से पहले पॉलीथीन की थैली को ब्लेड से काटकर हटाने के बाद पौधे की मिट्टी के साथ खेत में बनी नालियों की मेढ़ पर रोपाई करके सिंचाई करें।

[caption id="attachment_1869" align="alignnone" width="739"]करेले की खेती करेले की खेती[/caption]

करेले की खेत में उर्वरक एवं खाद की मात्रा


करेले की रोपाई से पहले खेत को तैयार करते वक्त 15 से 20 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट का इस्तेमाल भी करना चाहिए। इसके अलावा एक एकड़ खेत में 50 किलोग्राम डीएपी, 50 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट, 50 किलोग्राम यूरिया, 50 किलोग्राम पोटाश, 10 किलोग्राम फ्यूराडान, 5 किलोग्राम जायज, 500 ग्राम कॉपर ऑक्सी क्लेइड गड्ढ़ों में तैयार कर गड्ढ़ों की मिट्टी को तर करने के लिए इस्तेमाल करें। बुवाई के 25 से 30 दिन बाद फसल में निराई-गुड़ाई करके पौधे पर मिट्टी चढ़ाए। बेहतर होगा कि फल लगने से ठीक पहले सभी उर्वरकों का प्रयोग पूरा कर लें।

करेले की खेती में सिंचाई


करेले की खेत की रोपाई अगर पौधों द्वारा की गई है, तो रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई करें। गर्मियों के मौसम में प्रत्येेक 6 से 7 दिनों के बाद सिंचाई करते रहे और बारिश के मौसम में जरूरत पडऩे पर सिंचाई करें। करेले की फसल को कुल 8 से 9 सिंचाई की आवश्यकता होती है।

करेले की फसल की सुरक्षा कैसे करें?


करेला की फसल जल्द रोगग्रस्त होती है। इसकी जड़ों से लेकर बाकी हिस्सों में कीड़े भी लगते हैं। रेड बीटल, माहू रोग और सुंडी रोग से करेला की फसल ज्यादा प्रभावित होती है। इसे वायरसों के प्रकोप से भी बचाना जरूरी है। इसीलिए कृषि विशेषज्ञ की सलाह लेकर ही कीटनाशक या रासायनिक खाद का इस्तेमाल करके फसल का उपचार करते रहना चाहिए।

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